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मूवी रिव्यू: जोगी

फिल्म से कुछ सीन आपको हिट करते हैं. लेकिन जल्दी-जल्दी कहानी लपेटने की कोशिश उसे नुकसान भी पहुंचाती है.

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डर, खोखला गुस्सा, वहशीपन को कैद करता फिल्म से एक स्टिल.
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यमन
16 सितंबर 2022 (Updated: 16 सितंबर 2022, 01:00 PM IST) कॉमेंट्स
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दिलजीत दोसांझ की फिल्म ‘जोगी’ नेटफ्लिक्स पर रिलीज़ हो गई है. फिल्म को बनाया है अली अब्बास ज़फ़र ने. उन्होंने ही सुखमनी सदाना के साथ मिलकर फिल्म लिखी भी है. दिलजीत के अलावा फिल्म में मोहम्मद ज़ीशान अय्यूब, हितेन तेजवानी, कुमुद मिश्रा और अमायरा दस्तूर जैसे एक्टर्स भी हैं.  

फिल्म की कहानी शुरू होती है 31 अक्टूबर, 1984 की तारीख से. जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को उनके आवास स्थान पर उनके बॉडीगार्ड्स ने मार डाला. देशभर में दंगे भड़क पड़ते हैं. दिल्ली का त्रिलोकपुरी भी इनसे अछूता नहीं रहा. वो त्रिलोकपुरी जहां जोगिंदर उर्फ जोगी बचपन से रहा है. अपने परिवार, अपने दोस्तों, पड़ोसियों के साथ. हिंसा भड़कते ही पड़ोस उजड़ने लगता है. परिवार बिखरने लगता है. साथ रह जाती है तो बस दोस्ती. 1984 के एंटी-सिख दंगों का बैकड्रॉप लेकर बनाई गई फिल्म जोगी और उसके दो दोस्तों की कहानी है. कैसे ये लोग ऐसे हालात में मानवीय मूल्यों के लिए खड़े होते हैं. ज़्यादा-से-ज़्यादा लोगों को बचाने की कोशिश करते हैं.

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दंगाइयों के चेहरों को पूरी फिल्म में ढका रखा. फिल्म उन्हें आइडेंटिफाइ नहीं करना चाहती. 

1984 की एंटी-सिख हिंसा. इंसान कितना बर्बर, निर्दयी हो सकता है, वो याद दिलाने वाली घटना. ऐसी घटना को स्क्रीन पर पूरी सेंसीटिविटी के साथ दिखाना एक बडी ज़िम्मेदारी है. ‘जोगी’ इस बात को समझती है. क्रिएटिव फ्रीडम के नाम पर अपने से कुछ जोड़ती है. लेकिन उससे दंगों के इम्पैक्ट को नकारने की कोशिश नहीं करती. जिनके खिलाफ हिंसा हुई, रातों-रात जिनके घर उजड़े, उन्हें याद रखना ज़रूरी है. ताकि हम इतिहास से सबक ले सकें. लेकिन जिन्होंने उनकी ये दुर्दशा की, उनका क्या. वो पीड़ितों के पुराने पड़ोसी रहे हो सकते हैं. पास की दुकान वाला या कोई भी दूसरा इंसान. फिल्म दंगाइयों को आइडेंटिफाइ नहीं करना चाहती. कभी उनकी शक्ल नहीं दिखाती, उनके नाम नहीं बताती. आपको पीड़ितों के चेहरे पर डर, दुख दिखेगा. लेकिन दंगाइयों के चेहरे का खोखला गुस्सा नहीं देख पाएंगे.  

हर सीन में उनके चेहरे कपड़ों से ढके मिलेंगे. मेरे हिसाब से ऐसा किया गया ताकि उन्हें कोई पहचान न दी जा सके. क्योंकि हम तो ऐसे लोग हैं कि कपड़ों और उपनामों में धर्म खोज लाते हैं. ऐसे में दंगाइयों को सिर्फ एक संज्ञा देकर छोड़ दिया गया – कायरों की संज्ञा. फिल्म के किरदारों की दुनिया एक झटके में बदल जाती है. यही वो समय होता है जब उनका असली इंसान बाहर आता है. कोई अपने दोस्त की मदद करना चाहता है. तो कोई दूसरे से आपसी रंजिश निकालने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार है. कुल मिलाकर फिल्म दोस्ती के इमोशन को पकड़ना चाहती है. कुछ हद तक कामयाब होती भी है और नहीं भी. क्यों नहीं होती, पहले वो बताता हूं.  

