साल था 1945. इंसान को पहली बार ऐटम की ताकत समझ आई. दो बमों में ही दूसरा विश्व युद्ध ख़त्म हो गया था. 1945 के अंत तक, हिरोशिमा में सवा लाख से ज़्यादा और नागासाकी में 65,000 लोग मारे गए थे. जो हमलों में बच गए, उनमें से कोई भी रेडियेशन से अछूता नहीं रहा. हालांकि, ऐटम का इस्तेमाल बिजली बनाने में भी होता था. और, बम बनाने में भी. अब इससे भी खतरनाक और ज्यादा ताकतवर ऊर्जा का रास्ता निकाल लिया गया है.
सूरज जितनी एनर्जी धरती पर बनेगी? वैज्ञानिकों की मेहनत ने नया ही रास्ता खोल दिया!
न्यूक्लियर फ्यूज़न से बिजली बनाने का रास्ता और साफ़ हुआ है. ये वही एनर्जी है जिससे सूरज चमकता है. जापान में दुनिया का सबसे बड़ा न्यूक्लियर फ्यूज़न रिएक्टर, अब एक्सपेरिमेंट करने के लिए चालू हो गया है.
वही ऊर्जा, जिससे सूरज जगमगाता है. प्रॉसेस का नाम, ‘न्यूक्लियर फ्यूज़न’. इसी की बदौलत सूरज और बाकी सब तारों में चमक है. माने वैज्ञानिक वो एनर्जी बनाना चाहतें हैं, जो सूरज को चमकाती है.
आप सोचेंगें: जब कोयले, सौर ऊर्जा से बिजली बन सकती है तो इतने ताम-झाम की क्या जरूरत? क्योंकि 40,000 टन कोयले से जितनी ऊर्जा निकलती है, उतनी ऊर्जा सिर्फ 1 किलो न्यूक्लियर फ्यूल से बन सकती है. न्यूक्लियर फ्यूज़न के जरिये.
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हाल ही में वैज्ञानिकों को कुछ बड़ी सफताएं मिली हैं. जापान में दुनिया का सबसे बड़ा न्यूक्लियर फ्यूज़न रिएक्टर अब एक्सपेरिमेंट करने के लिए चालू हो गया है. कैलिफोर्निया की लॉरेंस लिवरमोर लेबोरेट्री ने न्यूक्लियर फ्यूज़न के जरिए पिछले एक साल में 3 बार नेट पॉजिटिव एनर्जी भी बनाई है. नेट पॉजिटिव एनर्जी मल्लब जितनी ऊर्जा की लागत है, टोटल बिजली उससे ज्यादा निकले. इनपुट से ज़्यादा आउटपुट. अर्थ की भाषा में मुनाफ़ा.
इसीलिए जानेंगें -
- ये न्यूक्लियर फ्यूज़न कैसे होता है?
- सूरज जितनी एनर्जी के लिए वैज्ञानिकों ने क्या रास्ता निकला है?
- इसका दुनिया पर असर क्या पड़ेगा?
ऐटम क्या है?ऐटम ही हर चीज़ की शुरुआत है. टेबल, कुर्सी, पेड़, पहाड़, हम और तुम – हम सब ऐटम से बने हैं. सबसे छोटा पार्टिकल. दुनिया की ईंट. जैसे ईंट जोड़ कर दीवार बनती है, वैसे ही ऐटम जुड़ कर एक तत्व बनाते हैं.
मिसाल से समझिए: फ़र्ज़ करिए आपके पास सोने की चेन है (सपोज़ तो कर ही सकते हैं). अगर उस चेन को तोड़ेंगे, तो चेन चेन न रेगी. पर सोना सोना रहेगा. जब इस सोने को करोड़ों टुकड़ों में तोड़ेगें, तब सबसे छोटा कण मिलेगा. इस कण को तोड़ने के बाद सोना ‘सोना’ नहीं रहेगा. इस कण को सोने का ऐटम कहेंगें. ऐटम के अंदर भी कुछ और पार्टिकल होतें हैं. तब ऐटम उन पार्टिकल्स में टूट जायेगा – इलेक्ट्रॉन, प्रोटॉन और न्यूट्रॉन.
हालांकि, आप अपनी कथित चेन हथौड़ी से नहीं तोड़ पाएंगे. लैब में जाना पड़ेगा. बहुत कुछ करना पड़ेगा!
