सीरीज़ रिव्यू: 'इंडियन प्रेडेटर : द डायरी ऑफ अ सीरियल किलर'
इस सीरीज़ की ख़ास बात है, इसकी स्टोरीटेलिंग और ट्रीटमेंट. एक डॉक्युमेंट्री को फिक्शन की तरह ट्रीट किया गया है. इसलिए बराबर दिलचस्पी बनी रहती है.
दरिंदा
आदमी की आवाज़ में
बोला
स्वागत में मैंने
अपना दरवाज़ा
खोला
और दरवाज़ा
खोलते ही समझा
कि देर हो गई
मानवता
थोड़ी बहुत जितनी भी थी
ढेर हो गई!
आज सुबह से ही भवानीप्रसाद मिश्र की ये कविता 'दरिंदा' कानों में गूंज रही है. कारण है 'इंडियन प्रेडेटर : द डायरी ऑफ अ सीरियल किलर'. इसे 'इंडियन प्रेडेटर : द बुचर ऑफ डेल्ही' का दूसरा सीज़न कहा जा सकता है. हालांकि ऐसा कोई औपचारिक ऐलान नहीं हुआ है कि ये इसी का दूसरा सीज़न है. द बुचर ऑफ डेल्ही बिल्कुल अलग था और द डायरी ऑफ अ सीरियल किलर एकदम अलग है. ये डॉक्यु सीरीज़ आज से ही यानी 7 सितंबर से नेटफ्लिक्स पर स्ट्रीम हो रही है. इसे इंडिया टुडे ने प्रोड्यूस किया है. आइए देखते हैं कैसी है?
ये एक छोटी तीन एपिसोड्स की डॉक्युमेंट्री सीरीज़ है. हर एपिसोड क़रीब 40 मिनट का, यानी कुल मिलाकर 2 घण्टे. इसे 10 भाषाओं में और 30 से ज़्यादा भाषाओं के सबटाइटल्स के साथ रिलीज़ किया गया है. हर एक एपिसोड को अलग नाम दिया गया है: द मर्डरर, द कैनिबल, द किंग. इन्हीं नामों में सीरीज़ का निचोड़ है. हालांकि इसे डॉक्युमेंट्री कहा जा रहा है. पर इसे डॉक्युमेंट्री और ड्रामा का मिलाजुला रूप कहना ज़्यादा उचित होगा. माने ये एक डॉक्युड्रामा सीरीज़ है. इसमें कुछ रियल इंसिडेंट्स को उठाकर उनको एक धागे में पिरोया गया है. उनका कुछ-कुछ जगहों पर नाट्य रूपांतर भी किया गया है.
ये कहानी है सीरियल किलर राजा कोलंदर की. जिसके बारे में कहा जाता है कि उसने 14 लोगों का क़त्ल किया. उनमें से किसी के दिमाग़ को, किसी की आंत को उबालकर उसका सूप बनाकर पी गया. ताकि उसे शक्ति मिल सके. ये सब खुलासा हुआ था साल 2000 में. जब इलाहाबाद के पत्रकार धीरेन्द्र सिंह की हत्या हो गई और राजा कोलंदर को उनके मर्डर के आरोप में पकड़ा गया. धीरे-धीरे करके उसकी डायरी से खुलासे होने शुरू हुए, जैसा कि नाम से ज़ाहिर है 'द डायरी ऑफ अ सीरियल किलर'. ऐसे चौंकाने वाले तथ्य सामने आए, जिन्होंने राजा कोलंदर को नरपिशाच, नरभक्षी साइको किलर के तौर पर स्थापित कर दिया. ये सीरीज़ धीरेंद्र सिंह की हत्या को रेफ्रेंस पॉइंट के तौर पर उठाती है. वहीं से क्रमवार आगे की सत्य घटनाओं पर आधारित कहानी कहती है. पब्लिक डोमेन में इसके साक्ष्य भी मौजूद हैं.
