फिल्म रिव्यू: छेल्लो शो
सिनेमा के प्रति गाढ़े प्रेम की कहानी, जो आपका सिनेमा की ताकत में भरोसा मज़बूत करती है.
साल 2010. गुजरात का चलाला गांव. एक दिन वहां कुछ अनोखी घटना घटती है. नौ साल के बच्चे समय के पिता घर आते हैं. कहते हैं कि आज हम सब सिनेमा देखने जाएंगे. इस घर में ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था. अब ऐसा क्यों हो रहा है. ये पूछने पर जवाब मिलता है कि शहर में ‘जय महाकाली’ फिल्म लगी है. पूरा परिवार सिंगल स्क्रीन सिनेमाघर पहुंच जाता है. परदे पर चल रही फिल्म देखकर लोग भक्तिभाव से तालियां बजा रहे हैं. लेकिन फिल्म खत्म होने तक असली भक्त सिर्फ समय बनता है. सिनेमा का भक्त.
किसी भी तरह प्रोजेक्टर से निकलने वाली उस रोशनी के करीब रहना चाहता है. यहां उसके काम आता है फज़ल. जो उस सिनेमाघर में प्रोजेक्शनिस्ट है. फज़ल उसे प्रोजेक्शन रूम में बैठकर फिल्में देखने देता है. रोशनी बड़ी सी मशीन से निकलकर परदे तक कैसे पहुंचती है, ये समझने देता है. समय की दुनिया बदलती है. साथ ही बदलती है उस सिनेमा की दुनिया, जिससे उसने प्यार किया था. ‘छेल्लो शो’ एक सिनेप्रेमी और उसके सिनेमा प्रेम की इंटीमेट कहानी है. सिनेमा की ताकत की कहानी है.
समय और फज़ल की बॉन्डिंग होती है एक ज़रूरत पर. समय को ज़रूरत है सिनेमा देखने की. उसके लिए वो कुछ भी करेगा. स्कूल बंक कर देगा. रूढ़िवादी पिता की छड़ी से मार भी खाएगा. फिर आता है फज़ल. उसकी ज़रूरत बड़ी सीधी है. समय भूखा है सिनेमा का और फज़ल भूखा है अच्छे खाने का. समय अपने घर से खाना लाता है. फज़ल उसे खाता है और बदले में उसे फिल्में देखने देता है. एक तरफ समय आंखें फाड़-फाड़कर फिल्में देख रहा है. दूसरी ओर फज़ल उसका लाया खाना खा रहा है. उंगलियां चाट-चाटकर. खाना इस फिल्म में अपने आप में एक किरदार है. हम समय की दुनिया में जी रहे हैं. ये खाना ही उसके सिनेमा तक पहुंचने की सबसे अहम सीढ़ी बनता है. खाना समय और फज़ल के बीच का ब्रिज था. समय और सिनेमा के बीच का ब्रिज था.
वो खूबसूरत चीज़ जो समय को सिनेमा तक लेकर गई. फिल्म में खाने को फिल्माया भी उतनी ही सुंदरता से गया है. भिंडी में मसाला भरने से लेकर उसे कढ़ाई में तलने तक के शॉट्स, सब कुछ सुंदर लगता है. बतौर सिनेमैटोग्राफर स्वप्निल सोनावने ने यहां कमाल काम किया है. फिल्म में रंगों का ऐसा इस्तेमाल हुआ है कि आंखें अटककर देखती रह जाती हैं बस. उन्हीं रंगों से भरे फ्रेम्स. जो समय की दुनिया को वाकई जादुई बना देते हैं. फिल्म की सिनेमैटोग्राफी के साथ-साथ यहां एडिटिंग का भी ज़िक्र किया जाना ज़रूरी है. दो सीन्स के बीच के ट्रान्ज़िशन ऐसे हैं, जो नेरेटिव और किरदार की मनोदशा में कुछ जोड़ते ही हैं. जैसे एक सीन है जहां समय ट्रेन में बैठा है. अपने हाथों से रोशनी को पकड़ने की कोशिश कर रहा है. इसका तुरंत अगला शॉट है एक लॉन्ग टेक. जहां हम दूर से पटरी पर दौड़ती उस ट्रेन को देखते हैं.
समय और रोशनी के इतना पास ले जाकर हमें तुरंत उससे दूर कर दिया गया. जैसे ये दर्शाने की कोशिश की हो कि भले ही समय रोशनी के पास पहुंचने में लगा है. लेकिन उसकी मंज़िल अभी भी दूर है. ‘छेल्लो शो’ इसके डायरेक्टर पान नलीन के जीवन की कई घटनाओं पर आधारित है. उन्होंने अपने एक इंटरव्यू में समय बने भाविन रबारी को लेकर एक बात कही थी. कि इस लड़के ने मेरी फिल्म को बचा लिया. फिल्म देखते वक्त ये बात बहुत हद तक सही लगती है. कई सारी घटनाएं जुड़कर इस फिल्म को बनाती है. हर घटना का सेंटर था समय. उसके किए का ही असर बाकी किरदारों पर पड़ रहा था.
