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बीजेपी ने द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार क्यों चुना, जानिए वजह

क्या आदिवासी उम्मीदर को चुनाव में खड़ा कर भाजपा आदिवासी राजनीति में अपनी जगह बना रही है.

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द्रौपदी मुर्मू (फोटो: इंडिया टुडे)
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22 जून 2022 (Updated: 23 जून 2022, 16:05 IST)
Updated: 23 जून 2022 16:05 IST
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21 जून के दिन ने हमें राष्ट्रपति चुनाव 2022 के लिए दो उम्मीदवार दिए - विपक्ष की तरफ से यशवंत सिन्हा और NDA की तरफ से द्रौपदी मुर्मू. विपक्षी पार्टियों के बीच उम्मीदवार के चुनाव को लेकर हुई बातचीत और खींचतान पर दी लल्लनटॉप ने नियमत रूप से आपको जानकारी दी है. इसीलिए आज हमारा ध्यान होगा NDA की उम्मीदवार द्रौपदी मुर्मू पर. खाली पड़े पदों पर तैनाती को लेकर भाजपा प्रायः सरप्राइज़ देती है. लेकिन द्रौपदी मुर्मू की उम्मीदवारी को लेकर ऐसा नहीं था. जितने कयास लगाए गए थे, उनमें मुर्मू का नाम भी था. बावजूद इसके, ये ज़रूरी है कि उनकी उम्मीदवारी के पीछे के कारण तफसील से समझें जाएं. क्योंकि एक भाजपा वो थी, जो पीए संगमा को राष्ट्रपति बनाना चाहती थी. और एक भाजपा वो है, जो द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपति बनाना चाहती है. बात आदिवासी उम्मीदवार से आदिवासी महिला उम्मीदवार तक आ गई है. लेकिन सवाल वही है - क्या भाजपा आदिवासी राष्ट्रपति को चुनकर आदिवासी राजनीति में अपने लिए जगह खोज सकती है?

21 जून की शाम को भारतीय जनता पार्टी के संसदीय बोर्ड की एक बैठक हुई, जिसमें प्रधानमंत्री मोदी भी शामिल हुए थे. इसके बाद, रात साढ़े 9 बजे के करीब भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा लाइव टीवी पर बोलना शुरू करते हैं. वो बताते हैं कि राष्ट्रपति चुनाव 2022 के लिए पार्टी ने उम्मीदवार चुनते वक्त किन तीन बातों पर ध्यान दिया,

"बैठक के दौरान हमने तय किया की राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार भारत के पूर्वी हिस्से से होना चाहिए और हमें महिलाओं को भी मौका देना चाहिए. आजतक राष्ट्रपति पद के लिए कोई भी आदिवासी उम्मीदवार नहीं आया है. इसी लिए एनडीए ने श्रीमती द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपति उम्मीदवार घोषित किया है."  

द्रौपदी मुर्मू - भारत के पूर्वी हिस्से से आने वालीं एक आदिवासी महिला. अगर चुनाव जीत जाती हैं, जिसकी प्रबल संभावना भी है, तो भारत के सर्वोच्च संवैधानिक पद तक पहुंचने वाली वो पहली आदिवासी होंगी.

इधर नड्डा ने द्रौपदी मुर्मू के नाम का ऐलान किया, उधर धड़ाधड़ इंटरनेट पर द्रौपदी मुर्मू के बारे में जानकारी तलाशी जाने लगी. ये बात गूगल ट्रेंड्स के ग्राफ में नज़र भी आती है. इसका मतलब जनता की पहली जिज्ञासा तो यही है कि द्रौपदी मुर्मू हैं कौन?

कौन हैं द्रौपदी मुर्मू? 

द्रौपदी मुर्मू ओडिशा के मयूरभंज ज़िले से ताल्लुक रखती हैं. गांव का नाम है बैडापोसी. संथाल आदिवासी समाज से आने वाली मुर्मू ने बीए की पढ़ाई के बाद ओडिशा सरकार के सिंचाई और बिजली विभाग में बतौर जूनियर असिस्टेंट काम किया. फिर 3 साल तक उन्होंने बच्चों को पढ़ाया. फिर राजनीति की छात्र हो गईं - थ्योरी वाली नहीं, प्रैक्टिकल वाली. वो भाजपा के साथ जुड़ीं और 1997 में उन्होंने मयूरभंज के रायरंगपुर से पार्षदी का चुनाव जीत लिया.

