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'महंगाई कमर तोड़ रही, बेरोजगारी की हालत गंभीर', 'मूड ऑफ द नेशन' सर्वे में बोले लोग

महंगाई और बेरोजगारी से टूट रही हैं लोगों की उम्मीदें. अर्थव्यवस्था को संभालना अब भी सरकार की सबसे बड़ी चुनौती.

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इंडिया टुडे के सर्वे के मुताबिक 74 फीसद सोचते हैं कि बेरोजगारी की स्थिति वाकई गंभीर है | प्रतीकात्मक फोटो: आजतक
16 अगस्त 2022 (Updated: 16 अगस्त 2022, 23:06 IST)
Updated: 16 अगस्त 2022 23:06 IST
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NDA सरकार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुवाई में मई 2019 में लगातार दूसरी बार सत्ता में आई और उसे एक के बाद एक विनाशकारी वैश्विक थपेड़ों का सामना करना पड़ा है. ये कोविड महामारी की तीन लहरों के साथ शुरू हुआ, जिसकी वजह से जिंदगियों और आजीविकाओं का चौतरफा नुकसान हुआ. उसके बाद महंगाई आसमान छूने लगी और मुद्रा कमजोर हुई क्योंकि रूस ने इस साल की शुरुआत में यूक्रेन में लंबी लड़ाई छेड़ दी है. अब संभावित मंदी दुनिया के सामने मुंहबाए खड़ी है, जिसने अनिश्चितता बढ़ा दी है.

नीति निर्माताओं को ब्लूमबर्ग के एक हालिया सर्वे से तसल्ली मिल सकती है, जो कहता है कि एशिया के कुछ हिस्सों, यूरोप और अमेरिका सहित अन्य अर्थव्यवस्थाओं के विपरीत, भारत के मंदी की गिरफ्त में जाने की शून्य संभावना है. वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने 1 अगस्त को संसद में दावे के साथ कहा कि भारत की आर्थिक बुनियादें मजबूत दिख रही हैं और देश न तो रेसेशन (मंदी) का सामना कर रहा है और न स्टैगफ्लेशन (जिसमें आर्थिक वृद्धि शून्य और मुद्रास्फीति बहुत ज्यादा होती है) का.

‘आर्थिक हालत बिगड़ रही है’

वित्त मंत्री तकनीकी तौर पर सही हैं. लेकिन इंडिया टुडे के देश का मिजाज सर्वे से पता चलता है कि जमीन पर भारतीयों की उम्मीदें फीकी पड़ रही हैं. सर्वे में शामिल करीब 29 फीसदी लोगों ने, जो फरवरी 2016 के बाद सबसे ज्यादा हैं, मोदी सरकार के अर्थव्यवस्था को संभालने के तौर-तरीकों को 'खराब' या 'बहुत खराब' आंका. मगर सर्वे में शामिल 48 फीसदी ने अर्थव्यवस्था के प्रबंधन को 'असाधारण' या 'अच्छा' करार दिया. जो जनवरी के 51.9 फीसदी से कम है. आर्थिक स्थिति में बदलाव से जुड़े सवाल पर 35.5 फीसदी लोगों ने कहा कि ये बदतर हुई है, जो जनवरी के 31.9 फीसदी से ज्यादा है. ऐसी गिरावट इससे पहले अगस्त 2017 में दर्ज की गई थी, जब 37 फीसदी लोगों ने अपनी आर्थिक हालत में गिरावट बताई थी.

