'ब्रह्मास्त्र' को देखने और न देखने की 3-3 वजहें
आपको बताते हैं कि रणबीर कपूर की फ़िल्म को क्यों देखना चाहिए और क्यों नहीं देखना चाहिए.
अयान मुखर्जी Brahmastra पर 10 साल से मेहनत कर रहे थे. अब उनकी मेहनत का पहला भाग शिवा सिनेमघरों में रिलीज़ हो चुका है. इसमें रणबीर हैं, आलिया हैं और अमिताभ बच्चन हैं. फ़िल्म किसी को बहुत अच्छी लग रही है. किसी को बहुत बुरी लग रही है. सबके अलग-अलग रिएक्शन हैं. कुछ लोग बिना देखे ही फ़िल्म का बॉयकॉट कर रहे हैं. हमने ली है देख. आपको बताते हैं कि फ़िल्म को देखने की और न देखने की तीन-तीन वज़हें.
फ़िल्म देखने की तीन वज़हें
1. जाबड़ VFX
हमने इससे पहले मार्वल की फिल्में देखी हैं. उनके तगड़े VFX हमें भौचक्का कर देते हैं. हमेशा से हमें शिकायत रही कि भारतीय फिल्में कुछ ऐसा क्यों नहीं करती. 'ब्रह्मास्त्र' इन शिकायतों को दूर करती है. बहुत तसल्ली से इसके विजुअल इफेक्ट्स पर काम किया गया है. कोई भी ऐक्शन सीक्वेंस हो, सबमें वर्ल्ड क्लास VFX. साथ ही कुछ-कुछ जगहों पर एनिमेशन भी बढ़िया है. फ़िल्म शुरू होते ही एनिमेशन और अमिताभ बच्चन का वॉयस ओवर जो समां बांधता है, वो क़ाबिल-ए-तारीफ़ है. इसके एनिमेशन के साथ अच्छी बात ये है, आपको रियल विज़ुअल्स की कमी महसूस नहीं होती. क्रेडिट्स तक पर बारीक़ी से काम किया गया है. पूरी फ़िल्म का सबसे मजबूत पक्ष इसका VFX ही है.
2. अयान का रचा संसार 'अस्त्रवर्स'
एक है ईश्वर का रचा यूनिवर्स. दूसरा है अयान मुखर्जी का रचा 'अस्त्रवर्स' (Astraverse). 'ब्रह्मास्त्र' उसी 'अस्त्रवर्स' की फ़िल्म है. आपको इसमें क़रीब 6 से 7 अस्त्र देखने को मिलेंगे: नन्दीअस्त्र, जलास्त्र, पवनास्त्र, प्रभासात्र, वानरास्त्र और अग्नि अस्त्र. हर अस्त्र का अलग आकार. हर अस्त्र का अलग रंग. हर अस्त्र की अलग शक्ति. ये शक्ति के प्रतीक प्रकृति से उठाए गए हैं. अस्त्रों के रंगों का ख़ास ख़याल रखा गया है. उनकी डिटेलिंग कमाल है. इसे एक उदाहरण से समझते हैं. फ़िल्म में अग्नि अस्त्र के दो रूप है. एक जो रक्षकों के पास है. दूसरा जो बुरी शक्तियों के पास है. मेकर्स चाहते तो इन दोनों अस्त्रों का रंग एक समान रख सकते थे. पर यहीं पर कारीगरी है. रक्षक वाले अग्नि अस्त्र का रंग पीला है. बुरी शक्तियों वाले का हल्का लाल है. जो ये भी दिखाता है कि अस्त्रवर्स को रचते समय पॉज़िटिविटी और नेगेटिविटी का भी ध्यान रखा गया है. अयान यहां अपने वादे पर खरे उतरते हैं.