इसके बाद जैसे-जैसे वक्त बीता, मुर्मू आगे ही गईं. साल 2000 में भाजपा और बीजू जनता दल ने साथ चुनाव लड़ा, तो इसका फायदा मुर्मू को भी मिला. उन्हें रायरंगपुर से टिकट मिला और नवीन पटनायक की लहर में वो जीत कर कैबिनेट में शामिल हो गईं. भाजपा ने भी उन्हें धीरे-धीरे ग्रूम करना शुरू किया. साल 2002 से लेकर 2015 के बीच वो भाजपा अनुसूचित जनजाति मोर्चो में लगातार बनी रहीं - कभी नेशनल एग्ज़ीक्यूटिव के पद पर तो कभी सूबा अध्यक्ष पद पर.

इस बीच उन्होंने विधायकी का दूसरा लड़ा. साल था 2009. लेकिन इस बार भाजपा और बीजू जनता दल ने अलग-अलग चुनाव लड़ा और भाजपा का प्रदर्शन बुरी तरह गिरा. बावजूद इसके, मुर्मू ने अपनी सीट पर जीत दर्ज कर ली. राष्ट्रीय स्तर पर द्रौपदी मुर्मू का नाम तब चर्चा में आया जब नरेंद्र मोदी सरकार ने उन्हें 2015 में झारखंड का राज्यपाल बनाया. झारखंड के लिए वो जीके का सवाल भी बन गईं क्योंकि झारखंड के राजभवन में पहली बार किसी आदिवासी महिला को नियुक्त किया गया था. उस वक्त सूबे में रघुबर दास की भाजपा सरकार थी.

2017 में रघुबर दास सरकार ने छोटा नागपुर लैंड टेनेंसी एक्ट 1908 और संथाल परगना टेनेंसी एक्ट 1949 को बदलने की कोशिश की. इन कानूनों के तहत एक आदिवासी अपनी ज़मीन दूसरे आदिवासी को ही बेच सकता था. मकसद बताया गया कि विकास और निवेश के रास्ते खुलेंगे. लेकिन रघुबर दास इसके लिए जो अध्यादेश लाए, उसका खूब विरोध हुआ. और इसी के नतीजे में शुरू हुआ पत्थलगढ़ी आंदोलन. आदिवासी इलाकों में जगह-जगह पत्थर गड़ाकर आदिवासी अधिकारों को लेकर संविधान तथा न्यायालय के फैसलों को लिखा जाने लगा. आंदोलन उग्र हुआ तो जगह-जगह हिंसा होने लगी. दास सरकार मौके की नज़ाकत को समझ नहीं पाई और उसने आंदोलनकारी आदिवासियों पर राजद्रोह की धाराएं लगानी शुरू कर दीं.

जब ये सब हुआ, तब सारी नज़रें राज्यपाल द्रौपदी मुर्मू की तरफ ही थीं. क्यों? क्योंकि झारखंड के कई इलाके संविधान की पांचवीं अनुसूचि के तहत आते हैं. और पांचवी अनुसूचि के तहत भारत का संविधान आदिवासी पहचान के संरक्षण के लिए विशेष नियमों की व्यवस्था करता है. पांचवीं अनुसूचि के तहत राज्यपाल को भी विशेष शक्तियां दी गई हैं. ताकि वो आदिवासियों के संरक्षण हेतु, संसद या विधानसभा से पारित कानून पर अपने विवेक का इस्तेमाल करें. आदिवासी परंपरा के मुताबिक कानून या कानून के हिस्सों को लागू करें, या रोकें.

