The Lallantop
Advertisement

कहानी सुरों के उस सूरमा की, जो सेंसर बोर्ड के कारण फ़िल्मी कम्पोज़र नहीं बन सका

भूपिंदर इस थकाऊ दौर में सुकून का नाम हैं. वो यूकेलिप्टस के दौर में पीपल हैं. उनकी आवाज़ की अलग पहचान है. हर गाने में उन्होंने कुछ अलग जादू किया. वो नहीं हैं, पर उनका जादू बरकरार रहेगा.

Advertisement
bhupinder-singh
मेरी आवाज़ ही पहचान है
pic
अनुभव बाजपेयी
19 जुलाई 2022 (Updated: 19 जुलाई 2022, 15:12 IST)
font-size
Small
Medium
Large
font-size
Small
Medium
Large
whatsapp share

नेटफ्लिक्स पर एक शो है 'लिटल थिंग्स'. उसमें काव्या का किरदार ध्रुव से कहता है:

'जीवन में बहुत बार ऐसा समय आएगा, जब आप कन्फ्यूज्ड और लॉस्ट होंगे. ऐसे में आप पीछे मुड़कर देखिए. घर लौटिए और पुराने दोस्तों से बातें करिए. आप पाएंगे, जब चारों तरफ़ सब कुछ बदल रहा है, तब भी कुछ चीज़ें हैं जो कांस्टेंट हैं. और ये ज़रूरी भी है क्योंकि यही कॉन्स्टेंट, यही कंम्फर्टिंग हैं.

भूपिंदर सिंह भी हमारे जीवन के कॉन्स्टेंट हैं. जब दुनिया तेज़ भाग रही है, सभी को कहीं न कहीं पहुंचने की जल्दी है, हम भूपिंदर की ओर लौटते हैं. उनकी भारी, साफ़, शांत और ठहरी हुई खनकती आवाज़ मन में मिश्री घोल देती है.  

करोगे याद तो हर बात याद आएगी 
गुज़रते वक़्त की हर मौज ठहर जाएगी

आजकल की तपती भयंकर दोपहरी में जब सब घर में बंद हैं. भूपी की आवाज़ और उनके गाए गीत, बरगद के नीचे सुस्ता रहे बुजुर्गों की याद दिलाते हैं. उन्हें किसी बात की चिंता नहीं, कोई फिक्र नहीं, वो अपने में मगन प्रकृति की आगोश में सुस्ता रहे हैं. ऐसा ही सुकून भूपी की आवाज़ में है. भारी बेस के साथ अवचेतन मन में सेंध लगाती भीड़ से अलग आवाज़. जो पहले सुर के साथ आपको खींच लेती है. खला से उठकर हमारे जेहन में गूंजते भूपी संगीत संसार का महोत्सव है.

कहीं तो गर्द उड़े या कहीं ग़ुबार दिखे 
कहीं से आता हुआ कोई शहसवार दिखे

गुलज़ार ने इसे लिखा और भूपिंदर सिंह ने गाया. अब समझ आता है, इस गाने में भूपी ही शहसवार हैं. वीराने मन में जब कोई उम्मीद नज़र नहीं आती, भूपी की गज़लें और तमाम गीत दूर अनंत से पास आते प्रतीत होते हैं. अफसोस अब भूपी हमारे बीच नहीं हैं. उनका 18 जुलाई 2022 को निधन हो गया. वे 82 साल के थे. अंधेरी के क्रिटिकेयर अस्पताल में उन्होंने अंतिम सांस ली. भूपी चले गए, पर उनकी आवाज़ सूखे मन में फव्वारा बनकर फूटती रहेगी.

भूपिंदर की ज़िंदगी के महावीर फोगाट थे उनके पिता

अमृतसर में जन्मा और दिल्ली में पला-बढ़ा भूपी, जिसे संगीत विरासत में मिला. पिता नत्था सिंह खालसा कॉलेज में म्यूज़िक पढ़ाते थे. घर में संगीत सीखने पर बहुत ज़ोर था. जब दूसरे बच्चे खेलते, पिता उनसे रियाज़ करने को कहते. बच्चे को इतनी समझ कहां? उसे खेलना होता. नत्था सिंह उसके जीवन के महावीर फोगाट थे और वो लड़का फोगाट सिस्टर्स. पिता की खेल के समय संगीत सीखने की जिद ने, एक समय उसमें म्यूज़िक के प्रति नफ़रत पैदा कर दी. फिर धीरे-धीरे उम्र बढ़ी, उम्र के साथ समझ बढ़ी. एहसास हुआ, पिता ठीक कहते हैं. फिर तो संगीत में जो लौ लगी, उसने आग लगा दी.

