The Lallantop
Advertisement

फिल्म रिव्यू : बागी, एक्शन के इन्तजार में खर्च हुए

ढाई सेकंड अौर तीन कट में भागते नायक के चेहरे पर तीनों फ्रेम में भिन्न एक्सप्रेशन हैं. देखिए, इसे कहते हैं वैरायटी.

Advertisement
Img The Lallantop
pic
मियां मिहिर
29 अप्रैल 2016 (Updated: 12 मई 2016, 12:29 IST)
font-size
Small
Medium
Large
font-size
Small
Medium
Large
whatsapp share

फिल्म : बागी

निर्देशक : सब्बीर खान

अभिनय : टाइगर श्रॉफ़, श्रद्धा कपूर, सुधीर बाबू

हम नडियाडवाला एंड ग्रैंडसंस का नया शाहकार 'बागी' देख आए हैं. वही 'बागी' जिसके चिट्टे (चिट्टे तो समझते हैं ना, 'चिट्टियां कलाइयां' वाला) नायक पिछली पीढ़ी के एक अन्य महानायक के बेटे हैं अौर जिसका शीर्षक अौर लैगेसी उसी पिछली पीढ़ी के एक अन्य महानायक की फिल्म से लिया गया है. अौर फिल्म देखने के बाद हम आपको भरोसा दिलाना चाहते हैं कि फिल्म पर 2011 की इंडोनेशियन एक्शन थ्रिलर से कॉपी के जो भी इल्जाम लगाए जा रहे हैं वे सरासर झूठ हैं.

विश्वास कीजिए, यह एक विशुद्ध भारतीय फिल्म है. जैसे फिल्म में दुर्लभ अभिनेता संजय मिश्रा द्वारा भारतीय पुरुष की पहचान के गुण बताए गए हैं, "देखो झाड़ी में मूत रहा है कि नहीं, देखो लड़कियां ताड़ रहा है कि नहीं" उसी तरह इसमें 'प्रोजेक्ट' पर बनाई जानेवाली बॉलीवुड मसाला के तमाम गुण डालने की कोशिश की गई है. 'छप्पन भोग' की थाली जो बनानी है.

कहानी की शुरुआत बैंकॉक की एक दस मजिला इमारत से होती है जहां यो यो हनी सिंह के मामा के बेटे भाई जैसे दिखनेवाले खलनायक नायिका को जबरदस्ती उठा लाये हैं. कट टू इंडिया, जहां हीरोइन के दारूबाज पिता नायक को खोजकर उसे नायिका को बचाकर लाने के पैसे देते हैं. कट टू फ्लैशबैक जहां नायक-नायिका देसी रेलगाड़ी में पहली बार मिलते हैं अौर धूप में होती कृत्रिम बरसात के बीच उनका प्रेम परवान चढ़ता है.

लेकिन रुकिए, मैं चाहता हूं कि यहां आप रुककर इस सीन की खूबसूरती को निहारें,

रेलगाड़ी स्टेशन पर रुकी पड़ी है. स्टेशन मास्टर कहता है वॉटर प्रॉब्लम है. तभी नायिका नायक को देखकर मुस्कुराती हैं, अौर आसमान से बारिश होने लगती है. अौर नायिका वहीं स्टेशन पर नाचने लगती हैं. उन्हें देखकर सहृदय को-पैसेंजर भी उनके साथ नाचने लगते हैं. फिर नायक भी साथ नाचने लगता है. आप कहेंगे, हिन्दी सिनेमा में ऐसी छूट आम है. इसे स्वप्न दृश्य कहते हैं.

ना ना, इसे स्वप्न दृश्य समझने की भूल ना करें. यह एक नितांत यथार्थवादी फिल्म का निर्णायक मौका है. इसीलिए यहां साथ नाचनेवाले पैसेंजर्स वाकई पैसेंजर ही हैं. अपने उसी किरदार वाले रंग-रूप अौर वेषभूषा में. बाद में बारिश रुकने पर वो इस अौचक मनोरंजन के लिए नायक-नायिका को थैंक यू भी कहकर जाते हैं. अौर क्योंकि यह यथार्थ है इसीलिए इसमें स्टेशन मास्टर भी है, विलेन भी है अौर उसके गुंडे भी. शुक्र है कि वे भी साथ में नाच नहीं रहे हैं. यह भी शुद्ध यथार्थवाद का तकाजा माना जा सकता है.