फोटो: सिद्धांत जुमड़े/इंडिया टुडे हिंदी मैगजीन

मोदी सरकार को वस्तु और सेवा कर (GST) और दिवालिया संहिता लाने से लेकर नोटबंदी सरीखे कदम उठाने तक कई सुधारों का श्रेय दिया जाता है. मगर मुंहजबानी प्रमाण इशारा करते हैं कि इनमें से ज्यादातर उपायों और खासकर नोटबंदी और जीएसटी ने बिलकुल जमीनी स्तर पर नुकसान पहुंचाया है. लाखों छोटे और मध्यम उद्यमों को नई कर प्रणाली को अपनाने में बहुत संघर्ष करना पड़ा. तिसपर भी जीएसटी आने के बाद कर संग्रह में खासी बढ़ोतरी हुई है. जून में ये आंकड़ा 1.40 लाख करोड़ रुपये के पार चला गया, जो वार्षिक आधार पर 56 फीसद की बढ़ोतरी थी. प्रति व्यक्ति मुद्रा 22,752 रुपए आती है, जो नकदी की जमाखोरी का संकेत है और बताता है कि लोग अनिश्चितता से घिरा और कमजोर महसूस कर रहे हैं. अलबत्ता विशेषज्ञों का कहना है कि पिछले साल घोषित टेलीकॉम क्षेत्र के सुधार इस क्षेत्र में नई जान फूंक सकते हैं और मैन्युफैक्चरिंग के लिए उत्पादन से जुड़ी प्रोत्साहन योजनाएं गेमचेंजर हैं.

महंगाई बढ़ गई और नौकरियां चली गईं!

अगले छह महीने में भारतीय अर्थव्यवस्था के नजरिए के मामले में 34.2 फीसद लोगों ने कहा कि यह बदतर होगी और 30.5 ने कहा कि इसमें सुधार आएगा. यह मायूसी महामारी के सालों के मुकाबले ज्यादा है. घरेलू आमदनियों और तनख्वाहों के बारे में 27.6 फीसद ने उम्मीद जाहिर की है कि इनमें सुधार आएगा, जो पिछले साल अगस्त के 17 फीसद के मुकाबले काफी ज्यादा है. भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) की तरफ से ब्याज दरों में आक्रामक बढ़ोतरियों के बाद महंगाई जून में कुछ कम होकर 7.01 फीसद पर आ गई, लेकिन यह अब भी मुद्रास्फीति को 6 फीसद की ऊपरी सीमा तक रखने के केंद्रीय बैंक के लक्ष्य से काफी ज्यादा है. मुद्रास्फीति आम लोगों की जेब को चुभती है क्योंकि ईंधन, अनाज, दलहनों और वनस्पति तेलों की कीमतें बढ़ जाती हैं. ईंधन की ऊंची कीमतों का चौतरफा असर तमाम आपूर्ति श्रृंखलाओं पर पड़ता है, जिससे वस्तुओं का उत्पादन और ढुलाई ज्यादा महंगी हो जाती है. महंगाई ने घरेलू बजट को तार-तार कर दिया. 63 फीसद लोगों ने कहा कि खर्चे पूरे कर पाना मुश्किल हो गया है, जो जनवरी के 67.3 फीसद से कम हैं, जबकि 26.9 फीसद ने कहा कि खर्चे बढ़ गए हैं पर फिर भी किसी तरह संभाले जा सकते हैं.

फोटो: तन्मय चक्रवर्ती/इंडिया टुडे हिंदी मैगजीन

साल 2020 की शुरुआत में देश में कोविड की दस्तक के साथ नौकरियों पर इसका प्रभाव विनाशकारी रहा है. सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) के अनुसार, जून 2020 में खत्म तिमाही के दौरान, जो महामारी की पहली लहर का समय था, करीब 7.8 करोड़ नौकरियां चली गईं. इसी तरह जून 2021 की तिमाही में दूसरी लहर के दौरान करीब 1.3 करोड़ नौकरियां चली गईं. फिर तीसरी लहर आई, जिसने कई कारोबारों को कामकाज में कटौती करके काम चलाते रहने को मजबूर कर दिया, हालांकि वायरस का असर पहले की दो लहरों जितना विनाशकारी नहीं था. भारत में बेरोजगारी की दर अप्रैल 2022 की 7.83 फीसद के मुकाबले मई में घटकर 7.12 फीसद पर आ गई. हालांकि श्रम भागीदारी दर, कामकाजी आबादी में रोजगार में लगे या काम खोज रहे लोगों के अनुपात, में अप्रैल के मुकाबले मई में मुश्किल से ही कोई सुधार आया.

