24 घंटे से भी कम समय में इंडिया के इंटरनेट के आसमान में काफी कुछ बदल गया है. ना-ना, प्लान सस्ते और महंगे नहीं हुए हैं. स्पीड में भी कोई चेंज नहीं आया है. कोई नई तकनीक भी नहीं आई है. बस ‘जय-वीरू’ और ‘गब्बर’ एक हो गए हैं. जय-वीरू मतलब Jio और Airtel और गब्बर मतलब SpaceX. वैसे Jio और Airtel दोस्त तो नहीं हैं, मगर इस वाले ‘गब्बर’ से साथ लड़ रहे थे. इसलिए स्टोरी के मीटर पर ठीक बैठते हैं. अब दोस्ती तो हो गई है. मगर सवाल ये है कि ऐसा हुआ क्यों है?
मोबाइल चलाते हैं तो सैटेलाइट इंटरनेट को समझ लें, मस्क के साथ एयरटेल-जियो कुछ बड़ा करने वाले हैं
सैटेलाइट इंटरनेट के किंग Elon Musk की SpaceX को भारत में Airtel और Jio की क्या जरूरत आन पड़ी? 3.5 लाख करोड़ खर्च करके ट्विटर खरीदने की ताकत रखने वाले मस्क देसी कंपनियों से दोस्ती क्यों कर रहे? क्या वाकई सैटेलाइट इंटरनेट का मार्केट इतना बड़ा है?

मतलब सैटेलाइट इंटरनेट के किंग Elon Musk की SpaceX को भारत में Airtel और Jio की क्या जरूरत आन पड़ी? 3.5 लाख करोड़ खर्च करके ट्विटर खरीदने की ताकत रखने वाले मस्क देसी कंपनियों से दोस्ती क्यों कर रहे? क्या वाकई सैटेलाइट इंटरनेट का मार्केट इतना बड़ा है?
क्या है सैटेलाइट इंटरनेट?नाम से अंदाजा तो लग जाता है कि ऐसा इंटरनेट जो आसमान में चक्कर लगा रहे सैटेलाइट से आता है. ये बात तो फोन में खुसी हुई सिम के लिए भी कही जा सकती है. हां, कुछ हद तक मगर उसमें बड़ा रोल जगह-जगह लगे टावर का होता है. लेकिन सैटेलाइट इंटरनेट में ऐसा कुछ नहीं. सब आसमान से सीधे जमीन पर आता है. इसमें ब्रॉडबैंड जैसे तार का कोई झंझट भी नहीं होता. इसकी पहुंच वहां तक भी होती है जहां मोबाइल की डंडी भी नहीं आती. अंग्रेजीदा होकर कहें तो ‘लास्ट माइल कनेक्टिविटी’.

इसकी एक और खूबी इसकी मोबिलिटी है. मतलब ये एक चलता-फिरता इंटरनेट सेटअप है. घर में भी चलेगा और जंगल में खड़ी कार में भी. सैटेलाइट वाला मामला वही है जो मौसम की जानकारी से लेकर, लाइव प्रसारण तक में काम आते हैं. बस इंटरनेट के लिए जियो-स्टेशनरी (GEO) सैटेलाइट काम पर लगाए जाते हैं. जो भी इंटरनेट सर्विस प्रोवाइडर (ISP) होता है वो सिग्नल भेजता है सैटेलाइट को, और वहां से डिश एंटीना के जरिए वो आप तक पहुंच जाता है.
भारत में सैटेलाइट से इंटरनेट देना कोई नई बात नहीं है. Tikona जैसी कंपनियां इसी तरीके से सर्विस देती हैं. एक मॉडम (डिश/एंटीना), वायरलेस राउटर और छत से कमरे तक के लिए एक छोटी केबल से ये सर्विस आप तक पहुंच जाती है. वैसे (GEO) सैटेलाइट धरती से करीब 36 हज़ार किलोमीटर दूर होते हैं. इस वजह से सिग्नल को धरती से सैटेलाइट तक जाने और सैटेलाइट से लौटकर धरती पर आने में कुछ वक्त लगता है.
मगर फिर आता है स्टारलिंक, जो आज की तारीख में दुनिया के 100 से ज्यादा देशों में चलता है.