खैर, कहानी केरल पहुंचती है. नायक यहां केरल का पारंपरिक मार्शल आर्ट कलरिपयट्टू सीखने आया है. यहीं गुरुजी की भूमिका में फिल्म के सबसे धाकड़ अभिनेता हैं. वे अकेले हैं जो फिल्म को वजन देते हैं. फिर विलेन की एंट्री होती है जिसका दिल नायिका पर आ गया है. उसके पास पैसा है, पावर है. क्योंकि वो विलेन है, इसलिए हृदयहीन भी है. पहले उसे लोग रावण कहते हैं. फिर वो खुद को रावण कहता है. फिर जैसा सदियों से कहानियों में होता आया है, नायक नायिका बिछड़ जाते हैं. अौर फिर शुरु होता है उनके वापस मिलने का अंतहीन सफ़र. हड्डी पर हड्डियों का टूटना अौर कहानी के तमाम तर्कों की बलि. जहां कहानी ज्यादा उलझती दिखती है, वहीं एक स्लो मोशन में गाना या छत्तीस फ्रेम में कटा हुआ फाइट सीन डाल दिया जाता है.

ढाई सेकंड अौर तीन कट में भागते नायक के चेहरे पर तीनों फ्रेम में भिन्न एक्सप्रेशन हैं. देखिए, इसे कहते हैं वैरायटी.

एक्शन फिल्म होते हुए फिल्म को इस पर भरोसा नहीं है, अौर फिल्म के दोनों हिस्सों में दो कॉमेडियन सहारे के लिए पिरोए गए हैं. दूसरे हाफ में कमाल अभिनेता संजय मिश्रा अौर पहले हाफ में हमारे प्यारे 'गुत्थी' सुनील ग्रोवर. संजय मिश्रा से भी बुरा काम करवाया जा सकता है, फिल्म यह साबित करने की पूरी कोशिश करती है. कहीं कहीं संजय मिश्रा फिर भी सीन निकाल ले जाते हैं ये अब उनका दोष है. अौर सुनील ग्रोवर से कॉमेडी के साथ एवजी में लड़की के बाप का रोल भी करवा लिया गया है. कॉमेडियन अौर जल्लाद पिता की इस दोहरी भूमिका के चलते फिल्म में कभी वो बोमन ईरानी होते हैं तो कभी अमरीश पुरी. कई बार एक ही सीन में बदल-बदलकर दोनों. वैसे सिनेमाहॉल में जनता को दोनों कॉमेडियन के काम से ज़्यादा हंसी हर बार हमारे नायक के अपना तकियाकलाम डायलॉग बोलने पर आई. मेरा सुझाव है कि निर्माता-निर्देशक द्वय अपने नायक को जरा भी कमजोर ना समझें. उन्हें जनता का मनोरंजन करने के लिए किसी धाकड़ कैरेक्टर एक्टर के सहारे की जरुरत नहीं.

अन्त में, अगर आप मुझसे पूछें कि सब्बीर खान की नई वाली 'बागी' में सबसे अच्छा क्या है तो मैं कहूंगा बिनोद प्रधान की सिनेमैटोग्राफ़ी. बारिशों को उन्होंने ऐसे फिल्माया है जिसे आप अपलक निहार सकते हैं. केरल के खूबसूरत बैकवाटर्स में होती पारंपरिक वल्लमकाली नौका दौड़ के एरियल शॉट्स से लेकर क्राबी द्वीप समूह की आसमानी खूबसूरती तक सब कुछ नयनाभिराम है. नायक नायिका भी बिलाशक नयनाभिराम हैं अौर पूरे मी-ज़ा-सें में किसी खूबसूरत नक्काशी से लगते हैं. आलोचकों से अपील है कि इसे उनकी अभिनय प्रतिभा पर कमेंट की तरह ना पढ़ा जाए.

लेकिन यहीं पेच है. जिस फिल्म को आउट-एंड-आउट एक्शन फिल्म होना था, उसमें आप सिर्फ विजुअल चमत्कार ही निहारते रहें, तो यह फिल्म की सबसे बड़ी असफलता है. साल की सबसे बड़ी एक्शन थ्रिलर होने का दावा करनेवाली 'बागी' निर्णायक एक्शन के इन्तजार में ही खर्च हो जाती है. गीतों, कॉमेडी, इमोशन अौर धोखे से फिल्म को भर दिया गया है. सच है कि मैं 'बागी' देखने किसी 'पीकू' या 'क्वीन' को पा जाने की उम्मीद से नहीं गया था. लेकिन इन 'प्रोजेक्ट' पर निर्मित फिल्मों की दिक्कत यह है कि ये खुद अपने किए वादे भी पूरे नहीं करतीं. ये भूल जाती हैं कि अन्तत: हर दर्शक के भीतर एक दिल धड़कता है अौर फिल्म कॉमेडी हो या थ्रिलर या ट्रेजेडी, आखिर में कहानी का तनाव अौर उसकी ईमानदारी बोलती है. 'बागी' के निर्माता-निर्देशक द्वय को 'फोर्स', 'कमांडो' या 'जॉनी गद्दार' जैसी फ़िल्में देखनी चाहियें. यह जानने के लिए कि कैसे अपनी कहानी पर भरोसा किया जाता है अौर कैसे विशुद्ध जज़्बातों से भरा एक्शन या थ्रिलर बनाया जाता है.

https://www.youtube.com/watch?v=8HQIKJBUsQk

Comments
thumbnail

Advertisement

Advertisement