मजबूत आर्थिक वृद्धि ही ज्यादा नौकरियों का सृजन कर सकती है. 2021-22 की चौथी तिमाही में जीडीपी वृद्धि दर महज 4.1 फीसद यानी पिछली चार तिमाहियों में सबसे धीमी थी. सीएमआईई के ताजातरीन आंकड़े बताते हैं कि जून में 1.3 करोड़ की गिरावट के मुकाबले जुलाई में रोजगार केवल 63 लाख बढ़े. रोजगार में बड़ी गिरावट ग्रामीण इलाकों में थी. जुलाई 2022 में कृषि में 14.75 लाख लोग कार्यरत थे, जबकि जुलाई 2021 में 16.38 लाख थे. देश का मिजाज सर्वे में 56.4 फीसद लोगों ने कहा कि देश में आज बेरोजगारी की स्थिति ‘अत्यंत गंभीर’ है, जबकि अन्य 17.1 फीसद को लगता है कि यह ‘कुछ हद तक गंभीर’ है. कुल मिलाकर सर्वे में शामिल 74 फीसद लोग सोचते हैं कि बेरोजगारी की स्थिति गंभीर है. इसके मुकाबले जनवरी में 71 फीसद ऐसा सोचते थे.

फोटो: तन्मय चक्रवर्ती/इंडिया टुडे हिंदी मैगजीन

इस बीच, महामारी की वजह से अपनी आमदनी में गिरावट महसूस कर रहे लोगों की तादाद लगातार घटी है, जिससे नौकरियों के कुछ हद तक बहाल होने की झलक मिलती है. ऐसे लोगों की तादाद, जिन्हें लगता है कि उनकी आमदनी घटी है, अगस्त 2021 की 86 फीसद की ऊंचाई से घटकर इस साल जनवरी में 64.1 फीसद पर आ गई थी और ताजा-तरीन देश का मिजाज सर्वे में और घटकर 45.54 फीसद पर आ गई. अपनी आमदनी में बढ़ोतरी बताने वाले लोगों की हिस्सेदारी पिछले दो सर्वे के क्रमशः 8.5 फीसद और 3 फीसद के मुकाबले ताजा सर्वे में बढ़कर 18.53 फीसद पर पहुंच गई. वहीं 33.8 फीसद ने कहा कि उनकी आमदनी में कोई बदलाव नहीं आया.

गरीब और अमीर के बीच और चौड़ी हुई खाई

सरकारी नीतियों का फायदा बड़े कारोबारों को मिलने की धारणा अब भी कायम है. यह धारणा तब और पुख्ता हुई, जब अडानी ग्रुप ने कई हवाई अड्डे चलाने के लिए कामयाब बोली लगाने और शेयर बाजारों में सूचीबद्ध ग्रुप की कंपनियों के ऊंचे मूल्य निर्धारण के लिहाज से ऊंची छलांग लगाई, जिससे चेयरमैन गौतम अडानी की दौलत में इजाफा हुआ. उद्योगपति मुकेश अंबानी की रिलायंस इंडस्ट्रीज ने 5जी एयरवेव्स के लिए सबसे ऊंची बोली लगाने वाली कंपनी की तरह उभरकर टेलीकॉम क्षेत्र में अपनी स्थिति मजबूत की और अब हरित ऊर्जा में बड़ा कदम रखने का इरादा बना रही है. वर्ल्ड इनइक्वलिटी लैब के को-डायरेक्टर लुकास चांसेल की लिखी ‘वर्ल्ड इनइक्वलिटी रिपोर्ट 2022’ के मुताबिक, कुल राष्ट्रीय आय का पांचवें से ज्यादा हिस्सा भारत की सबसे ऊपर 1 फीसद आबादी के पास है और सबसे नीचे की आधी आबादी के पास महज 13 फीसद हिस्सा है. देश का मिजाज सर्वे में शामिल आधे से ज्यादा लोग मानते हैं कि सरकार की आर्थिक नीतियों का सबसे ज्यादा फायदा बड़े कारोबारों को मिला, जो जनवरी के मुकाबले करीब 3 फीसद अंकों की बढ़ोतरी है. महज 9.5 फीसद को लगा कि छोटे कारोबारों को फायदा मिला है, जो जनवरी के आंकड़े से करीब 2 फीसद ज्यादा है.

