मशहूर किताबों और कहानियों पर बनी वो 10 फ़िल्में, जिन्होंने ओरिजिनल साहित्य के साथ इंसाफ किया
अक्सर ऐसा होता है कि साहित्य पर बनी फ़िल्में उसके कथ्य के साथ न्याय नहीं कर पाती. हम आपको ऐसी फिल्मों से मिलवाएंगे, जो किताबों जितनी ही अच्छी थीं.
बीसवीं सदी का दूसरा दशक. फर्स्ट वर्ल्ड वॉर से ठीक एक साल पहले यानी 1913. एक तरफ़ टैगोर को 'गीतांजलि' के लिए साहित्य का नोबल मिला. दूसरी तरफ़ दादा साहब फाल्के ने 'राजा हरिश्चंद्र' बनाकर, भारतीय सिनेमा की नींव रखी. हमने पहली लाइन में साहित्य और दूसरी में सिनेमा का ज़िक्र किया. दोनों ही लंबे समय के साथी हैं.
साहित्य और सिनेमा में भिन्नता ये है कि एक का बिम्ब हम मूँदी पलकों से स्वयं गढ़ते हैं और दूसरे को खुली आँखों से परदे पर बना-बनाया परोसा हुआ पाते हैं. इनमें एक जैसा क्या है? किरदार. फर्ज करें कि एक कमरा है और साहित्य-सिनेमा उसका छप्पर, तो किरदार खंबे की तरह उस छप्पर की ऊंचाई और दमदारी दोनों को कायम रखने में मदद करते हैं. आगे हम ऐसी कच्ची पक्की फिल्मों की बात करेंगे, जो साहित्य पर आधारित हैं.
1) तीसरी कसम (1966)डायरेक्टर: बासु भट्टाचार्य
कास्ट : राज कपूर, वहीदा रहमान
कहानी : मारे गए गुलफ़ाम (फणीश्वर नाथ रेणु)
आज भी जब यूनिवर्सिटी में कोई बच्चा अपने अस्तित्व को संकट से घिरा हुआ पाता है, तो काफ्का और कामू से पहले उसे यही गाना याद आता है-
दुनिया बनाने वाले,
क्या तेरे मन में समाई,
काहे को दुनिया बनाई
गीतकार शैलेन्द्र और डायरेक्टर बासु भट्टाचार्य की पहली पिक्चर, अपने किरदारों की किस्मत की तरह ही लुट-पिट गई थी. ये बात आज भी समझ नहीं आती दिल में धंस जाने वाली ये पिक्चर सिनेमाघर जाकर फंस क्यूँ गई थी. ये एक नाटक कंपनी की नायिका के प्रति गाड़ीवान हीरामन के प्रेम की विफलता की कहानी है.
आंचलिकता के प्रधान ‘रेणु’ की कहानी ‘मारे गए गुलफाम’ को शैलेन्द्र से अच्छे गीतकार, राज कपूर और वहीदा रहमान से अच्छे अदाकार नहीं मिल सकते थे. दुनियादारी की समझ देने के साथ ही ये दुनिया के सबसे अटल सत्य को मानो आपकी आत्मा में आंशिभूत कर जाती है.
2) रजनीगंधा (1973)सजन रे झूठ मत बोलो,
खुदा के पास जाना है,
ना हाथी है, न घोड़ा है,
वहाँ पैदल ही जा ना है.
डायरेक्टर : बासु चैटर्जी
कास्ट : विद्या सिन्हा, अमोल पालेकर
कहानी : यही सच है (मन्नू भण्डारी )
क्या आपने कभी परफेक्ट विंग्ड आई लाइनर देखी है? नहीं देखी, तो जाकर 'रजनीगंधा' फिल्म में विद्या सिन्हा को जरूर देख आइए. ये फिल्म आत्मनिर्भरता की ओर कदम बढ़ाती ऐसी स्त्री की कहानी है, जो अपनी समझदारी और नासमझी के बीच उलझी हुई है.
मन्नू भंडारी की कहानी, ‘यही सच है’ पर आधारित फ़िल्म ‘रजनीगंधा’ को खूब प्यार मिला. दीपा, संजय के प्रेम में है. उसे एक नौकरी के इंटरव्यू के सिलसिले में मुंबई जाना पड़ता है, जहां उसे कोई और मिलता है. दो प्रेमियों के बीच दीपा के चुनाव की कहानी है ‘रजनीगंधा’. इस पूरे प्रकरण में रजनीगंधा के फूल नए-पुराने संबंधों की खुशबू याद दिलाते हैं.
