72 हूरें - फिल्म रिव्यू
'72 हूरें' इतनी सतही और हल्की फिल्म है कि क्या ही कहें! ये ऐसी फिल्म नहीं है, जिसे किसी मक़सद के, किसी एजेंडे के लिए इस्तेमाल किया जा सके. क्योंकि ये एक वेल मेड फिल्म होने की बुनियादी शर्त ही पूरी नहीं कर पाती.
72 Hoorain सिनेमाघरों में लग चुकी है. नाम से काफी हद तक साफ हो जाता है कि ये फिल्म किस बारे में है. ये उस इस्लामिक कॉन्सेप्ट की बात करती है, जिसमें लोगों को बरगलाया जाता है कि अगर वो जिहाद के नाम पर लोगों की हत्याएं करेंगे, तो उन्हें जन्नत नसीब होगी. वहां 72 हूरें उनका स्वागत करेंगी. ये फिल्म ऐसे दो लोगों के बारे में है, जो इस बहकावे में आ जाते हैं.
बिलाल और हाकिम नाम के दो लोग हैं. इन्हें मौलाना सादिक़ ने 72 हूरों का लालच देकर इंडिया पर एक बम ब्लास्ट प्लान किया है. ये लोग भारत आकर मुंबई में गेटवे ऑफ इंडिया पर बम फोड़ देते हैं. ये आत्मघाती हमला था, इसलिए इसमें दोनों की जान चली जाती है. मरने के बाद इनकी बॉडी तो खत्म हो जाती है. मगर इनकी आत्मा धरती पर भटकती रहती है. मेटा-फिज़िकल अवस्था में. दोनों इंतज़ार कर रहे हैं कि उन्होंने तो अपना मक़सद पूरा कर दिया, फिर वो जन्नत क्यों नहीं पहुंच रहे? हूरें उन्हें लेने क्यों नहीं आ रहीं? इसी उधेड़बुन में वो बहुत सारा विमर्श करते हैं. दिन, महीने, साल बीतते चले जाते हैं. मगर जैसा मौलाना सादिक़ ने बताया था, वैसा कुछ नहीं होता. तब उन्हें समझ आता है कि उनके साथ प्रैंक हो गया है. फर्ज़ी के बहकावे में आकर उन्होंने अपनी जान दे दी. ‘72 हूरें’ की बेसिक कहानी यही है.
पिक्चर शुरू होने के आधे घंटे के भीतर आपको पूरी बात समझ आ जाती है. उसके आगे मेकर्स बेवजह कुछ न कुछ खुराफात करके कहानी को आगे बढ़ाते हैं. क्योंकि कहानी तो पहले ही खत्म हो चुकी है. ऐसे घसीटते-घसीटते फिल्म को डेढ़ घंटे तक खींचा जाता है. मैं जिस थिएटर में ये फिल्म देखने गया था, वहां मेरे अलावा चार लोग और थे. वो लोग जेन्यूइनली 'द कश्मीर फाइल्स' और 'द केरला स्टोरी' जैसा कुछ देखने आए थे. उन्हें वो भी देखने को नहीं मिलता. यही '72 हूरें' का सबसे सकारात्मक पक्ष है.
'72 हूरें' जो बात कहती है, वो काइंड ऑफ यूनिवर्सल चीज़ है. कोई भी देवता या धर्म ग्रंथ ये नहीं कहते कि बेगुनाह लोगों को मारना ठीक बात है. मगर इस फिल्म की प्रोडक्शन वैल्यू इतनी खराब है कि उसकी कही किसी बात पर यकीन नहीं होता. अशोक पंडित इस फिल्म के प्रोड्यूसर हैं. प्लस जैसे इस फिल्म को प्रमोट किया जा रहा था, उससे लग रहा था कि ये फिल्म भी धर्म विशेष को कटघरे में खड़ा करेगी. फिर से उन्हें अपनी देशभक्ति साबित करने को कहा जाएगा. मगर '72 हूरें' कहीं भी ये चीज़ करती नज़र नहीं आती. क्योंकि इस फिल्म की नीयत खराब नहीं लगती.
फिल्म में एक सब-प्लॉट है. जैसे वो घटता है, वो बहुत एंबैरेसिंग हैं. मगर उसकी मदद से फिल्म कहना क्या चाहती है, ये साफ नहीं हो पाता. दो लोग हैं, जिन्होंने बिलाल और हाकिम की दफ्न की हुई डेड बॉडी जमीन से निकाल ली है. वो उसके साथ क्या करने वाले हैं, कोई आइडिया नहीं. जब पुलिस वो बॉडी ढूंढने लगती है, तो वो दोनों चोर एक मदरसे में जाते हैं. मौलवी से पूछते हैं कि ISI में उनका कोई जानने वाला है, तो उनकी बात करवाएं. मौलवी उन्हें बाहर फिंकवा देते हैं. पुलिस बॉडी को रिकवर कर लेती है. बाद में मौलवी साहब किसी मंत्री से बात करते हैं और दिया हुआ वादा पूरा करने की बात कहते हैं. वादा ये था कि उन आतंकवादियों का इस्लामिक रीति-रिवाज़ के साथ दाह संस्कार करवाया जाए. मुझे ये पूरा सब-प्लॉट समझ ही नहीं आया.
'72 हूरें' को प्रॉब्लमैटिक फिल्म तो नहीं कहा जाएगा. रिपीटिटीव बोल सकते हैं. मगर इतनी सतही और हल्की फिल्म है कि क्या ही कहें. फिल्म में हाकिम का रोल किया है पवन मल्होत्रा और बिलाल बने हैं आमिर बशीर. पवन मल्होत्रा काम के भूखे एक्टर लगते हैं. आप उन्हें कोई रोल दे दो, वो आदमी जान लड़ा देता है. यहां भी वो अपनी तरफ से हरसंभव कोशिश करते हैं. आमिर बशीर भी अपना किरदार निभा ले गए हैं. मगर फिल्म की कहानी उन्हें निराश करती है. उनके किरदारों को उठाकर आप किसी भी अन्य फिल्म में डाल दें, वो फिट हो जाएंगे. मगर '72 हूरें' उनके लायक फिल्म नहीं है.
'72 हूरें' को संजय पूरण सिंह चौहान ने डायरेक्ट किया है. उन्होंने ‘लाहौर’ बनाई थी. उनकी सेंसिबिलीटी इस फिल्म को वो होने से बचा लेती है, जिस मक़सद से इसे बनाया और प्रमोट किया गया था. कुल जमा बात ये है कि '72 हूरें' ऐसी फिल्म नहीं है, जिसे किसी मक़सद के लिए इस्तेमाल किया जा सके. क्योंकि ये एक वेल मेड फिल्म होने की बुनियादी शर्त ही पूरी नहीं कर पाती.
वीडियो: 72 हूरें के ट्रेलर में ऐसा क्या था कि सेंसर बोर्ड ने सर्टिफिकेट देने से मना कर दिया?