फोटो: इंडिया टुडे हिंदी मैगजीन
भारत का विदेशी मुद्रा भंडार सिकुड़ा

कमजोर मुद्रा का मतलब जरूरी तौर पर कमजोर अर्थव्यवस्था नहीं है, पर आम रुझान ऐसा ही है. यह तब और सच था, जब 19 जुलाई को रुपया पहली बार प्रति डॉलर 80 के मनोवैज्ञानिक निशान से नीचे आ गया. इसके पीछे यूक्रेन युद्ध, कुछ हफ्ते पहले तक कच्चे तेल की ऊंची कीमतें और वैश्विक वित्तीय दबाव थे. रुपये को सहारा देने के लिए आरबीआई बार-बार आगे आया, तो देश का विदेशी मुद्रा भंडार सिकुड़कर 580 अरब डॉलर (करीब 46 लाख करोड़ रुपए) पर आ गया, जो फरवरी में 630 अरब डॉलर (करीब 50 लाख करोड़ रुपए) पर था. वृहत आर्थिक स्तर पर कमजोर रुपया भारत की अर्थव्यवस्था को चोट पहुंचा सकता है, क्योंकि इस चक्कर में चालू खाते का घाटा यानी देश के आयात और निर्यात के मूल्यों के बीच अंतर बढ़ जाएगा, जिससे विदेशी उधारियों की लागत बढ़ जाएगी. हाल में रुपया मजबूत होकर 9 अगस्त तक 79.54 पर आ गया. 64.7 फीसद बड़ी तादाद में लोग चिंतित थे कि डॉलर के विरुद्ध गिरते रुपये का बुरा असर अर्थव्यवस्था पर पड़ेगा.

फोटो: तन्मय चक्रवर्ती/इंडिया टुडे हिंदी मैगजीन

ईंधन की ऊंची कीमतें कइयों के लिए चिंता का विषय थीं. केंद्र ने महंगाई पर लगाम कसने के लिए मई में पेट्रोल और डीजल पर उत्पाद शुल्क क्रमशः 8 रुपये और 6 रुपये कम कर दिया, जिसके बाद कई राज्यों ने भी ईंधन पर करों में कटौती की. इसके अलावा ब्रेंट कच्चे तेल की कीमतें, जो मार्च में 120 डॉलर प्रति बैरल से ऊपर थीं, मंदी की आशंका में 9 अगस्त को गिरकर 96 डॉलर पर आ गईं. इससे जनता को कुछ राहत मिली. वैसे पेट्रोल की कीमतें अब भी कई शहरों और कस्बों में 100 रुपये प्रति लीटर से ऊपर हैं. देश का मिजाज सर्वे में शामिल 72.6 फीसद लोगों ने कहा कि केंद्र और राज्यों दोनों को ईंधन पर शुल्कों में कटौती करनी चाहिए, ताकि उनकी कीमतें कम हों.

क्रिप्टो के चलते भी व्यापारियों को झटका 

निर्मला सीतारमण ने 28 जुलाई को क्रिप्टो व्यापार को एक और झटका दिया, जब उन्होंने लोकसभा में कहा कि RBI क्रिप्टो मुद्राओं पर पाबंदी लगाना चाहता था. ऐसे में जब क्रिप्टो विनियमन विधेयक संसद में टलता आ रहा है, उद्योग पसोपेश में है कि केंद्र क्रिप्टो के व्यापार को मंजूरी देगा या नहीं, फिर भले ही वो मुद्रा के तौर पर क्रिप्टो के इस्तेमाल पर पाबंदी लगा दे. हाल में ट्रेडिंग प्लेटफॉर्म वजीरएक्स के खिलाफ मनी लॉन्ड्रिंग के आरोपों ने क्रिप्टो के इर्द-गिर्द छाई मायूसी बढ़ा दी. 54.7 फीसद जितनी बड़ी तादाद में लोग सरकार की तरफ से क्रिप्टो मुद्राओं पर पाबंदी चाहते थे, जो जनवरी में ऐसा चाहने वाले 38.1 फीसद से काफी ज्यादा थे.

मोदी सरकार कई चुनौतियों से निपटने में सफल रही, लेकन अर्थव्यवस्था को लेकर गंभीर चिंताएं कायम हैं. इसमें वक्त रहते लगातार हस्तक्षेप की जरूरत है क्योंकि देश और भी ज्यादा अनिश्चितताओं से गुजरने जा रहा है.

वीडियो देखें: खर्चा-पानी: ED ने मारा क्रिप्टो एक्सचेंज पर छापा, लोन ऐप भी घेरे में

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