दिखता कैसा है ऐटम?ऐटम का शेप सौर मंडल जैसा है. सूरज, सौर मंडल के बीच में होता है और ग्रह उसके चक्कर लगातें हैं. वैसे ही ये प्रोटॉन और न्यूट्रॉन गेंदों के ढेर की तरह बीच में होते हैं और इलेक्ट्रॉन इस ढेर के चक्कर लगाते हैं. इस प्रोटॉन और न्यूट्रॉन के ढेर को न्यूक्लियस कहते हैं.
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इतने छोटे (सबसे छोटे) होने के बाद भी इन पार्टिकल्स में बहुत एनर्जी होती है. ऐटम बॉम्ब से लेकर सूरज की गर्मी तक, दोनों की वजह ये पार्टिकल ही है. कैसे? वजह है, न्यूक्लियर प्रॉसेस. यानी न्यूक्लियस में होने वाले बदलाव. दो तरह के प्रॉसेस हैं.
- न्यूक्लियर फ्यूज़न - फ्यूज़न का मतलब है एक-दूसरे में जुड़ जाना. माने दो छोटे न्यूक्लियस आपस में जुड़ कर एक बड़ा न्यूक्लियस बन जाएं.
- न्यूक्लियर फिजन - फिजन का मतलब है, टूटना. माने एक बड़ा न्यूक्लियस टूट कर दो में बट जाए.
ऐटम बम इसी प्रॉसेस से बनता है और न्यूक्लियर एनर्जी से बनने वाली बिजली भी अभी इसी न्यूलियर फिजन से बनती है.
टूटने पर कुछ कर जाने की ताकत आती है. लेकिन टूटकर कुछ बहुत अच्छे की संभावना और कुछ बहुत बुरे का जोखिम बराबर है. वैसे ही फिज़न रिऐक्शन का उपयोग भी पॉजिटिव या निगेटिव, दोनों तरह से हो सकता है. बिजली और बम, दोनों बनाया जा सकता है.
न्यूक्लियर फिजन में कुछ रेडियोएक्टिव तत्वों का इस्तमाल किया जाता है. घातक रेडिएशन निकालने वाले एलिमेंट्स. उदहारण के तौर पर यूरेनियम. ये एक ऐसा एलिमेंट है, जिसका न्यूक्लियस बहुत भारी होता है. इसमें बहुत सारे प्रोटॉन और न्यूट्रॉन होते हैं. इस वजह से ये न्यूलियस अस्थिर हो जाता है और टूटने लगता है.
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लेकिन एनर्जी बनाने के लिए इसको जबरदस्ती तोड़ना होता है. इसके लिए एक अतिरिक्त न्यूट्रॉन का इस्तेमाल किया जाता है. जैसे यूरेनियम के ऐटम को जब एक न्यूट्रॉन से बोम्बार्ड करवाते हैं, तब यूरेनियम का ऐटम क्रिप्टॉन और बेरियम नाम के दो एलिमेंट्स में टूट जाता है. और साथ में 3 एक्स्ट्रा न्यूट्रॉन और निकलते हैं. ये तीन न्यूट्रॉन अगले 3 यूरेनियम के ऐटम को बोम्बार्ड करते हैं. ऐसे एक चेन रिएक्शन शुरू हो जाता है. इसे न्यूलियर फिजन रिएक्शन चेन कहते हैं. और इस प्रॉसेस से एनर्जी निकलती है.
हमने पहले बताया है कि ये एनर्जी पॉजिटिव और निगेटिव दोनों हो सकती है. अगर इस प्रॉसेस को शुरू करके अपने हाल पर छोड़ दिया जाए तो ऐटम बॉम्ब की तरह तबाही मचाएगी. लेकिन बिजली बनातें समय इस प्रॉसेस को कंट्रोल में किया जाता है. एक दिशा दी जाती है रिएक्शन को. तब एक पॉजिटिव परिणाम मिलता है.