3. शाहरुख खान का कैमियोरिलीज़ से पहले ही सामने आ गया था कि शाहरुख ने फ़िल्म में कैमियो किया है. फ़िल्म में उनका नाम है मोहन भार्गव. वो साइंटिस्ट हैं. अयान ने रेफ्रेंस 'स्वदेस' फ़िल्म से उठाया है. वहां भी शाहरुख का नाम मोहन भार्गव है और वो साइंटिस्ट भी हैं. मोहन के पास वानरास्त्र है. शाहरुख की प्रेजेंस स्क्रीन पर अच्छी लगती है. लंबे समय के बाद उनको ऐक्शन करते देखना सुखद है. उनका बहुत छोटा सा रोल भी स्टोरी पर बड़ा इम्पैक्ट डालता है. शाहरुख का किरदार शुरू में ही आता है और माहौल सेट करने का काम करता है. जनता को बांधने के लिए मेकर्स ने बढ़िया तकनीक लगाई है. नागार्जुन ने भी कैमियो किया है. उनका किरदार भी कहानी से ठीक ढंग से जुड़ा हुआ है. लंबे समय के बाद उनको किसी हिंदी फिल्म में देखने का मज़ा अलग है.
फ़िल्म न देखने की तीन वज़हें1. ऑफट्रैक कहानी और कमजोर डायलॉग्सफ़िल्म की स्क्रिप्ट ख़ुद अयान मुखर्जी ने लिखी है. उनसे बेहतर की उम्मीद की जाती है. पर वो इस मामले में निराश करते हैं. कहानी कंफ्यूजिंग है. स्क्रीनप्ले ढीला-ढाला है. आलिया का किरदार क्यों आया? कहां से आया? हमें नहीं पता. उनका किरदार अधपका है. उस पर और काम किया जाना चाहिए था. ऐसे ही मौनी रॉय के किरदार को और एक्सप्लोर करने की ज़रूरत थी. हुसैन दलाल के डायलॉग फ़िल्म की सबसे कमजोर कड़ी हैं. उन्होंने बहुत बोरिंग और थकाऊ संवाद लिखे हैं. भाषा सरल रखनी चाहिए थी. कुछ संवाद अतार्किक भी हैं.
2. आलिया भट्ट की ऐक्टिंगआलिया भट्ट को बॉलीवुड में इस दौर की सबसे अच्छी अभिनेत्री माना जाता है. पर इसमें उनकी एक्टिंग काम चलाऊ है. इसमें उनकी नहीं, संभवतः डायरेक्टर की ग़लती है. अयान, आलिया से उनका बेस्ट निकलवाने में नाक़ामयाब रहे हैं. वो कई जगह ओवर ऐक्टिंग करती नज़र आती हैं. कई जगह उनके एक्सप्रेशन फ्लैट हो जाते हैं. वो क्लूलेस नज़र आती हैं. उनसे बेहतर की उम्मीद थी. पर अयान की स्क्रिप्ट की तरह वो भी निराश ही करती हैं.
3. फर्स्ट हाफ और क्लाइमैक्सफ़िल्म का फर्स्ट हाफ बहुत लंबा है. या यूं कहें कि लंबा लगता है. उसे छोटा और क्रिस्प किया जा सकता था. इससे फ़िल्म और ज़्यादा ग्रिपिंग हो जाती. कई सारे बेमतलब के सीक्वेंस हटाए जा सकते थे. आलिया-रणबीर की लव स्टोरी को इतना लंबा नहीं खींचना चाहिए था. 'ब्रह्मास्त्र' का पहला हाफ दूसरे हाफ से बिल्कुल अलग है. इतना अलग कि दोनों हिस्से अलग फ़िल्म ही नज़र आते हैं. फ़िल्म अंत में आकर तगड़ा माहौल बनाती है. पर क्लाइमैक्स उस माहौल को जस्टिफाई नहीं कर पाता. इसे थोड़ा और ग्रैंड और रॉयल होना चाहिए था.
रिव्यू: ब्रह्मास्त्र