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मास्टरमाइंड मस्कस्टारलिंक का पूरा सेटअप और भी ज्यादा एडवांस है. इसकी छतरी को छत पर लगाने की भी जरूरत नहीं. साथ में आए स्टैंड को फिक्स करके जमीन पर रखने से भी काम चल जाएगा. राउटर को घर के अंदर रखिए. स्टारलिंक ऐप डाउनलोड कीजिए और काम खत्म. ऐप आपको बता देगा कि छतरी का फेस किस तरफ रखना है. मतलब सबसे पास में लटका हुआ सैटेलाइट किस तरफ है. रही बात सैटेलाइट की तो ये धरती से सिर्फ 500 से 1,200 किलोमीटर की ऊंचाई पर LEO में चक्कर काटते हैं. LEO माने लो-अर्थ ऑर्बिट. हाल फिलहाल में स्पेस एक्स के लगभग 7000 सैटेलाइट ऐसे ही लटके हैं. इस वजह से लेटेंसी काफी कम हो जाती है.
लेटेंसी वो टाइम है जो डेटा भेजने और रिसीव होने में लगता है. इसका सबसे बड़ा उदाहरण आपके ब्लूटूथ हेडसेट होते हैं. कई बार स्क्रीन पर जो चल रहा होता है वो कान में देरी से सुनाई देता है. वैसे ये सब मिली सेकंड का खेल है, मगर है तो सही. LEO में लटके सैटेलाइट इसे 600 मिली सेकंड तक ले आते हैं. हालांकि तार वाले इंटरनेट माने ऑप्टिकल फाइबर में यही 20-50 मिली सेकंड होता है. सब ठीक आहे, मगर क्या इंडिया में सैटेलाइट इंटरनेट का मार्केट है?
है भी और नहीं भीमतलब देश भले बहुत बड़ा है मगर मार्केट उतना बड़ा नहीं. इसकी एक वजह देश में इंटरनेट की आसान उपलब्धता है. सरकारी न्यूज एजेंसी PIB की एक रिपोर्ट के मुताबिक अप्रैल 2024 तक देश के 95.15 फीसदी गांव इंटरनेट से जुड़े हुए हैं. गणित के हिसाब से कहें तो 6 लाख 44 हजार 131 गांवों में से 6 लाख 12 हजार 952 में 3G/4G मोबाइल इस्तेमाल किए जा रहे हैं. मार्च 2024 तक देश में 95 करोड़ लोग इंटरनेट का इस्तेमाल करते थे. इसमें मोबाइल से लेकर ब्रॉडबैंड यूजर्स शामिल हैं. सरकार BharatNet प्रोजेक्ट से देश की 2.13 लाख ग्राम पंचायतों को Optical Fibre Cable (OFC) नेटवर्क से जोड़ चुकी है. इन पंचायतों की कुल संख्या ही 2.22 लाख है.
5G नेटवर्क सिर्फ 2 साल में छोटे-छोटे गांवों तक पहुंच चुका है. लद्दाख और वैष्णो देवी जैसे इलाकों में भी 5G चलता है. देश में डेटा की कीमतें भी दुनिया के मुकाबले काफी किफायती हैं. जबकि स्टारलिंक काफी महंगा है. भारत में भले इसके प्लान की जानकारी अभी नहीं है, मगर बगल के भूटान में इसका Lite Plan 3,000 भूटानी गलट्रम (भूटानी करेंसी का नाम) है. भारत के हिसाब से 3,001 रुपये. इस प्लान में 23 Mbps से 100 Mbps स्पीड मिलती है. Residential Plan जिसमें एचडी स्ट्रीमिंग मिलती है, उसके लिए 4,200 गलट्रम खर्च करने पड़ते हैं.
ऐसे में भारत में सैटेलाइट इंटरनेट का रास्ता मुश्किल है, हालांकि नामुमकिन नहीं. मतलब अच्छी सर्विस और बेहतर कीमत ऑफर करके कहीं भी एंट्री मारी जा सकती है. मस्क का पार्टनर Jio इसका उदाहरण हैं. उन्होंने मार्केट में तब एंट्री मारी जब एयरटेल, वोडाफोन जैसे दिग्गज मौजूद थे. आज वो नंबर वन कंपनी है.
इस डील से स्पेस एक्स ने वो कर दिखाया जो असंभव था. पिछले साल नवंबर 2024 में जियो और एयरटेल मिलकर स्टारलिंक को देश में आने से रोक रहे थे. अब उनकी दुकान पर ही मस्क का माल बिकेगा. ये सभी के लिए फायदे वाली बात अभी तो लगती है. मतलब मस्क तकनीक के सबसे बड़े खिलाड़ी हैं. स्टारलिंक कई बार अपना रौला दुनिया में दिखा चुका है. जैसे रूस से युद्ध कर रहे यूक्रेन में नेट की जरूरत इसी सिस्टम से पूरी हो रही है.
वहीं एयरटेल के पास तगड़ा ब्रॉडबैंड नेटवर्क और सॉलिड मैन पावर है, तो जियो के पास बहुब्बड़ा पॉकेट. देखना होगा ये तीनों मिलकर हिंदुस्तान के हर घर में छतरी ला पाते हैं या नहीं.
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