न्यूक्लियर फ्यूज़नअब बात करते हैं न्यूक्लियर फ्यूज़न. इसमें न्यूक्लियर फिजन के मुकलबले 4 गुना ज्यादा एनर्जी निकलती है. न्यूक्लियर फ्यूज़न को आसान भाषा में कहें तो आपने वो कहावत सुनी होगी एक और एक ग्यारह. ये भी कुछ ऐसा ही है. इसमें दो न्यूक्लियस फ्यूज हो जाते हैं और साथ में बहुत ज्यादा एनर्जी निकलती है. इसमें दो बहुत छोटे न्यूक्लियस मिलकर एक बड़ा न्यूक्लियस बनाते हैं. जैसे दो हाइड्रोजन के न्यूक्लियस फ्यूज होकर एक हीलियम का न्यूक्लियस बना देते हैं. अब आप ये सोच रहे होंगे कि अगर इतना फायदा होता है तो हम न्यूक्लियर फ्यूज़न से बिजली क्यों नहीं बनाते हैं. क्योंकि इसमें कुछ पेच हैं. चलिए समझते हैं.
सबसे पहले तो ये वो हाइड्रोजन नहीं है, जो हवा में होती है. ये हाइड्रोजन के आइसोटोप होते हैं. आइसोटोप का आसान मतलब है किसी एलिमेंट का जुड़वा भाई. ये जुड़वा भाई दिखने में तो हमशक्ल जैसा ही है. बस कुछ हरकतों का फर्क है.
कैसे? हमने आपको पहले बताया कि प्रोटॉन की संख्या हर एलिमेंट की फिक्स होती है. अगर वो संख्या बदली तो एलिमेंट ही बदल जायेगा. जैसे हाइड्रोजन में सिर्फ 1 प्रोटॉन होता है अगर 2 हुए तो वो हीलियम बन जायेगा. लेकिन न्यूक्लियस में न्यूट्रॉन भी होता है. न्यूट्रॉन की संख्या बढ़ने से तत्त्व नहीं बदलता बस कुछ कैरक्टरस्टिक्स बदल जाते हैं. और जब किसी एलिमेंट में न्यूट्रॉन की संख्या बदलती है तो वो आइसोटोप कहलता है.
न्यूक्लियर फ्यूज़न में हाइड्रोजन के दो अलग अलग आइसोटोप की जरूरत होती है. इनका नाम डूटेरियम और ट्राइटियम है.
दूसरी बात, इस डूटेरियम और ट्राइटियम का प्लाज्मा स्टेट में होना. अब ये प्लाज्मा क्या है इसको भी समझ लेते हैं. आप सबने सुना है हर पदार्थ या मैटर 3 स्टेट में होता है. ठोस, तरल या गैस. यानी सॉलिड, लिक्यूइड या गैस. प्लाज्मा चौथा स्टेट है. इन तीनों स्टेट से बिल्कुल अलग. कैसे अलग है ये भी जान लेते हैं. हमने आपको शुरू में बताया ऐटम कैसा होता है पर प्लाज्मा में कुछ इलेक्ट्रॉन हर ऐटम से अलग होकर इंडिपेंडेंट हो जाते हैं. ये बहुत ज्यादा तापमान पर ही पॉसिबल है. न्यूक्लियर फ्यूज़न करने के लिए हाइड्रोजन को प्लाज्मा की स्टेट में कन्वर्ट करना पड़ता है.
तीसरी, न्यूक्लियर रिएक्टर के अंदर 10 करोड़ डिग्री सेल्सियस का तापमान होना चाहिए. जब ये सारी कंडीशंस पूरी हो जाती हैं तब एक डूटेरियम और एक ट्राइटियम बहुत करीब आकर टकराते हैं और बहुत ज्यादा गतिज ऊर्जा की वजह से ये ऐटम फ्यूज हो जाते हैं. रिजल्ट में एक हीलियम का ऐटम बनता है और एक न्यूट्रॉन निकलता है. और साथ निकलती है अथाह एनर्जी. वही एनर्जी जिससे सूरज चमकता है.
लेकिन ये कंडीशन्स ही समस्याओं की वजह हैं. अब समस्याओं को भी जान लेते हैं.
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न्यूक्लियर फ्यूज़न से जुड़ी समस्याएंहमने अभी आपको बताया कि न्यूक्लियर फ्यूज़न कितना मुश्किल है. इस वजह से न्यूक्लियर फ्यूज़न में कुछ समस्याएं पैदा हो जाती हैं. जैसे- पहली समस्या ये है कि न्यूक्लियर रिएक्शन से पहले हाइड्रोजन तो प्लाज्मा स्टेट में कन्वर्ट करना.
दूसरी, देर तक 10 करोड़ डिग्री सेल्सियस टेम्परेचर बरकरार रखना.