लेकिन आरोप लगा कि द्रौपदी मुर्मू आंदोलन के दौरान खामोश रहीं. झारखंड को कवर करने वाले पत्रकार बताते हैं कि हालात बिगड़ते देख भाजपा नेता और झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा सामने आए. उन्होंने सरकार और संगठन से ये कहा कि आदिवासियों को लेकर रघुबर दास सरकार को अपने रुख पर पुनर्विचार करना चाहिए. और तब जाकर द्रौपदी मुर्मू ने खूंटी इलाके के मुंडाओं और मांकियो के साथ बैठक की. मुंडा और मांकी - आदिवासी परंपरा के ग्रामप्रधानों को कहते हैं. मुर्मू ने रघुबर दास सरकार से अध्यादेश पर जवाब तलब कर लिये. उन्होंने पूछा कि सरकार ये बताए कि प्रस्तावित अध्यादेश से जन कल्याण का मकसद कैसे पूरा होगा.

दिल्ली और रांची में एक ही पार्टी की सरकार होने के बावजूद राजभवन से कानून वापस आने का मर्म रघुबर दास सरकार ने भी समझा और दोबारा अध्यादेश को राजभवन नहीं भेजा. इस वाकये के बाद भी समय-समय पर मुर्मू ने आदिवासी समाज को राजभवन में दावत दी, और उनकी चिंताओं को सुना.

रघुबर दास के बाद झारखंड के मुख्यमंत्री बने झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन. और तब राजभवन और मुख्यमंत्री कार्यालय के बीच संबंध तेज़ी से बेहतर हुए. सोरेन और मुर्मू, दोनों संथाल हैं और दोनों के बीच अच्छे संबंध हैं. सोरेन उन्हें आदरपूर्वक 'फुआ' यानी बुआ भी कह देते हैं. रांची के पत्रकार बताते हैं कि मुर्मू अपने कार्यकाल के पूरे होने पर जब रवाना हो रही थीं, तब उन्हें विदा करने वालों में प्रोटोकॉल स्टाफ से इतर, जितने भाजपा कार्यकर्ता नहीं थे, उतने झारखंड मुक्ति मोर्चा के लोग थे.

आपने द्रौपदी मुर्मू के बारे में जान लिया, अब उनकी उम्मीदवारी पर चर्चा करते हैं. ये संयोग की बात है कि राष्ट्रपति चुनाव 2022 में जितने लोगों के नाम की चर्चा रही, उनमें से दो 2017 के चुनाव में भी चर्चा में थे - गोपाल कृष्ण गांधी और द्रौपदी मुर्मू. 

फिलहाल हमारा फोकस रहेगा द्रौपदी मुर्मू की 2022 की उम्मीदवारी पर. राष्ट्रपति का पद भारत का सबसे ऊंचा और गरिमा वाला पद है. लेकिन भारत में राजनीति की सच्चाई यही है कि यहां बिना बैकग्राउंड देखे कोई काम हो नहीं पाता. मुर्मू के मामले में ये बैकग्राउंड है उनकी आदिवासी पहचान.

भारत में आदिवासी समाज कई जातियों, उपजातियों में बंटा हुआ है. पूरे देश की आबादी में अनुपात देखेंगे, तो बहुत बड़ी संख्या नहीं है. 2011 की जनसंख्या के अनुसार देश में 8.6 फीसदी नागरिक आदिवासी थे. लेकिन अगर भारत के नक्शे को आप मैग्निफाइंग लेंस के नीचे रखेंगे, तो आपको अलग आंकड़े नज़र आएंगे. इन कुछ राज्यों में आदिवासी जनसंख्या पर गौर कीजिए -

छत्तीसगढ़ - 30.62 फीसदी
गुजरात - 14.75 फीसदी
झारखंड - 26.21 फीसदी
मध्य प्रदेश - 21.09 फीसदी
महाराष्ट्र - 9.35 फीसदी
ओडिशा - 22.85 फीसदी
राजस्थान - 13.48 फीसदी
असम - 12.45 फीसदी

अरुणाचल, त्रिपुरा, मेघालय जैसे राज्यों में आदिवासी आबादी और ज्यादा है, लेकिन यहां हमने बड़ी जनसंख्या वाले राज्यों को ही रखा है. आप जानते ही हैं कि चुनावी राजनीति में संख्या का महत्व होता है.

