‘बच्चन पांडे’, ‘ब्लडी ब्रदर्स’ और ‘अपहरण सीज़न 2’ जैसी रिलीज़ेस के बीच इस हफ्ते एकऔर फिल्म आई है, ‘जलसा’. अमेज़न प्राइम वीडियो पर रिलीज़ हुई इस फिल्म को विद्या बालनऔर शेफाली शाह लीड कर रही हैं. फिल्म की शुरुआत होती है शुक्रवार की एक देर रात से.हम एक लड़का और लड़की से मिलते हैं, जिनके बारे में हम कुछ नहीं जानते. दोनों मेंकिसी बात को लेकर मनमुटाव होता है. लड़की सड़क पर भागती है और, तभी उसे एक गाड़ी टक्करमार देती है.फिर हम इस एक्सीडेंट से कुछ घंटे पीछे चलते हैं. माया मेनन नाम की जर्नलिस्ट केपास, जिसका रोल विद्या ने निभाया. माया अपना यूट्यूब न्यूज़ चैनल चलाती है, और अपनेटर्म्स पर काम करती है. दूसरी तरफ उसकी एक मेड है रुकसाना. जिसका रोल शेफाली शाह नेनिभाया है. रुकसाना अपने काम को छोटा नहीं मानती, एक सेल्फ रिस्पेक्टिंग औरत है.फिल्म के शुरुआत में हुई घटना का इन दोनों औरतों की लाइफ पर क्या असर पड़ता है, यहीफिल्म की मोटा-माटी कहानी है. फिल्म के डायरेक्टर सुरेश त्रिवेणी ने टाइम्स ऑफइंडिया को दिए एक इंटरव्यू में कहा था कि मैं कन्फ्लिक्ट शब्द को बहुत मानता हूं और‘जलसा’ के कोर में आपको वही मिलेगा.फिल्म के एक सीन में रुकसाना बनी शेफाली शाह.विज़िबल और इनविज़िबल रूप से कन्फ्लिक्ट या कहें तो डिवाइड पूरी फिल्म में दिखता है.सबसे पहला तो माया और रुकसाना का क्लास डिवाइड. फिर पूरी फिल्म में आपको ऐसे सीनदिखेंगे जहां बिल्कुल सन्नाटा पसर जाएगा, आप उस सन्नाटे में कम्फर्टेबल भी होजाएंगे, और तभी धम से ये सन्नाटा टूटेगा. जैसे एक किरदार रेस्टोरेंट में बैठी है.उसे किसी रियलाइज़ेशन ने हिट किया. सीन बिल्कुल शांत है, कि तभी ज़मीन पर बर्तन गिरनेकी आवाज़ आती है, और हमारा ध्यान टूटता है. एकदम गुप शांति, और उसको तोड़ने वाली उतनीही तेज़ आवाज़. ऐसा और भी जगह होता है कि सीन में एकदम शांति है, और किसी किरदार कीचीख ही उस सीन का पहला साउंड होता है.कन्फ्लिक्ट पर बात करते हुए एक और सीन का ज़िक्र करना चाहता हूं, वरना डिनर हज़म नहींहोगा. फिल्म में जिस लड़की का एक्सीडेंट होता है, वो एक जगह कहती है कि वो AC मेंनहीं सो सकती. फिर एक्सीडेंट के बाद उसे बड़े हॉस्पिटल में एडमिट किया जाता है. उसहॉस्पिटल का पहला एस्टैब्लिशिंग शॉट एक चलते हुए AC का था. किसी मशीन यास्थेथोस्कोप लगाए डॉक्टर का नहीं.सुरेश त्रिवेणी ने अपने एक इंटरव्यू में कहा था कि फिल्म को वुमन सेंट्रिक कहानीकहना गलत होगा, यहां मेल किरदार भी ज़रूरी हैं.फिल्म का टाइटल ‘जलसा’ क्यों है, ये एकदम एंड में जाकर समझ आता है. बाकी वहां तकपहुंचने के सफर में कोई लाउड मोमेंट नहीं आता. फिल्म एक स्लो बर्न की तरह महसूसहोती है. फिल्म की मेजर घटना पहले पांच मिनट में ही घट जाती है. उसके बाद बस हमकिरदारों की बेचैनी, गुस्से और गिल्ट से परिचित होते हैं. विद्या और शेफाली केकिरदारों के बीफोर और आफ्टर वाले ट्रांज़िशन देखने को मिलते हैं, जो फिल्म की पेस परऐसे चलते हैं कि ऐब्रप्ट नहीं लगते. पहली नज़र में विद्या का किरदार माया एककॉन्फिडेंट जर्नलिस्ट की तरह पेश आती है. रसूखदार गेस्ट से भी असहज कर देने वालेसवाल पूछने से नहीं घबराती. एक ऐसी चादर ओढे रहती है जिसके पार कोई नहीं झांक सकता.पता नहीं कर सकता कि उसकी असली शख्सियत क्या है. लेकिन फिर एक्सीडेंट के बाद वालीमाया बिल्कुल उलट लगती है. वल्नरेबल, डरी-सहमी सी. जिसकी उंगलियां कांपती रहती है.विद्या को देखकर लगता है कि उन्हें दोनों पार्ट निभाने में कोई दिक्कत नहीं हुई.बाकी रुकसाना बनी शेफाली शाह को देखकर एक जुड़ाव भले ही महसूस हो, पर दया नहीं आती.कि बेचारी अब क्या करेगी जैसी बातें. शेफाली के मैनरइज़्म से ये नहीं लगेगा कि कोईलोवर इकोनॉमिक क्लास औरत बनने की एक्टिंग कर रही हैं. जितना ज़रूरत होती है, उतनी हीबोलती है. बाकी काम आंखों का. बोलने से याद आते हैं फिल्म के डायलॉग्स, जिन्हेंबिल्कुल आमभाषी रखा गया. मिडल क्लास के बोलचाल की भाषा पर सिनेमा का इंफ्लूएन्स भीनज़र आता है. साथ ही ‘मैं भी जर्नलिस्ट बनना चाहता था, लेकिन मैं बहुत ईमानदार हूं’जैसे सरल और हार्ड हीटिंग डायलॉग भी मिलते हैं.फिल्म के तमाम पॉज़िटिव पॉइंट्स पर बात करने के बाद अब बात उस हिस्से की जो मुझेखटका. फिल्म में एक ट्रेनी जर्नलिस्ट इस हिट एंड रन केस की जांच करने में जुटी है.उसे एक-एक कर तमाम बड़े हिंट मिलते जाते हैं, अपने किसी सोर्स से. ये कभी पता नहींचलता कि ये जांच उसके लिए इतनी आसान कैसे हो गई. राइटिंग के टर्म्स में ये खटकताहै. बाकी ‘कुछ बड़ा होगा’ की उम्मीद रखने वाली जनता को शायद ‘जलसा’ उतनी पसंद न आए.लेकिन फिर भी देखी जानी चाहिए. फिर बता दें कि ‘जलसा’ को आप अमेज़न प्राइम वीडियो परदेख सकते हैं.