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1984 के एंटी सिख दंगों का बैकड्रॉप लेकर फिल्म तीन दोस्तों की कहानी दिखाना चाहती है.  

तीनों दोस्तों को कहानी में ठीक से स्पेस नहीं मिल पाता. जिन घटनाओं की वजह से उनके बीच की बॉन्डिंग बनी, उन्हें फिल्म जल्दी-जल्दी में निकाल देती है. इसका कारण दो घंटे की लेंथ भी हो सकती है. जिस नींव पर आप अपनी कहानी खड़ी कर रहे हैं, कम-से-कम उसे तो प्रॉपर स्पेस दिया जा सकता था. कुछ ऐसी ही शिकायत मुझे फिल्म के क्लाइमैक्स से भी रही. एक पॉइंट पर आप जोगी और उसके दोस्त रविंदर को लोगों को बचाते हुए देखते हैं. उनके पीछे तमाम तरह के लोग पड़े हैं. ये रन-एंड-चेज़ वाला हिस्सा थोड़ा ग्रिपिंग लगता है. लेकिन सेकंड हाफ में ये पकड़ ढीली पड़ने लगती है. सीमित लेंथ की वजह से फिल्म अपने एक्टर्स को भी ठीक से इस्तेमाल नहीं कर पाती. जोगी बने दिलजीत में आपको डर दिखेगा, बौखलाहट दिखेगी. एक सीन है जहां वो अपने बाल काटते हैं. रात के अंधेरे में. ज्यों-ज्यों लट पर कैंची चलती है, त्यों-त्यों आंखों से लंबी धार बहने लगती है. ऐसे सीन फिल्म के हाइलाइट्स में से हैं. लेकिन कुछ ऐसे भी सीन हैं जहां दिलजीत किरदार पर से नियंत्रण खो देते हैं.  

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फिल्म की सीमित लेंथ इसका नुकसान करती है.  

ज़ीशान अय्यूब ने उनके दोस्त रविंदर का किरदार निभाया. भाषा से रविंदर हरियाणा का लगता है. दिल्ली पुलिस में कार्यरत है. जोगी की हर संभव मदद करता है. उनके किरदार को ज़्यादा शेड्स नहीं मिले. बस वो हमेशा सीरियस दिखता है. कुमुद मिश्रा ने फिल्म में एक नेता का रोल किया. जो हिंसा भड़काने की पुरजोर कोशिश कर रहा है. फिल्म की लिखाई उनसे कुछ ज़्यादा डिमांड नहीं करती. इन सभी एक्टर्स के बीच मुझे हितेन तेजवानी का काम स्टैंड आउट करने लायक लगा. पहले हाफ में उनके किरदार पर गुस्सा आएगा. लेकिन सेकंड हाफ में फिर वक्त, जज़्बात बदल जाते हैं. इन दोनों पहलुओं को हितेन सही से कैरी कर लेते हैं.

एक पूरी फिल्म के तौर पर ‘जोगी’ शायद यादगार सिनेमा न रहे. लेकिन इसके कुछ मोमेंट्स हैं जो आपको रोकते हैं. आपका ध्यान खींचते हैं. जोगी के बाल काटने वाला सीन. अपनी सरदारी की शान को भुला देने वाला सीन. इसके बाद एक और सीन आता है. जहां वो अपने दोस्त से विदा लेता है. तभी उसका दोस्त जोगी का हाथ खींचता है. आपको लगे कि शायद आखिरी बार हाथ मिलाना चाहता हो. पर वो ऐसा नहीं करता. वो जोगी के हाथ में पहने कड़े को निकालता है. फिल्म इसी भाव में इंवेस्ट करना चाहती है. कुछ शिकायतें ज़रूर हैं फिल्म से. फिर भी इसे देखा जाना चाहिए.

वीडियो: मूवी रिव्यू - कठपुतली

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