तीसरी, नेट पॉजिटिव एनर्जी. सिंपल भाषा में कहें तो न्यूक्लियर फ्यूज़न की सारी कंडीशंस को पूरा करने में जो एनर्जी खर्च हो रही है उससे ज्यादा एनर्जी न्यूक्लियर फ्यूज़न से निकले.
अब बात करते हैं कि वैज्ञानिकों ने क्या हल निकाला है.
वैज्ञानिकों ने कैसे निकाला हलकैलिफोर्निया की लॉरेंस लिवरमोर लेबोरेट्री ने एक फैसिलिटी बनाई है. इसका साइज 3 फुटबॉल फ़ील्ड्स के बराबर है. इसमें होनी वाली प्रॉसेस सिंपल तरीके से समझते हैं. इसमें लेज़र बीम का इस्तेमाल होता है. लेज़र बीम यानी लेज़र की किरणें थोड़ी वैसी लेज़र जो आप मेले में खरीदते हैं. बस फर्क इतना है कि ये लेज़र बीम एक हाई लेवल एनर्जी वाली होती है. इसमें 192 लेज़र किरणों धीरे-धीरे एम्प्लिफाई किया जाता है यानी बढ़ाया जाता है. रिएक्टर के अंदर हाई प्रेशर और हाई टेम्पेरेचर बनाने के लिए.
सबसे पहले बिजली से फ़्लैश लैम्प्स जलाये जाते हैं. जिससे बिजली लाइट में कन्वर्ट हो जाती है. ये लाइट लेज़र गिलास के एम्पलीफायर में अब्सॉर्ब हो जाती है. एम्प्लीफायर एक ऐसी मशीन होती है जिसके जरिए किसी भी किरण की एनर्जी बढ़ाई जा सकती है. इन एम्प्लिफाइर्स की मदद से लेज़र किरणों की एनर्जी करोड़ों गुना बढ़ जाती है. तब इन लेज़र किरणों को रिएक्टर के अंदर डाला जाता है. एक 10mm के टारगेट पर केंद्रित किया जाता है. तब उस टारगेट के अंदर बहुत ज्यादा प्रेशर और टेम्परेचर बनता है. और सेकंड से भी कम हिस्से के लिए सूरज जितनी एनर्जी बनती है.
अब इस प्रॉसेस के जरिये नेट पॉजिटिव एनर्जी बन गयी है. हालांकि ये पॉजिटिव एनर्जी एक केतली भर पानी गर्म करने जितनी ही है पर आने वाले समय में इसको और बढ़ाया जा सकता है.
न्यूक्लियर फ्यूज़न से भविष्य में क्या लाभअब जानना ये भी ज़रूरी है कि इतनी जटिल तकनीक की आखिर जरूरत क्या है. एक फ़ायदा तो हमने आपको शुरुआत में बताया था कि 1 किलो न्यूक्लियर फ्यूल से बनी एनर्जी 40,000 टन कोयले के बराबर है. इसके अलावा और क्या फायदे हैं, उनको भी समझ लेते हैं.
सबसे पहले इसके जरिये हम बिना प्रदूषण के एनर्जी बना सकते हैं. प्रदूषण और उसकी वजह से निकलने वाली कार्बन डाईऑक्साइड से दुनिया खतरे में है. सारी दुनिया में ये एक मुद्दा बना हुआ है. पहल हो रही है कि देशों को रिन्यूएबल एनर्जी की तरफ बढ़ाया जाये जिससे कार्बन एमिशन कम से कम हो. उसमें न्यूक्लियर फ्यूज़न बहुत कारगर साबित हो सकता है.
दूसरा बड़ा फ़ायदा ये है कि ये कभी न खत्म होने वाली एनर्जी है. क्योंकि इसका रॉ मटीरियल हाइड्रोजन है. जो आसानी से मिल जाता है.
तीसरी बात. आज दुनिया में उन देशों की मनमानी चलती है जिनका तेल और कोयले पर कंट्रोल है. क्योंकि आज ज्यादातर एनर्जी सिर्फ तेल और कोयले से बनती है. अगर ये तकनीक सफल होगी तो आने वाले समय में ऊर्जा जैसी मूलभूत चीज़ के लिए किसी देश पर निर्भर नहीं होना पड़ेगा.
(आपके लिए ये स्टोरी लिखी है हमारे साथ इंटर्नशिप कर रहे आकाश ने.)
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