इस सीरीज़ की ख़ास बात है, इसकी स्टोरीटेलिंग और ट्रीटमेंट. एक डॉक्युमेंट्री को फिक्शन की तरह ट्रीट किया गया है. इसलिए बराबर दिलचस्पी बनी रहती है. ऐसा नहीं है कि सिर्फ़ तथ्यों को सामने रख दिया गया. बल्कि उनको एक टाइमलाइन में पिरोया गया है. फिर ऑडियंस के सामने परोसा गया है. इसके लिए सहारा लिया गया है; विक्टिम्स के परिवारों का, राजा कोलंदर के परिवार का, इन्वेस्टिगेटिंग ऑफिसर्स का. या और जो भी दूसरे लोग कोलंदर से किसी न किसी तरह से जुड़े रहे हैं. डाक्यूमेंट्रीज़ एक समय के बाद बोझिल हो जाती हैं. पर इसे किसी एक फ़िक्शन थ्रिलर की तरह ट्रीट किया गया है. जिस कारण देखने मे मज़ा आता है. जहां भी मामला ढीला होता है, बीच में एक मॉन्टाज चला दिया जाता है. सीरीज़ को एक पड़ताल के तौर पर इस्तेमाल किया गया है, जो एक पक्षीय नहीं है. सीरीज़ पहले मारे गए लोगों के परिवारों और पुलिस वालों की बात सुनती है. फिर उसी के पैरलल राजा कोलंदर के परिवार की बात भी सुनती है. इसमें ख़ुद राजा कोलंदर भी अपना पक्ष रखता है. बस एकाध जगहों पर लगता है कि सीरीज़ कोलंदर को दोषी साबित करने की कोशिश करती है. मेकर्स को थोड़ा और आगे जाकर राजा के बयानों की पड़ताल करनी चाहिए थी. जिन लोगों के वो ज़िंदा होने की बात करता है, उनके पास भी जाना चाहिए था.
एक फ़िक्शन फ़िल्म की कहानी ज़्यादातर पहले से तय होती है. उसके शॉट्स और अन्य चीजें भी प्रीप्लांड होते हैं. पर डॉक्युमेंट्री में सब कुछ पहले से डिसाइड नहीं होता. डायरेक्टर को जैसी बाइट्स मिलती हैं, उसके आधार पर वो असल खेल पोस्ट प्रोडक्शन में करता है. यहां भी संभवतः ऐसा ही किया गया है. सभी चश्मदीदों और जानकारों की बाइट्स के ज़रिए एक नरेटिव सेट करने की कोशिश की गई है. ये डॉक्यु सीरीज़ सिर्फ़ ऊपरी तौर पर क्राइम को नहीं दिखाती, पर्दे के पीछे की चीजों को भी उज़ागर करती है. कुछ जगहों पर दो विरोधाभासी बातों को एक साथ बताकर फैसला जनता पर छोड़ देती है. कुछ जगहों पर उनका विश्लेषण भी करती है. कुल मिलाकर ये जर्नालिस्टिक अप्रोच से बनाई गई डॉक्युमेंट्री है.
ये सिर्फ़ क्रिमिनल या क्राइम को नहीं दिखाती. उसकी मानसिकता को भी सामने रखती है. एक साइको किलर कैसे काम करता है? ये बताने के लिए साइकोलॉजिस्ट की मदद लेती है. ऐसे ही राजा कोलंदर की मानसिकता को उसकी आदिवासी पृष्ठभूमि से जोड़कर अलग-अलग पहलुओं को जांचती है. साथ ही राम निरंजन राजा कोलंदर कैसे और क्यों बना? इसमें समाज और उस समय के राजनीतिक परिदृश्य की क्या भूमिका रही? इन सब बातों को भी एक-एक करके उकेरती है. इसके लिए मानव विज्ञानी और समाज शास्त्री की मदद लेती है.
यानी ये सिर्फ़ जुर्म नहीं दिखाती. उसकी मेंटैलिटी और दूसरे पहलुओं को भी संज़ीदगी से पेश करती है. इसमें इसकी मदद करते हैं, ईशान छाबड़ा का बेहतरीन साउंड स्कोर, प्रथम मेहता की सिनेमैटोग्राफी, प्रशांत मुखर्जी की रिसर्च, सुदीप निगम की राइटिंग और सबसे ज़रूरी सीरीज़ को तेज़ रफ़्तार से भगाती सौरभ प्रभुदेसाई की एडिटिंग. कुल मिलाकर धीरज जिंदल के निर्देशन में बनी ये एक अच्छी डॉक्यु सीरीज़ है. इसके लिए 2 घण्टे ख़र्च किए जा सकते हैं.
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