समय के रोल में भाविन एक्टिंग नहीं करते. न ही एक्टिंग करने की कोशिश करते हैं. ऐसा लगता है कि वो बस उस किरदार को जी रहे हों. पिछले दिनों हमारे स्टूडियो में नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी आए थे. उन्होंने अपने थिएटर के दिनों का एक वाकया साझा किया. जब एक्टिंग कोच ने अपने स्टूडेंट्स को टेबल पर रखी सुई लाने को कहा. काफी स्टूडेंट टेबल के इर्द-गिर्द सुई को ढूंढने का नाटक करते रहे. फिर सुई तक पहुंचे. ये गलत तरीका था. सही तरीका था कि जब आपको पता है कि सुई टेबल पर रखी है, तो जाइए और उठा कर ले आइए. इतना नाटक करने की क्या ज़रूरत. ठीक उसी तरह भाविन सुई ढूंढने का नाटक नहीं करते, वो बस उठाकर ले आते हैं.
फज़ल का रोल किया है भावेश श्रीमली ने. समय की तरह फज़ल को भी सिनेमा से प्यार है. अमिताभ बच्चन के डायलॉग की नकल करता है. मुझे फज़ल में वो समय दिखा जिसने बस दूसरा रास्ता चुन लिया. समय की तरह उसे भी सिनेमा से प्यार था. बस वो अपने इस प्यार को पूरी तरह सार्थक नहीं कर पाया. जिस दोस्त की ज़रूरत समय को थी, भावेश वैसे ही दोस्त बनते हैं. दिपेन रावल ने समय के पिता का किरदार निभाया. पहली नज़र में वो एकदम रूढ़िवादी लगते हैं. लेकिन फिर ऐसा करने के पीछे की वजह समझ आती है. फिल्म में एक सीन है, जहां समय के पिता को आभास को जाता है कि उनका बेटा सिनेमा के लिए कुछ भी कर सकता है. उस सीन में किरदारों के बीच कोई डायलॉग नहीं. वैसे तो वो सीन ही अपने आप में बहुत मज़बूत है, लेकिन उसका केंद्र दिपेन बन जाते हैं.
एक पिता, जो आखिरकार समझ जाता है कि उसके बेटा कभी उस जैसा नहीं बनेगा. ये एहसास डराने वाला भी है और उन्मुक्त करने वाला भी. दिपेन अपने चेहरे पर इन दोनों भावों को जगह दे पाते हैं. ऋचा मीना फिल्म में समय की मां बनी हैं. उनके फिल्म में बहुत गिने-चुने डायलॉग हैं. लेकिन उनकी प्रेज़ेंस आपका ध्यान उनके किरदार पर बनाकर रखती है. नौ साल के बच्चे समय की इस दुनिया में मासूमियत है, शरारत है और काफी सारा ह्यूमर है.
फिल्म में कुछ जगह दिमाग में सवाल उठते हैं. जब समय अपना थिएटर बनाने की कोशिश करता है. उसके दोस्त उसकी मदद करने में जुटे हैं. सवाल ये कि इन बच्चों के घरवालों को कैसे नहीं पता कि ये कहां हैं. और दूसरा कि जुगाड़ के दम पर ये बच्चे हर मुश्किल को तुरंत सुलझा लेते हैं. लेकिन शायद जुनून भी इसी चिड़िया का नाम है. जो आपकी छुपी क्षमता को इस कदर बाहर ले आए. कि आप और आसपास वाले दंग रह जाएं. अगर आपने सिनेमा के माध्यम से किसी भी तरह का वास्ता रखा है, तो आपको ये फिल्म पसंद आएगी. कुछ सीन उत्सुकता जगाएंगे. कुछ सीन दिल पर भारी पड़ेंगे. लेकिन कुल मिलाकर दिल के अंदर बहुत कुछ महसूस होगा.
अंत के पैराग्राफ में एक व्यक्तिगत सुझाव. हम भारतीयों को कोई फिल्म पसंद आई. फिर पता चलता है कि ये ऑस्कर के लिए जा रही है. तुरंत हम उसमें खामियां खोजने लगते हैं. कि यार अच्छी है लेकिन इतनी भी अच्छी नहीं. ‘छेल्लो शो’ को आप इस धारणा से मत देखिएगा. ये आपको वो सब भाव महसूस करवाएगी, जो आप पहले भी महसूस कर चुके हैं. लेकिन जिस ढंग और नियत से ऐसा करती है, वो मायने रखता है.
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