हमने जो आंकड़े दिए, उससे स्थापित होता है कि आदिवासी वोट एक करीबी मुकाबले में कितना महत्वपूर्ण हो सकता है. इसीलिए भाजपा इस समाज में भी वैसी ही पैठ बनाना चाहती है, जैसी उसने कथित अगड़ी जातियों और ओबीसी के बीच बनाई है.

आदिवासी पारंपरिक रूप से भाजपा के वोटर नहीं माने जाते. और इसी धारणा को अब भाजपा बदल देना चाहती है. एक लंबा सिलसिला है, जिसमें करिया मुंडा और जुआल ओराम जैसे नेता आते हैं. भाजपा ने इनमें निवेश किया, और पद भी दिया. इसी क्रम में पीए संगमा की राष्ट्रपति पद की उम्मीदवारी को भी गिना जा सकता है. भाजपा को इसका फायदा नहीं मिला, ये कहना ठीक नहीं होगा. भाजपा ने आदिवासी बहुल राज्यों जैसे छत्तीसगढ़ और झारखंड में खूब सरकार चलाई है. लेकिन पार्टी का मंसूबा है, आदिवासियों की डिफॉल्ट पार्टी बनना.

बीते दिनों आदिवासी हितों से जुड़ी कई घटनाएं हुईं. पत्थलगढ़ी की चर्चा हम कर ही चुके हैं. झारखंड में इन दिनों सरना/आदिवासी धर्म कोड को लेकर गोलबंदी चल रही है. फिर छत्तीसगढ़ से लेकर पूर्वोत्तर तक जल-जंगल-ज़मीन के कई छोटे-छोटे आंदोलन हैं. ये देखने को मिला है कि सवालों को लेकर अब छोटे-छोटे राजनैतिक प्रयोग हो रहे हैं. जोहार के नारे के साथ भारतीय ट्रायबल पार्टी जैसे दल अपनी ज़मीन मज़बूत करते जा रहे हैं. ये दल पूरे सूबे की राजनीति पर भले हावी न हो, लेकिन अपने इलाके में चुनावों को प्रभावित करते रहते हैं. इसकी मिसाल हमने 2018 के राजस्थान विधानसभा चुनाव में देखी थी. जब उदयपुर-डूंगरपुर के आदिवासी बेल्ट में छोटे आदिवासी दलों ने सिर्फ चुनाव लड़ा, बल्कि विधायक भी बनाए. भाजपा इस स्पेस में मौजूदगी दर्ज कराना चाहती है. और इसीलिए द्रौपदी मुर्मू की उम्मीदवारी का प्रतीक महत्व पार्टी के लिए काफी है. फिर भाजपा के गढ़ गुजरात में चुनाव आसन्न हैं और उसके आदिवासी इलाकों में भाजपा का प्रदर्शन खास नहीं रहा था. मुर्मू की उम्मीदवारी कोई जादूई बदलाव कर देगी, ये कहना ठीक नहीं होगा. लेकिन बात यहां संदेश की है.

संदेश दिल्ली स्थित राष्ट्रपति भवन से दिया जाना है और आज मुर्मू अपने शहर रायरंगपुर से दिल्ली के लिए रवाना भी हुईं. उन्हें 21-22 जून की दरम्यानी रात ही CRPF की Z प्लस सेक्योरिटी दे दी गई थी. सुबह तस्वीरें आईं, जिनमें मुर्मू को रायरंगपुर के शिव मंदिर में आशीर्वाद लेने से पहले झाड़ू लगाते हुए देखा गया. फिर उन्होंने नंदी के कान में भी कुछ कहा. इसके बाद उन्होंने प्रेस के सामने उम्मीदवारी के लिए पार्टी का शुक्रिया किया और फिर भुवनेश्वर के लिए निकल गईं. भुवनेश्वर तक के रास्ते में लोग सड़क के अगल बगल खड़े होकर देखते रहे.

