BYJU के दिन बदतर चल रहे. ZestMoney और Purple Pay ने अपना काम समेट लिया है. लेकिन कहानी सिर्फ इन स्टार्ट-अप तक सीमित नहीं है. कई ऐसे और भी स्टार्ट-अप हैं जो या तो बंद हो गए या फिर उन्होंने अपना कारोबार बदल लिया. अंग्रेजी में इसको Pivot कहते हैं. ये स्टार्ट-अप इंडिया के एक बहुत बड़े मार्केट को कवर करने का सपना लेकर शुरू किए गए थे. मोटा-माटी 500 बिलियन डॉलर मतलब साढ़े 41 लाख करोड़ रुपये से भी ज्यादा. इतना ही नहीं, ऐसे कई स्टार्ट-अप ने देश के सबसे जरूरी, एक तरह से रीढ़ की हड्डी माने जाने वाले बिजनेस को डिजिटल बनाने का ख्वाब देखा, मगर असफल रहे.
Khatabook, OkCredit जैसे किराना स्टार्ट-अप हांफ क्यों रहे हैं? एक में तो धोनी का निवेश
हम बात कर रहे हैं देश के किराना बाजार के लिए ऐप बनाने वाले स्टार्ट-अप की. मसलन खाताबुक (Khatabook), पगार बुक (PagarBook), दुकान और ओके क्रेडिट (OkCredit) जैसे ऐप्स की. इन्होंने देश के सबसे जरूरी बिजनेस को डिजिटल बनाने का ख्वाब देखा, मगर असफल रहे.

हम बात कर रहे हैं देश के किराना बाजार के लिए ऐप बनाने वाले स्टार्ट-अप्स की. मसलन खाताबुक (Khatabook), पगार बुक (PagarBook), दुकान और ओके क्रेडिट (OkCredit) जैसे ऐप्स की. तकनीक की भाषा में कहें तो किरानाटेक (Kirana Tech). जैसे फिनटेक और Edutech होता है. गौर करने वाली बात ये है कि ऐसे ज्यादातर स्टार्ट-अप को तगड़ी फंडिंग मिली. माने कि इनके असफल होने का कारण पैसे और संसाधनों की कमी होना तो बिल्कुल नहीं था. उदाहरण के लिए भारतीय क्रिकेट टीम के पूर्व कप्तान महेंद्र सिंह धोनी ने जहां खाताबुक में इन्वेस्ट किया, तो कालीन भईया यानी पंकज त्रिपाठी से लेकर अक्षय कुमार तक इनके ब्रांड एंबेसडर हुआ करते थे. फिर क्या हुआ? वजह जानने के लिए पहले इन ऐप्स का बिजनेस मॉडल समझते हैं.
भारत का किराना मॉडलअब ये बात तो किसी से छिपी नहीं है कि पड़ोस की परचून शॉप से लेकर शहर की सबसे पुरानी किराना दुकान तक के काम करने का तरीका लगभग एक जैसा होता है. सब कुछ पारंपरिक. सारा हिसाब-किताब तेल से सनी डायरी और रस्सी से बंधे बिना ढक्कन वाले पैन के जरिए होता है. जितना माल आया और जितना ग्राहकों को गया, सब कागज पर दर्ज. राइटिंग ऐसी की एक बार को '007' भी समझ नहीं पाए. हां दुकान का मालिक सब पढ़ लेता है और महीने के आखिर में बता भी देता है कि कितनी उधारी हुई.

वैसे जरूरत तो नहीं, फिर भी बता देते हैं कि हिसाब चाहे चंद रुपयों का हो या फिर हजारों का, ज्यादातर दुकानदारों को इसके लिए कैलकुलेटर की भी जरूरत नहीं. हाथो की उंगलिया काफी हैं. सब चंगा सी. दुकान वाले चचा से लेकर हम सब खुश.
कुछ सालों पहले जब देश डिजिटल होने की तरफ कदम बढ़ा रहा था, तभी ऐसी ही तेल वाली डायरी पर नजर पड़ी डेवलपर्स की. नतीजा, जन्म हुआ ऊपर बताए स्टार्ट-अप का. काम डायरी की जगह स्मार्टफोन और उसमें इंस्टॉल कंपनी का ऐप. बिल की पर्ची काटने से लेकर आवन-जावन (खरीदी-बिक्री) के लिए बढ़िया सी एक्सल शीट भी उपलब्ध थी. एसएमएस से ऑर्डर करने और पेमेंट का तकादा करने के लिए नोटिफिकेशन का भी जुगाड़ था. इतना ही नहीं, कर्मचारियों की पगार का लेखा-जोखा रखने, उनकी हाजिरी भरने का भी प्रबंध था.
सब ‘हरा सावन' जैसा लग रहा था. फिर भी ये स्टार्ट-अप असफल हो गए तो इसकी सबसे बड़ी वजह बनी किराना मार्केट का मार्जिन. मोहल्ले की किराना दुकानें बहुत कम मुनाफे पर काम करती हैं. ऐसे में उनके लिए इन ऐप्स को पैसे देना संभव था ही नहीं. दूसरी वजह, आदत. मतलब मुड़े-टुड़े कागज पर लिखने की आदत जाने का नाम ही नहीं लेती. ज्यादा दूर नहीं जाते. दिल्ली शहर की एक फेमस छोले-भटूरे की दुकान, जो दिन के 800-1000 प्लेट बेचती है, आज भी पैसों का हिसाब जमीन पर बिछी दरी के नीचे रखती है. कहने का मतलब लोग अपने पुराने तरीके से खुश हैं.
यहां हमारे वरिष्ठ साथी और फाइनेंस को करीब से कवर करने वाले सिद्धांत मोहन का ट्वीट याद आ गया.
सीधा कहें तो देश का सबसे अव्यवस्थित मार्केट असल में पूरी तरीके से व्यवस्थित है. परचून वाले भैया पैसा खर्चने को तैयार नहीं और ऐप्स को अपने ऑपरेशन रन करने के लिए चाहिए मोटी पूंजी. नतीजा, जहां खाताबुक उधारी (कर्ज) के बिजनेस में उतर गया है तो ओके क्रेडिट अपने लिए कोई खरीददार ढूंढ रहा. बाकी ऐप्स की हालत भी अच्छी नहीं.
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