'इतना सन्नाटा क्यों है भाई' कहने वाले 'शोले' के रहीम चाचा अपनी जवानी में दिखते कैसे थे?
जिस आदमी को सिनेमा के परदे पर हमेशा बूढा देखा वो अपनी जवानी के दौर में राज कपूर से ज्यादा खूबसूरत हुआ करता था.
कई बार आपके दिमाग में किसी शब्द के साथ एक ख़ास छवि नत्थी हो जाती है. मसलन कि जब भी मैं ए के हंगल के बारे में सोचता हूं तो मुझे 'शोले' के रहीम चाचा याद आ जाते हैं. यह जानते हुए भी कि रंगमंच में उनका ओहदा बहुत बड़ा है. यह जानते हुए भी कि किसी दौर में वो इंडियन पीपल्स थियेटर असोशिएशन (इप्टा) के नींव के पत्थर थे. यह जानते हुए भी कि ए के हंगल अदाकार होने के साथ-साथ एक राजनीतिक कार्यकर्ता भी थे. ताजिंदगी कम्युनिस्ट पार्टी के मेंबर रहे. और जिस मुंबई में बाल ठाकरे की मर्जी के बिना पत्ता तक नहीं हिलता था, उसी मुंबई में वो बाल ठाकरे के मुखर आलोचक रहे थे. यह कितना अजीब है कि इतनी बड़ी शख्सियत के बारे में दिमाग में जो तस्वीर वो सबसे पहले उभरती है, वो शोले के रहीम चाचा की ही है. ना सिर्फ हमने बल्कि हमसे पिछली पीढ़ी ने भी ए के हंगल को सिनेमा के परदे पर 70 के पेटे में पहुंच चुके एक बूढ़े के तौर पर ही देखा. लेकिन आदमी के बढ़ने की एक प्रक्रिया है. वो पहले बच्चा होता है. फिर जवान. उसके बाद अधेड़ और आखिर में बूढा. यहां से यह जिज्ञासा पैदा हुई कि ए के हंगल जवानी के दौर में दिखते कैसे थे.
साल 1947 की शुरुआत. भारत छोड़ो आंदोलन अपने चरम पर था. 33 साल के ए के हंगल उस समय कराची में कम्युनिस्ट पार्टी के कार्यकर्ता हुआ करते थे. अंग्रेजों की पुलिस ने धर लिया. कराची की जेल में डाल दिए गए. तीन साल जेल में रहने के बाद छूटे तब तक कई चीजें बदल चुकी थीं. मुल्क तकसीम हो चुका था. वहां से रवाना हुए तो भारत के कराची यानी कि बंबई पहुंचे. थियेटर पहले से करते आए थे. यहां भी रंगमंच से जुड़ गए. उस समय बॉलीवुड पर कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े कलाकारों की गोलबंदी इप्टा का बहुत असर था. पृथ्वीराज कपूर, बलराज साहनी, साहिर लुधियानवी, शैलेंद्र, कैफ़ी आज़मी, ख्वाजा अहमद अब्बास जैसे चोटी के कलाकार इस संगठन से जुड़े हुए थे. ए के हंगल भी इस संगठन से जुड़ गए. रोजगार के लिए पारसी थियेटर में काम करने लगे.
ये ए के हंगल के जवानी की तस्वीर है. तीखी कश्मीरी नाक. सिर पर घने बाल. देखने में कहीं से भी 'शोले' के रहीम चाचा नहीं लगते.
साल 1966. फणीश्वर नाथ रेणु ने काफी पहले एक कहानी लिखी थी, 'तीसरी फसल उर्फ़ मारे गए गुलफाम'. उनके करीबी दोस्त शैलेंद्र उस दौर में हिंदी सिनेमा के माने हुए गीतकार हुआ करते थे. शैलेंद्र रेणु की कहानी पर फिल्म बनाने के लिए जुनून की हद तक पहुंच गए थे. उन्होंने राज कपूर को मनाया और बड़े ही टेढ़े-मेढ़े रास्ते से फिल्म आखिरकार बनकर पूरी हुई. इसी फिल्म के जरिए ए के हंगल के फ़िल्मी करियर की शुरुआत हुई. उम्र थी 52 साल. अब तक खोपड़ी के बाल उड़ चुके थे. कलमों से बुढ़ापा झांकने लगा था. बाद के दौर में वो इसी रूप में परदे पर दिखाई देते रहे. हर बार बाल थोड़े ज्यादा सफ़ेद हो जाते. हर बार झुर्रियां थोड़ी बढ़ जाती.
अपने आखिरी दौर ए के हंगल को आर्थिक तंगी की वजह से ईलाज के लिए मोहताज होना पड़ा. सवा सौ से ज़्यादा फिल्मों में काम करने के बावजूद. आखिर में फ़िल्मी जगत के कुछ लोगों ने उनके इस कठिन समय में उनकी मदद की. जीवन के आखिरी दौर में बुरे दिन देखने वाले हंगल के बारे में यह कम ही लोगों को पता होगा कि उनका ताल्लुक देश के सबसे ताकतवर परिवार से रहा है. भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु रिश्ते में उनके भाई थे. लेकिन हंगल को इस रिश्ते को भुनाना पसंद नहीं था. एक कलाकार के तौर पर उनकी अपनी हैसियत थी और वो खुद को इसी तरह याद रखा जाना पसंद करते.