3) पिंजर (2003)डायरेक्टर : चंद्रप्रकाश द्विवेदी
कास्ट : उर्मिला मातोंडकर, मनोज बाजपेयी
किताब : पिंजर (अमृता प्रीतम)
‘पिंजर’ विभाजन के दस्तावेजों को दृश्य में बदलती ऐसी कहानी है, जिसमें फूल भी हैं और शूल भी. गुलाब भी है और कीचड़ भी. चंदन की खुशबू भी है और और प्रतिशोध की गंध भी. अमृता प्रीतम के उपन्यास ‘पिंजर' पर आधारित इस फिल्म में डॉ. चंद्रप्रकाश द्विवेदी ने किसी से दामन नहीं बचाया. उस साल इसे नेशनल अवॉर्ड भी मिला था. मनोज बाजपेयी और उर्मिला मातोंडकर अभिनीत यह फिल्म उन रेयर फिल्मों में से है, जिसे किताब के ऊपर नहीं तो कम से कम बराबर का दर्जा तो दिया ही जा सकता है.
इस फिल्म में पूरो को एक लड़की होने की वजह से खानदानी दुश्मनी का शिकार होना पड़ता है. उसके शोषण के बाद उसका खुद का परिवार उसे नहीं अपनाता. ऐसे त्रासदपूर्ण ज़िंदगी को पूरो कैसे अपने हाथों से खूबसूरत बनाती है, ये देखने लायक चीज़ है.
4) सूरज का सातवां घोड़ा (1992)डायरेक्टर : श्याम बेनेगल
कास्ट : रजित कपूर, अमरीश पुरी, नीना गुप्ता
किताब : सूरज का सातवां घोड़ा (धर्मवीर भारती)
धर्मवीर भारती के उपन्यास ‘सूरज का सातवां घोड़ा’ पर बनी ये फिल्म कथ्य के साथ पूरी तरह न्याय करती है. सिनेमा और साहित्य जगत के दो नायाब नाम साथ आए, तो परत दर परत खुलने वाली एक फिल्म सामने आई. फिल्म की शुरुआत माणिक मुल्ला नाम के शख्स से होती है. वो अपने दोस्तों को जीवन में मिली तीन ऐसी औरतों की कहानी सुनाता है, जो अलग-अलग तबके से आई होती हैं. समाज का ऊबड़-खाबड़ आर्थिक बंटवारा कैसे आपको प्यार और दया जैसे मानवीय मूल्यों से घसीट कर दूर ले जाता है, यही फिल्म की मेन थीम है. वहीं सूर्य के सातवें घोड़े की तरह आपके सपने देखने और आशावादी होने की ताकत आपको जमीन से उखड़ने नहीं देती इस फिल्म की सीख. राजेश्वरी सचदेव, पल्लवी जोशी, नीना गुप्ता, अमरीश पुरी, रघुवीर यादव, के के रैना जैसे कलाकारों ने इस फिल्म में चार चाँद ही लगाए हैं.
5) दी नेमसेक (2006)डायरेक्टर : मीरा नायर
कास्ट : तब्बू, इरफान खान, काल पेन
किताब : द न्यू यॉर्कर (झुंपा लाहिड़ी)
‘दी नेमसेक’ में डायरेक्टर मीरा नायर रंगों को उभारकर तो कभी दबाकर, दर्शकों को ऐसे भ्रमित करतीं हैं कि आप किरदारों में खुद को देखने लग जाते हैं. कलकत्ता से न्यू यॉर्क तक फैले हुए एक बंगाली परिवार की कहानी है ये. ये दो पीढ़ियों के भावनात्मक लगाव के सफेद पड़ने और फिर एक रंग होने की कहानी है. काल पेन, इरफान खान, तब्बू जैसे सितारों से भारी भरकम है ये फिल्म.
ये फिल्म झुंपा लाहिड़ी की किताब ‘न्यू यॉर्कर’ के पन्नों को सीन्स में इतनी सफाई से बदलती है कि अच्छा पाठक भी खुद को इसका दर्शक बनने से नहीं रोक पाता.
6) रुदाली (1993)डायरेक्टर : कल्पना लाज़मी
कास्ट : डिम्पल कपाड़िया, राखी, राज बब्बर
किताब: रुदाली (महाश्वेता देवी)
महाश्वेता देवी की कहानी ‘रुदाली’ पर बनी, दूरदर्शन पर प्रसारित हुई यह फिल्म संजोकर रखने लायक है. ये रेत के सूखेपन में बूंद के बरसने की उम्मीद की कहानी है. आशा भोसले का गायन, भूपेन हज़ारिका का संगीत और गुलजार के गीतों ने इस फिल्म को अलग लेवल पर ले जाकर छोड़ा है. रुदालियों के काले कपड़े और नायिका शनीचरी के जीवन पर लगी कालिख को सुरों में पिरोकर पेश किया गया है. शनीचरी की इस कहानी में सबसे बड़ा ट्विस्ट यही है कि रुदाली के निजी जीवन में ट्रेजेडी होने के बावजूद वो रो नहीं पा रही है, जबकि यही उसका पेशा है.
जमींदारी और रुदाली जैसी प्रथाओं का कच्चा चिट्ठा खोलती है ये फिल्म.
