भारत सरकार Apple, Samsung और Xiaomi जैसी ग्लोबल टेक कंपनियों को देश में रीजनल नेविगेशन सैटेलाइट सिस्टम का इस्तेमाल करने के लिए कह रही है. ये खबर आप तक पहुंच गई होगी. हालांकि, टेक कंपनियां ऐसा करेंगी या नहीं और अगर करेंगी, तो कब से? इन सवालों के जवाब फिलहाल तो नहीं मिल पाए हैं. लेकिन हम जरा समझते हैं कि आखिर ये स्वदेशी नेविगेशन सिस्टम जिसको (NavIC) कहा जाता है, वो है क्या. इसका इस्तेमाल होता भी है या नहीं. सारे सवालों के जवाब, हम आपको देते हैं.
क्या है NavIC, जिसने Apple, Samsung, Xiaomi की नींद उड़ा दी है?
NavIC पांच मीटर की दूरी से भी सटीक जानकारी हासिल कर सकता है.

नेविगेशन विद इंडियन कॉन्स्टेलेशन (NavIC). बोले तो अपना खुद का रीजनल नेविगेशन सिस्टम. जानकर आपको हैरानी हो सकती है कि ये सिस्टम अप्रैल 2018 से ही सक्रिय है और इसकी पहली मंजिल हमने 1 जुलाई 2013 को पा ली थी. 2018 में भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (Indian Space Research Organization-ISRO) द्वारा IRNSS-I उपग्रह का सफल प्रक्षेपण किया गया था. IRNSS के सातों उपग्रहों से मिलकर ही NavIC बना है. NavIC का उद्देश्य देश की सीमा से 1,500 किलोमीटर की दूरी तक के हिस्से (दक्षिण-पूर्व एशिया के बड़े हिस्से में) में सटीक जानकारी उपलब्ध कराना है.
अब हमने इसको बनाया क्यों, वो भी जान लीजिए. दरअसल कारगिल घुसपैठ के समय भारत के पास खुद का ऐसा कोई नेविगेशन सिस्टम नहीं था. इसलिए सीमापार से होने वाली घुसपैठ का समय रहते पता नहीं लगाया जा सका. भारत ने अमेरिका से GPS सिस्टम से डिटेल शेयर करने को कहा, लेकिन वो साफ मुकर गया. हमने इस बात को लिया दिल पर या कहें अंतरिक्ष पर और स्वदेशी नेविगेशन बना डाला.
सौ प्रतिशत तो नहीं, लेकिन कह सकते हैं कि दुनिया की एक बड़ी आबादी अमेरिका के GPS (Global Positioning System) पर निर्भर है. अमेरिकी वायु सेना द्वारा इसको कंट्रोल किया जाता है. फोन में गूगल मैप्स से लेकर वाहनों के गार्मिन (Garmin) की GPS प्रणाली पर अमेरिकी सेना का नियंत्रण है. पहले पहल 1960 के दशक में इसका उपयोग किया गया. विभिन्न चरणों से होते हुए 1993 में 24 उपग्रहों वाला ये सिस्टम पूरी तरह से स्टार्ट हो गया. आज की तारीख में 32 अमेरिकी उपग्रह पृथ्वी के 26 हज़ार 600 किमी. की ऊंचाई से दुनियाभर में चप्पे-चप्पे पर नज़र रखते हैं.
GPS सीधे उपग्रह से जुड़ा होता है और उपग्रहों द्वारा भेजे गए संदेशों के आधार पर काम करता है. इन्ही संकेतों को मैप में दर्शाता जाता है. हालांकि, ऐसा नहीं है कि सिर्फ GPS ही एकमात्र नेविगेशन सिस्टम है. रूस के ग्लोनास और यूरोप के गलीलियो भी ऐसे ही सिस्टम हैं. चाइना के पास बीडाउ है. लेकिन अमेरिका की तुलना में इनके सैटेलाइट की संख्या कम है.

सबसे पहले तो भारत की अमेरिकी GPS पर निर्भरता कम हो जाएगी. अमेरिकी GPS संकेतों से अभी हम फर्स्ट डिवीजन में ही पास होते हैं. मतलब इसकी सटीकता भारत में लगभग 60-70% प्रतिशत है. (NavIC) से हम टॉप करने लगेंगे. मतलब संकेतों की एक्यूरेसी 90-95% तक हो जाएगी. NavIC एक बहुत उन्नत किस्म का नेविगेशन सिस्टम है, जो पांच मीटर की दूरी से भी सटीक जानकारी हासिल कर सकता है.
जहां GPS में सिर्फ एक ही फ्रीक्वेंसी होती है, वहीं नाविक डुअल फ्रीक्वेंसी (L5 और S ) से लैस है. इससे आस-पड़ोस के देशों को GPS सुविधा दी जा सकती है जिससे पड़ोसी देशों को मौसम संबंधी पूर्वानुमान, मैंपिग जैसी सुविधाएँ देकर सरकार को आय हो सकती है. इसके अलावा आपदाओं के समय मलबे में दबे लोगों का पता लगाया जा सकता है. कहने का मतलब फ़ायदों की लिस्ट लंबी है.
अभी दिक्कत क्या है?ऐसा नहीं है कि अभी कोई मोबाइल कंपनी इसका इस्तेमाल नहीं करती. फरवरी 2020 में रियलमी ने अपना स्मार्टफोन Realme X50 Pro 5G पेश किया, जिसमें (NavIC) लगा हुआ है. iQOO 3, Realme 6 Series, Redmi Note 9 Series में भी इसका सपोर्ट मिलता है.
क्वॉलकॉम चिपसेट के कई मॉडल में इसको इनेबल किया जा सकता है. लेकिन सबसे बड़ी दिक्कत हार्डवेयर और सॉफ्टवेयर में बदलाव करने की है, क्योंकि अभी ज्यादातर प्रोग्रामिंग GPS के हिसाब से होती है. टेक कंपनियों ने भी इसके बारे में सरकार को बताया है. विभिन्न एप्लीकेशन में NavIC के उपयोग को ले कर प्रयोग तो हो रहे हैं, लेकिन बाज़ार में इसके पूरी तरह सक्रिय होने में टाइम है.
इधर, GPS सैटेलाइट में परमाणु घड़ियों (Rubidium Clocks) का इस्तेमाल होता है. यह घड़ी एक सेकेंड के 10 करोड़वें हिस्से की गणना करने की क्षमता रखती है और समय की इतनी सही गणना कई जगहों पर बेहद ज़रूरी हो जाती है. ऐसी ही तीन परमाणु घड़ियों के काम नहीं करने की वजह से IRNSS-1- का एक उपग्रह निष्प्रभावी हो गया था. देखने वाली बात ये होगी कि सरकार के इस कदम को स्मार्टफोन दिग्गज कैसे लेंगे.
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