जवानी में भूपिंदर सिंह
भूपी बन गया भूपिंदर सिंह 

चूंकि पिता म्यूजिकल इन्स्ट्रूमेंट्स सिखाते थे. इस कारण घर में वाद्ययंत्रों की एक बड़ी लाइब्रेरी थी. वहां सितार था, मेंडालिन थी, सारंगी थी, दिलरुबा था. भूपी को बचपन से ही कुदरती तौर पर इन्स्ट्रूमेंट्स का शौक था. वो कोई भी इन्स्ट्रूमेंट उठाते, उसकी स्टडी करते और बजाना शुरू कर देते. वाद्ययंत्रों और खासकर तार वाले वाद्ययंत्रों के प्रति उनका लगाव बढ़ता गया. इसी लगाव ने उन्हें ऑल इंडिया रेडियो पहुंचा दिया. वहां संगीतकार सतीश भाटिया की सोहबत में गिटारिस्ट के तौर पर काम करने लगे. सतीश को उनकी आवाज़ में अलग तरह का टोनल बेस दिखा. उन्होंने भूपी को गिटारिस्ट से सिंगर बना दिया. एक दफ़ा मदन मोहन दिल्ली आए. सतीश ने भूपिंदर को उनसे मिलवाया. भूपी ने उन्हें रफ़ी का गाया और बहादुर शाह जफ़र का लिखा, 'लगता नहीं है दिल मेरा उजड़े दयार में' सुनाया. मदन मोहन उन्हें बॉम्बे बुलाने पर मजबूर हो गए. 'हकीक़त' फ़िल्म में पहला ही गाना मोहम्मद रफ़ी, तलत महमूद और मन्ना डे के साथ गाया, 'होके मजबूर मुझे उसने बुलाया होगा.' 

भूपिंदर सिंह: द गिटारिस्ट 

भूपिंदर सिंह गाने तो गा ही रहे थे. इसी दौरान फ़िल्म इंडस्ट्री में हवा की तरह बात फैल गई कि दिल्ली से एक लड़का आया है, जो गिटार बहुत अच्छा बजाता है. पर ये सब होने से पहले उन्होंने फ़िल्म इंडस्ट्री में फिट होने के लिए गिटार की एक खास किस्म सीखी. दिल्ली में हवाइन गिटार पॉपुलर था, भूपी को वही आता था. पर बॉम्बे में स्पेनिश गिटार की ज़्यादा मांग थी. भूपी ने वो भी सीखा. प्रैक्टिस की और मास्टर हो गए. आरडी बर्मन ने इस बात को कैश किया और उनको अपने साथ जोड़ लिया. उन्होंने कई सारे गानों में सोलो गिटार बजाया और कम्पोज भी किया. पंचम दा के ही एक गाने 'दम मारो दम' में पहला सोलो गिटार बजाया. उसे खूब पसंद किया गया. भूपिंदर के गिटार का ऐसा जलवा था कि बड़े-बड़े अमेरिकन रैप बैंड्स ने उनके इस गिटार सीक्वेंस को लेकर रैप बनाया. दम मारो दम गाने के बाद तो झड़ी लग गई. भूपी को खासतौर पर गिटार के पीस बजाने और कम्पोज़ करने के लिए बुलाया जाता. 'तुम जो मिल गए हो', 'चुरा लिया है तुमने जो दिल को', 'चिंगारी कोई भड़के' ऐसे तमाम गानों में उनके सोलो गिटार पीस को खूब सराहा गया.

