बिजनेस कर नोटों के बंडल कमाने हैं तो White Labeling समझ लो, Redbull, Boat ने अरबों छापे हैं
Red Bull. सॉफ्ट ड्रिंक के बाजार में Coca-Cola और Pepsi के बाद तीसरी सबसे बड़ी कंपनी. साल 1987 से ड्रिंक में मतलब मैदान में, लेकिन एक छोटी सी मैन्युफैक्चरिंग यूनिट भी नहीं. सब आउट सोर्स. हालांकि रेड बुल कोई अकेली ऐसी कंपनी नहीं है मगर इतना बड़ा स्केल भी किसी का नहीं है. सबका सॉफ्ट ड्रिंक पीकर देखेंगे, मगर पहले जरा 'White Labeling' का लेबल चस्पा करते हैं.
साल 2023 में 1200 करोड़ कैन. कुल आज तक 10 हजार करोड़ कैन. ये भारी भरकम से आंकड़े हैं हल्का-फुल्का प्रोडक्ट बनाने वाली एक कंपनी के. ये तो सेल्स के नंबर हैं तो कंपनी के टर्नओवर का अंदाजा लगाया ही जा सकता है. नहीं लगाना तो हम बता देते हैं. साल 2023 का टर्नओवर 10554 बिलियन यूरो. इतना पढ़कर तो पहली नजर में लगेगा कि कंपनी के पास भारी-भरकम सेटअप होगा. दुनिया भर में कई प्लांट्स लगे होंगे. लेकिन एकदम नहीं. क्योंकि कंपनी ‘White Labeling’ करती है. बोले तो विशुद्ध मार्केटिंग. नाम है,
Red Bull. सॉफ्ट ड्रिंक के बाजार में Coca-Cola और Pepsi के बाद तीसरी सबसे बड़ी कंपनी. साल 1987 से ड्रिंक में, मतलब मैदान में, लेकिन एक छोटी सी मैन्युफैक्चरिंग यूनिट भी नहीं. सब आउट सोर्स. हालांकि रेड बुल कोई अकेली ऐसी कंपनी नहीं है. मगर इतना बड़ा स्केल भी किसी का नहीं है. सबका सॉफ्ट ड्रिंक पीकर देखेंगे. मगर पहले जरा ‘White Labeling’ का लेबल चस्पा करते हैं.
क्या है White Labeling?भयंकर आसान भाषा में कहें तो एक कंपनी प्रोडक्ट बनाती है तो दूसरी उसके ऊपर अपना ब्रांड चिपकाकर मार्केट में बेचती है. आमतौर पर इस टर्म का इस्तेमाल इलेक्ट्रॉनिक कंपनियों के उत्पादों के लिए खूब होता है. अब आपको लगेगा जब बात इलेक्ट्रॉनिक कंपनियों की है तो रेड बुल अपना सींग कैसे घुसा रहा. हम बताते, लेकिन पहले इस शब्द का अर्थ निकालते.
दरअसल इस टर्म का जन्म हुआ कॉफी, बीन्स बनाने वाली कंपनियों से. कई सारी ऐसी कॉफी बीन्स कंपनियां हैं जो खुद तो कॉफी बेचती हैं मगर दूसरी कई कंपनियों को बीन्स सप्लाई करती हैं. रही बात इसके आगे वाइट लिखा होने की तो ऐसा काम अधिकतर खुल्लम-खुल्ला होता है. मतलब ब्लैक वाले काम की आशंका बेहद कम. भले प्रोडक्ट पर ब्रांड का लेबल चस्पा हो लेकिन साथ में उसको बनाने वाले का नाम भी लिखा होता है. नाम से इतर अब रेड बुल का कार्यक्रम समझते हैं.
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रेड बुल का बुलबुलाकंपनी की अपनी कोई प्रोडक्शन यूनिट नहीं, बल्कि ऑस्ट्रेलिया के Rauch की एक बॉटल यूनिट से सारा खेला होता है. ऐसा करने की तमाम वजहें हैं मगर सबसे बड़ा कारण इसके बनने के पीछे का है. इस प्रोडक्ट के पीछे हैं ऑस्ट्रेलियाई नागरिक Dietrich Mateschitz और थाईलैंड वासी Chaleo Yoovidhya. Dietrich अक्सर थाईलैंड जाते थे और वहां उन्होंने पिया ‘Krating Daeng’ नाम का लोकल ड्रिंक जिसे Yoovidhya बनाते थे. कुछ समय बाद Dietrich ने Yoovidhya को इस ड्रिंक को बड़े लेवल पर बनाने का ऑफर दिया. बात बन गई, लेकिन पैसे बहुत ज्यादा नहीं थे तो प्रोडक्शन यूनिट लगाने की जगह आउटसोर्स करने पर फोकस किया गया.
1987 में रेड बुल लॉन्च हुआ और मार्केट में आते ही बम्पर हिट हुआ. इतना हिट की कंपनी ने साल 1989 में फार्मूला वन रेस की sponsorship ले ली. इसके बाद कंपनी ने कभी अपनी यूनिट लगाने का विचार ही नहीं किया. हालांकि सिर्फ सेल्स के नंबर इसकी एक वजह नहीं हैं. क्योंकि वाइट लेबलिंग के फायदे ही फायदे हैं.
मसलन ये तरीका कॉस्ट कम करता है तो मार्केट में अपना बिजनेस फैलाना भी आसान होता है. जाने माने बिजनेस एक्सपर्ट Michael Nemeroff के मुताबिक ये वाले बिजनेस में रिस्क भी कम है. रेड बुल को ये सब समझ आया और फिर सॉफ्ट ड्रिंक से जैसे सब सॉफ्ट-सॉफ्ट होता गया. एकदम “हींग लगे न फिटकरी, रंग भी चोखा होय" जैसा.
हालांकि यहां हींग और फिटकरी दोनों लगते हैं. मतलब पैसा और प्रोसेस, मगर रंग चोखा आता है. और जैसा हमने कहा, रेड बुल भले इसका सबसे बड़ा उदाहरण है मगर और भी कंपनियां ऐसा करके झंडा बुलंद कर रहीं.
ऐसा ही एक नाम Boat का है. दिल्ली के लड़के अमन गुप्ता की कंपनी जिसने करोड़ों का बिजनेस बना लिया है. कोरोना से पहले तो बोट का 100 फीसदी सामान चीन में बनता था. अब भले इंडियन प्रोडक्शन भी शामिल हो गया है. रही बात अमन के बिजनेस सेंस की तो उसके बारे में क्या ही कहना. गुप्ता जी का लड़का कमाल है.
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