बाइसिकल डेज: मूवी रिव्यू
बालमन की चुहल, जिज्ञासा और मासूमियत इस फिल्म का अभिन्न अंग हैं.
2014 में नागेश कुकुनूर की चाइल्ड ट्रैफ़िकिंग पर एक फिल्म आई थी 'लक्ष्मी'. इसमें एक असिस्टेंट डायरेक्टर थीं देवयानी अनंत. उन्होंने बड़ों के लिए बच्चों की एक फिल्म बनाई है 'बाइसिकल डेज़'. ये छठी कक्षा में कदम रखने वाले आशीष की कहानी है. उसके सभी दोस्त शहर पढ़ने जाने लगे हैं. उसे भी जाना है. पर घर वाले भेज नहीं रहे. उसे साइकिल चाहिए, पर घर वाले दिला नहीं रहे. आशीष की बहुत-सी शिकायते हैं. बहुत-सी मासूम चाहतें हैं. उन्हीं के इर्दगिर्द बुनी है फिल्म 'बाइसिकल डेज'.
मैंने मानव कौल की बनाई एक पिक्चर देखी थी 'हंसा'. पूरी तरह से बच्चों की कहानी. बहुत प्यारी फिल्म थी. 'बाइसिकल डेज' देखकर वही याद आई. ये भी पूरी तरह से चाइल्ड डॉमिनेटेड फिल्म है. आजकल ऐसी फिल्में कम बनती हैं, जिनमें सिर्फ बच्चों की बात हो. उनसे जुड़ी कोई बड़ी सामाजिक समस्या न उठाई गई हो. बस उनके मन को एक्सप्लोर किया गया हो. 'बाइसिकल डेज' आशीष के मन को टटोलती है. बच्चे क्या सोच सकते हैं? क्यों सोच सकते हैं? उनसे बात करना कितना ज़रूरी होता है? बात न करना किस हद तक उनके बाल हृदय को अंदर ही अंदर छील सकता है? ये सब इस फिल्म का हिस्सा है. बालमन की चुहल, जिज्ञासा और मासूमियत इस फिल्म का अभिन्न अंग हैं.
देवयानी अनंत ने अपनी लिखाई और डायरेक्शन दोनों से इसको सजाया है. लंबे-लंबे शॉट्स हैं, जो कहानी में सुकून भरते हैं. फिल्म को गति देने की कोशिश नहीं की गई है, जो मुझे अच्छी बात लगी. इसकी लिखाई के साथ एक खास बात है, कोटेबल डायलॉग्स न के बराबर हैं. मुझे निजी तौर पर ऐसी फिल्में और कहानियां अच्छी लगती हैं, जो सूक्ति साहित्य के दूसरे किनारे पर खड़ी हों. इस फिल्म के साथ ठीक ऐसा ही है. सिर्फ सिचुएशनजनित डायलॉग्स हैं. उपदेश देने की कोशिश नहीं की गई है. बस जो हो रहा है, वही दिखाया गया है. उसी को संवाद में पिरोया गया है.
दादा और पोते का रिश्ता बहुत महीन चुनावट की उपज है. कोई लल्लो-चप्पो नहीं. दादा पोते की अपने बेटे यानी उसके पिता से वकालत करते हैं. उसकी साइकिल से लेकर, उसके शहर में एडमीशन तक के लिए पिता को मनाने की कोशिश करते हैं. उनके पोते के बाल तक सहलाने में प्रेम जैसे चू रहा हो. ऐसा ही कुछ रिश्ता आशीष और उसके साइंस टीचर का दिखाया गया है. आशीष और उसके साथियों की दोस्ती को बहुत हल्के हाथों से छुआ गया है. माने उसमें कठोरता नहीं है. ट्रीटमेंट में चालाकी नहीं दिखती. ये सतही नहीं है. सिर्फ बाहरी तौर से चीजें नहीं रखी गई हैं. दोस्ती की अंदर की परत में घुसने की कोशिश हुई है. मासूम दोस्ती, जो एक साइकिल के लिए तमाम साइकिलें कुर्बान करने को तैयार है. भाई-बहन, मां-बेटे और मां-बाप के रिश्ते को भी देवयानी अनंत ने फिल्म में जगह दी है. खास बात है, इन सारे संबंधों को आशीष के पॉइंट ऑफ व्यू से दिखाया गया है. एक बच्चा अपने मां, दादा, बहन, दोस्त, पिता के बारे में कैसे सोचता है, ये उसने पूरी फिल्म में कहीं बोला नहीं है. पर आप समझ जाते हैं. यही अच्छे डायरेक्टर की निशानी होती है. एक अच्छा डायरेक्टर माने अच्छा स्टोरीटेलर. एक अच्छा स्टोरीटेलर वही है, जिसकी कहानी में आप बिटवीन दी लाइंस पढ़ सकें. देवयानी अनंत ऐसी ही कम्यूनिकेटर साबित हुई हैं.
फिल्म में आशीष बने दर्शित खानवे की ऐक्टिंग नैचुरल है. ऐसे रोल में बच्चों के साथ दिक्कत होती है लाउड होने की. देवयानी ने अच्छे टीचर की तरह आशीष को इस जोन में जाने से बचाया है. ऐसा ही साइंस टीचर बने सोहम शाह के रोल के साथ भी है. उन्होंने भी सधा हुआ अभिनय किया है. पर कई मौकों पर वो थोड़ा-सा असहज दिखे हैं. सबसे अच्छी ऐक्टिंग की है दादा जी बने उमेश शुक्ला ने. बहुत कमाल ऐक्टिंग. उमेश में एकदम आपको दादा जी ही नज़र आएंगे. आशीष के दोस्त बने सभी कलाकारों ने भी सही काम किया है. कुछ-कुछ मामलों में डायलॉग डिलीवरी थोड़ी-सी कच्ची है. रिएक्ट करने वाली नौसिखियाई और जल्दी है. जैसे कोई स्कूल प्ले हो रहा हो. हालांकि उन्हें इस मामले में छूट दी जा सकती है. क्योंकि आशीष का किरदार निभाने वाले दर्शित समेत सभी बच्चे ट्रेंड ऐक्टर्स नहीं हैं. फिल्म में जो भी आप देखेंगे, वो डेढ़ महीने की वर्कशॉप का नतीजा है.
फिल्म टोटैलिटी में अच्छी है. पर काफी स्लो है. यदि आप ठहरकर कुछ देखना पसंद करते हैं, तब ही ये फिल्म आप देख सकेंगे. नहीं तो नींद आने की भी संभावना हो सकती है. खासकर एक्शन फिल्में देखने वालों के लिए तो ये बिल्कुल नहीं है. पर चाइल्ड साइकोलॉजी समझ आएगी. मैं ये भी नहीं कहूंगा कि ज़रूरी फिल्म है. पर बच्चों के लिए देखी जानी चाहिए. ऐसी फिल्में बहुत कम बनती हैं, जो सिर्फ बच्चों की बात करें. इसलिए सिनेमाघर जाइए देख डालिए. हालांकि कई लोग 'बाइसिकल डेज' देखकर कहेंगे, इसे ओटीटी पर रिलीज करना चाहिए था.
वीडियो: मूवी रिव्यू: भोला