गिटार बजाते भूपिंदर
ऐक्टिंग करने से घबराकर दिल्ली भाग गए 

डायरेक्टर चेतन आनंद की फ़िल्म 'हक़ीक़त' में भूपिंदर को अपना पहला गाना गाने का मौक़ा मिला. चेतन चाहते थे कि भूपी अदाकारी में भी खुद को आजमाएं. वो उन्हें एक सिंगिंग हीरो के तौर पर देखना चाहते थे. पर भूपी ऐक्टिंग से दूर भागते थे. दरअसल चेतन आनंद ने अपनी फ़िल्म 'आखिरी खत' भूपिंदर को ध्यान में रखकर ही लिखी थी. पर भूपी फ़िल्म करने से मना कर रहे थे. उन्होंने कहा, 'मेरा मन नहीं है. मैं ऐक्टर नहीं हूं. मैं ऐक्टिंग नहीं कर सकता हूं. मेरे से नहीं होता है ये काम.' भूपी के नखरों के कारण पिक्चर दो-तीन महीने डिले भी हो गई. चेतन आनंद उनको फिल्म में लेने पर अड़े हुए थे और भूपिंदर फ़िल्म न करने पर. जितनी बार चेतन उनसे फ़िल्म करने को कहते वो दिल्ली भाग जाते. अंत में भूपी ने फिल्म में ऐक्टिंग तो नहीं की, पर चेतन के कहने पर एक गाना गाया, 'रूत जवां-जवां रात मेहरबां'. चेतन भी चेतन थे, भूपी को कैमरे के सामने लाकर ही माने. बोले, गिटार उठा लाओ शूट करना है. वो मना नहीं कर सके. इस गाने में आपको भूपिंदर गिटार बजाते हुए दिख जाएंगे. पर इस वाकये से वो इतना आतंकित हो गए कि तीन साल तक दिल्ली से वापस ही नहीं लौटे. 

‘बीती न बिताई रैना’ की रिकॉर्डिंग के दौरान गुलज़ार, भूपिंदर, लता और पंचम(बाएं से दाएं) 
पंचम दा के साथ खूब काम किया

चूंकि भूपिंदर सिंह की आवाज़ उस दौर में प्लेबैक सिंगिंग के लिए सूटेबल नहीं मानी जाती थी. इसलिए उनकी आवाज़ को हीरो की आवाज़ के तौर पर स्वीकार करने में समय लगा. वो खुद कहते थे कि मुझे मेरी अच्छी नहीं, बल्कि अलग आवाज़ के कारण गाने मिले. मिड सेवंटीज़ में एंग्री यंग मैन का दौर आया. गांव का युवा शहर में अपनी जगह बनाने का संघर्ष करने लगा. भूपिंदर सिंह उसके दर्द की आवाज़ बने. एक शहर से दूसरे शहर में माइग्रेट करने वालों के दर्द भी वो समझते थे. इसी दर्द को गाने की शक्ल में गाया 'एक अकेला इस शहर में' या 'फिर ज़िंदगी-ज़िंदगी, मेरे घर आना'. उन्होंने खय्याम, जयदेव और बप्पी लहरी जैसे अलग-अलग शैली के तमाम संगीतकारों के साथ काम किया. बप्पी दा के साथ गाई उनकी ग़ज़ल 'किसी नज़र को तेरा इंतज़ार आज भी है' खूब पसंद की गई. पंचम के साथ उन्होंने खूब काम किया. उनके बारे में भूपिंदर कहते थे, 

मैंने पंचम के साथ इतना काम किया कि दूसरे संगीतकारों के साथ काम करने का मौक़ा ही नहीं मिला. मैं तो कहता हूं फिल्म इंडस्ट्री में मेरा जन्म मदन मोहन साहब के कारण हुआ, पर पाला-पोसा पंचम ने.

जब सेंसर बोर्ड ने फीचर फ़िल्म को काट-काटकर ट्रेलर बना दिया 

चूंकि भूपिंदर वॉयस टेक्सचर के कारण उन्हें काम कम मिलता था, इसी ब्रेक के दौरान वो गज़ल कम्पोज़ करने के लिए समय निकाल लेते थे. उन्होंने खुद की लिखी गज़लों में नया प्रयोग किया. ड्रम और स्पेनिश गिटार की धुन पर उन्हें पेश किया. वो कहते थे कि 'ग़ज़ल कम्पोज़ करने का मुझे बचपन से ही शौक था, मैं बचपन से ही कम्पोज़र हूं. छह-सात साल की उम्र में ही मैं ग़ज़ल गाने लगा था और बनाने भी लगा था.' 25 की उम्र में ही एचएमवी ने उनकी गज़लों का ईपी निकाला था. उस दौर में वो पहले सिंगर थे, जिसका भारत में एचएमवी जैसी बड़ी कंपनी ने कोई सोलो रिकॉर्ड निकाला हो. भूपी ही 1974 में पहले ग़ज़ल कम्पोज़र थे, एचएमवी जिसका एलपी लेकर आया हो. एलपी यानि लॉंग प्ले, जिस रिकॉर्ड में करीब 20 से ज़्यादा गाने हों. फिल्मों में संगीत देना उन्हें बहुत पसंद नहीं था.