नवीन पटनायक पहले ही मुर्मू को बधाई दे चुके हैं. कोई आश्चर्य नहीं होगा, अगर झारखंड मुक्ति मोर्च भी इसी राह चले. भाजपा ने आदिवासी उम्मीदवार को उतारकर अपना सबसे बढ़िया पत्ता चला है. TDP, YSRCP, जैसी  विपक्षी पार्टियां अगर मुर्मू को वोट न देने की बात करें, तो अपने निर्णय का बचाव कैसे करेंगी, ये भी उन्हें सोचना होगा. इसीलिए अब इस बात की प्रबल संभावना है कि द्रौपदी मुर्मू ये चुनाव जीत जाएं.

रही बात उनके राष्ट्रपति बनने से आदिवासी समाज की चिंताओं और असुरक्षाओं के निवारण की, तो इस बारे में एक टिप्पणीकार ने मार्के की बात कही है. वो कहते हैं कि एक व्यक्ति के किसी पद पर पहुंच जाने पर बहुत बड़े बदलाव की उम्मीद नहीं रखनी चाहिए. ऐसे न सरकारें बनती हैं, न गिरती हैं और न ही किसी समाज की स्थिति में अचानक कोई बदलाव आता है. सरकारों का बनना बिगड़ना और सामाजिक उत्थान एक जटिल प्रक्रिया है, जिसमें अनेक कारक काम करते हैं. बड़े पदों पर नियुक्ति इन कारकों में से एक है, लेकिन न अंतिम है, न सबसे महत्वपूर्ण.

महाराष्ट्र में क्या हालात हैं?

अब बात करते हैं महाराष्ट्र की. कल सुबह से चल रही उथल पुथल के बीच, आज शाम के करीब 5 बजे महाराष्ट्र के सीएम उद्धव ठाकरे फेसबुक पर लाइव आए. विधायकों के इधर से उधर जाने की खबरों के बीच उद्धव ने बयान जारी किया. उन्होंने कहा कि वो इस्तीफा देने के लिए तैयार हैं. उनकी तरफ से मराठी में दिए गए बयान में कहा गया,

“एकनाथ शिंदे को सूरत जाकर बात करने की क्या ज़रूरत थी. कुछ विधायक यहां नहीं हैं. कुछ लोग फ़ोन कर रहे हैं कि वे लौटना चाहते हैं. मैंने हमेशा अपनी ज़िम्मेदारियों को निभाया है. मैं सीएम पद छोड़ने के लिए तैयार हूं, लेकिन मेरे बाद कोई शिवसैनिक मुख्यमंत्री बने तो मुझे ख़ुशी होगी. लापता विधायक यहां आएं और मेरे त्यागपत्र के साथ राजभवन जाए.”

उद्धव ने आगे कहा

"लोग कह रहे थे कि मुख्यमंत्री मिलते नहीं हैं. शिवसेना कौन चला रहा है. मेरा ऑपरेशन हुआ था, इस वजह से मैं लोगों से मिल नहीं पाया. वो समय काफ़ी मुश्किल था. मैं हॉस्पिटल से ऑनलाइन काम कर रहा था. शिवसेना और हिंदुत्व एक दूसरे से जुड़े हुए शब्द हैं."

अपने संबोधन में उद्धव ठाकरे ने कई बार इस्तीफ़ा देने की बात कही. अब सवाल है कि ये नौबत आई क्यों? विधान परिषद के चुनाव में क्रॉस वोटिंग हुई. महाअघाड़ी गठबंधन की जगह बीजेपी के उम्मीदवार जीत गए. सरकार में मंत्री और शिवसेना नेता एकनाथ शिंदे के नेतृत्व में करीब 29 विधायक बागी बताए गए. मुंबई से निकल कर गुजरात सूरत पहुंचे. सरकार डिगने लगी. आज क्या हुआ? आज उन बागी विधायकों को सूरत से असम के गुवाहाटी के शिफ्ट कर दिया गया.