7) साहिब बीवी और ग़ुलाम (1962)डायरेक्टर : अबरार अलवी
कास्ट: मीना कुमारी, गुरु दत्त, वहीदा रहमान
किताब : साहिब बीवी और गुलाम (बिमल मित्र)
एडल्टरी को गुनाह माने जाने वाले दौर में ऐसी फिल्म का आना हिम्मत की बात थी. जहां एक पति अपनी पत्नी का मालिक नहीं है. पति के सिवा भी वो किसी को साथी बना सकती है. बिमल मित्र के लेखन को सिनेमा के परदे पर उतारते हुए ये शायद पहली बार हुआ था, जब एक नायिका ने अपनी चाहतों का इज़हार किया. कुछ ऐसे,
मैंने जाना के आ गए सावरिया मोरे
झट फूलन की सजिया पे जा बैठी
पिया ऐसो जिया में समाय गयो रे
के मैं तन मन की सुध-बुध गवा बैठी
पितृसत्ता पर तमाचा धरने वाली ये फिल्म मीना कुमारी और गुरु दत्त के करियर में ख़ास जगह रखती है. .
8) तमस (1988)डायरेक्टर: गोविंद निहलानी
कास्ट : ओम पुरी, अमरीश पुरी, मनोहर सिंह, दीपा साही
किताब : तमस (भीष्म साहनी)
फूट डालो और राज करो, ये नीति अंग्रेजी सरकार ने अपनाई ज़रूर पर हिंदुस्तानियों ने उसे गले से लगा लिया. बंटवारे का समय इतिहास में काले अक्षरों से लिखा गया है. उस कालिमा की छाँव में जिन लोगों ने एक दूसरे को मार डाला वो हिंदू और मुसलमान थे, इंसान नहीं. बक्शी जी और नत्थू जैसे किरदार जो सिर्फ इंसान बनकर रहना चाहते थे, उनके साथ गलत होने की कहानी है 'तमस'. भीष्म साहनी ने जब ये उपन्यास लिखा, तबसे लेकर आजतक सांप्रदायिकता एक बड़ा मुद्दा बना हुआ है. कुछ नहीं बदला.
अदाकारों ने इस फिल्म में अपने किरदार को निभाया नहीं है, उसे जिया है. आपको बार-बार इस बात का एहसास होगा कि गांधी के मूल्य और नेहरू की नीतियाँ छिछली नहीं थीं, दरअसल देशवासियों के इरादों की नींव गहरी नहीं थी.
9) ब्लू अम्ब्रेला (2005)डायरेक्टर: विशाल भारद्वाज
कास्ट: पंकज कपूर, श्रेया शर्मा, सम्राट मुखर्जी
किताब: ब्लू अम्ब्रेला (रस्किन बॉन्ड)
चाहिए चाहिए और सिर्फ चाहिए, इस सोच ने नंदकिशोर जैसे किरदारों को जन्म दिया होगा. नीली छतरी यानि ब्लू अम्ब्रेला इस पूरी फिल्म की जान है. बिंदिया नाम की बच्ची की मासूमियत और नंदकिशोर खत्री की चालाकी आपको अपने बचपन की याद दिलाएगी. बिंदिया के पास से नीली छतरी का खो जाना और नंदू का लाल छतरी खरीदना, इस फिल्म कहानी इतनी ही नहीं है. इसमें इस बात का भी संकेत है कि हमारे आसपास प्यार को पावर ने रिप्लेस कर दिया है.
जाने-अंजाने इस फिल्म ने हिमाचल की बोली, पहनावे और रहन-सहन को पहाड़ों से गिरती लुढ़कती नदियों सा उतारा है. लेकिन आपको ये फिल्म थोड़ी सावधानी से देखनी होगी, क्योंकि हिंदुस्तान के रिमोट एरिया की ये कहानी वेकेशन का मूड बना सकती है.
10) लुटेरा (2013)डायरेक्टर: विक्रमादित्य मोटवानी
कास्ट: सोनाक्षी सिन्हा, रणबीर कपूर
कहानी: द लास्ट लीफ (ओ हेनरी)
बदल रही है आज ज़िंदगी की चाल ज़रा ,
इसी बहाने क्यूं न मैं भी दिल का हाल ज़रा,
सवार लूं ,सवार लूं,
सवार लूं हाय सवार लूं
क्या आपने नोटिस किया है कि आप डेट पर जाने के लिए तैयार हो रहे हैं और जाने-अनजाने बाल संवारते हुए ये पंक्तियां गुनगुनाई हों. मिलने और बिछड़ने की ये कहानी आपको रुआंसा करके ही छोड़ेगी. पाखी की बेहतरीन अदाकारी, वरुण का अपना मिज़ाज आपको दिनों तक याद रहेगा.
हाँ ये तय है कि आपके धैर्य की परीक्षा होगी, आप अंत जानते-समझते हुए भी बेचैन हो उठेंगे. ऐसे समय में आपको चाहिए कि हाथों में रुमाल और खाने का सामान लिए आप अपनी कुर्सी पर जमे रहें. विश्वास करें कि फिल्म की सिनेमैटोग्राफी और गाने आपको पछताने का मौका नहीं देंगे.
ये स्टोरी लल्लनटॉप के साथ इंटर्नशिप कर रही हर्षिता ने की है.
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