उनको लगता था कि ग़ज़ल में छूट रहती है, पर फिल्म संगीत बंधा हुआ होता है और भूपी को बंधना पसंद नहीं था. उन्होंने फिल्मी कल्चर को इतने करीब से देखा कि उससे मोह भंग हो गया. उनका मानना था कि संगीतकार को बहुत फील्डिंग लगानी पड़ती है. लोगों की चार बातें सुननी पड़ती हैं. जो उनके बस का नहीं था. हालांकि महेश भट्ट और कबीर बेदी की पहली पिक्चर 'मजिलें और भी हैं' में उन्होंने संगीत भी दिया. पर वो फिल्म सेंसर बोर्ड में तीन साल अटकी रही. सेंसर बोर्ड ने फिल्म को अटकाकर रखा. उसके लगभग सभी प्रमुख सीन्स उड़ा दिए. उस कड़वे अनुभव के बाद भूपी कभी फ़िल्म कम्पोजिशन में दोबारा नहीं लौटे. वो कहते हैं: ‘सेंसर वालों ने पिक्चर को काट-काटकर फिल्म का ट्रेलर बना दिया. मैंने जब ये सिस्टम देखा, तो मुझे इससे घृणा हो गई. फिर मैंने कभी फ़िल्म में म्यूज़िक देने की कोशिश भी नहीं की.’ 1980 के बाद उन्होंने अपनी पत्नी के साथ प्राइवेट ग़ज़ल एल्बम और स्टेज शो पर ज़्यादा फोकस किया.

भूपिंदर इस थकाऊ दौर में सुकून का नाम हैं. वो यूकेलिप्टस के दौर में पीपल हैं. उनकी आवाज़ की अलग पहचान है. हर गाने में उन्होंने कुछ अलग जादू किया. वो नहीं हैं, पर उनका जादू बरकरार रहेगा. उनकी इसी जादूगरी मिसाल उनके कुछ गाने याद कर लेते हैं. 

1.  गुलज़ार का लिखा और आरडी बर्मन के संगीत से सज़ा ‘नाम गुम जाएगा’. इसके लिए लता मंगेशकर को याद किया जाता है. लता जी की शैडो में भूपिंदर की गायकी छिप गई. पर इस गाने में भूपिंदर की अलहदा आवाज़ और गले की तैयारी कमाल है. 

2. आशा भोसले के साथ गाया 'किसी नज़र को तेरा इंतज़ार आज भी है', जिसको सुनते ही आप ठहर जाते हैं. भूपी की आवाज़ में एक आकर्षण था. वो सबको खींच लेती है.

3. खय्याम की कम्पोज़ की गई ग़ज़ल 'कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता' में उनकी आवाज़ के दर्द को महसूस करिए. मोहम्मद रफ़ी को टक्कर देता एहसास. 

4. एक बार फिर खय्याम और भूपिंदर सिंह की जोड़ी ने कमाल किया है. कहीं खला से उठकर आती आवाज़ सीधे दिल को चीर जाती है, ‘करोगे याद तो हर एक बात याद आएगी’

5. जयदेव की कमाल कम्पोजिशन और भूपिंदर के निजी दुख से सजा हुआ गाना ‘एक अकेला इस शहर में, रात में और दोपहर में’.

6. भूपिंदर ने गुलज़ार के साथ जो काम किया है. उसको जोड़े बिना वो अधूरे हैं. सुनिए ‘दिल ढूंढ़ता है’.


 ये तो सिर्फ़ छह गाने हैं. उम्मीद है आपकी प्लेलिस्ट में और भी होंगे. ये गाने, भूपी दा की आवाज़ आपकी और हमारी ज़िंदगी में हमेशा ज़िंदा रहेंगे. 

Comments
thumbnail

Advertisement

Advertisement