एकनाथ शिंदे का दावा है कि उनके साथ उनके साथ शिवसेना के 56 में से 46 विधायक हैं. माना जा रहा है कि, शिवसेना के सभी विधायकों को सूरत से गुवाहाटी भेजने की प्रमुख वजह सूरत और मुंबई के बीच का फासला है. मुंबई से चलकर मात्र 3 घंटे में सड़क के रास्ते सूरत पहुंचा जा सकता है. हुआ ये, कि शिवसेना के 2 प्रतिनिधि - मिलिंद नारवेकर और रवींद्र पाठक सड़क के रास्ते 21 जून को सूरत पहुंच गए. शुरुआत में तो पुलिस ने उन्हें होटल में जाने की अनुमति नहीं दी. अब बीजेपी बार-बार ये कह रही है कि इसमें उसका कोई हाथ नहीं है, तो पुलिस को उन्हें मिलने की अनुमति देनी पड़ी.

फिर शिवसेना के संजय राउत ने ये आरोप भी लगाया था, कि उनका एक विधायक एकनाथ शिंदे के चंगुल से भागने में कामयाब हुआ और वो मुंबई में वर्षा पर पहुंचा था. एक बयान शिवसेना विधायक नितिन देशमुख की तरफ से भी आया. उन्होंने  मीडिया से बात करते हुए कहा, मैं उद्धव ठाकरे के साथ हूं. माना जा रहा था कि नितिन देशमुख बागी विधायकों में से एक थे. मगर देशमुख ने दावा किया है कि उनका अपहरण किया गया था और गुजरात के सूरत ले जाया गया. जहां से वे भाग आए हैं.  

दावा ये भी किया गया कि कई सारे विधायक वहां से निकलना चाहते थे. इसलिए उन्हें गुवाहाटी ले जाया गया. दूसरी तरफ बागियों के नेता एकनाथ शिंदे ने सरकार नहीं, सीधे पार्टी पर कब्जे की घोषणा कर दी. शिवसेना ने व्हिप जारी कर बुधवार शाम 5 बजे पार्टी विधायकों की बैठक बुलाई थी. उससे 50 मिनट पहले एकनाथ शिंदे ने पार्टी व्हिप को अवैध बता चीफ व्हिप सुनील प्रभु को हटाने की घोषणा कर दी. साथ ही भरत गोगावले को अपनी तरफ से चीफ व्हिप बना दिया. खुद को विधायक दल का नेता बताते हुए 34 विधायकों के समर्थन वाली चिट्ठी राज्यपाल को भेज दी. दावा किया जा रहा है कि गुवाहाटी में अभी शिवसेना के 35 और 2 निर्दलीय विधायक हैं. 3 और विधायक महाराष्ट्र भाजपा अध्यक्ष चंद्रकांत पाटिल के साथ गुवाहाटी के लिए निकल चुके हैं.

ये बीजेपी और शिवसेना की पक्ष की बात हो गई. अब NCP और कांग्रेस की बात. कांग्रेस ने एमपी के पूर्व सीएम कमलनाथ को ऑब्जर्वर बनाकर भेजा है. उनकी तरफ से कहा गया- कांग्रेस और NCP महाराष्ट्र विकास अघाड़ी सरकार को अपना समर्थन जारी रखेंगे. मैंने शरद पवार जी से भी बातचीत की है. उन्होंने आश्वासन दिया है कि वे गठबंधन सरकार को अपना समर्थन जारी रखेंगे. इसके अलावा कोई इरादा नहीं है.

NCP की तरफ से शरद पवार और सुप्रिया सुले सीएम ठाकरे से मिलने वर्षा बंगले पहुंचे. इससे पहले NCP इसे शिवसेना का अंदरूनी मसला बता चुकी है. भारी उठापटक के बीच जानकार मान रहे हैं कि जल्द ही महाराष्ट्र में कोई बड़ा उलटफेर देखने को मिल सकता है. क्योंकि गणित ऐसी स्थिति में बीजेपी के पक्ष में नजर आ रहा है. उसके पास खुद के 106 विधायक हैं, गुवाहाटी में मौजूद 35 शिवसेना के विधायकों को मिला दें तो 141 हो जाते हैं. 17 निर्दलियों का साथ मिल जाए तो संख्या तो 158 हो जाती है. जो बहुमत के जादुई आंकड़े 145 से कहीं ज्यादा है. अब बस ये देखना बाकी है कि भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व क्या तय करता है. 

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