इसी पृष्ठभूमि में भारत 1986 की गर्मियों में इंग्लैंड दौरे पर गया. पहली मुश्किल तो दौरा शुरु होने के पहले ही सामने थी. माना जाता है कि इंग्लैंड में सीज़न के पहले हाफ में खेलना हमेशा ज़्यादा मुश्किल होता है, खासकर भारतीय उपमहाद्वीप की टीमों के लिए. हवाएं ठंडी होती हैं, आसमान पर बादल और बॉल की स्विंग ज़्यादा.
मौसम का सर्दपन ऐसा कि गर्म प्रदेशों के खिलाड़ियों के तो सुबह वाले सेशन में जेब से हाथ ही नहीं निकलते. ऐसे में मई-जून में दौरे पर आने वाली टीम हमेशा जुलाई-अगस्त में दौरा करनेवाली दूसरी टीम के बदले नुकसान में रहती है.
इसीलिए जब भारतीय बोर्ड ने पहले हाफ़ में दौरे का प्रस्ताव चुना, इसे इंग्लैंड की जमीन पर भारतीय टीम की एक और व्हाइटवाश की तैयारी माना गया. लेकिन इस भारतीय टीम के इरादे कुछ और थे. मिथकीय 1983 अब उसके पीछे था. ये वो टीम थी जिसने जीत का स्वाद चख लिया था. अबकी बार टेस्ट के पहले वनडे सीरीज़ हुई, और भारत ने उसे जीतकर फिर अपनी फॉर्म का इशारा दिया. लेकिन असली जवाब टेस्ट के मैदान पर दिए जाने थे.
फिर आया लॉर्ड्स...
5 जून 1986. आसमान पर बादल थे और भारत के कप्तान कपिल ने टॉस जीतकर इंग्लैंड को बल्लेबाज़ी के लिए बुलाया. खेल की शुरुआत सनसनीखेज थी और बीस साल के युवा गेंदबाज़ चेतन शर्मा ने इंग्लैंड के तीन धुरंधर बल्लेबाज़ों गॉवर, गैटिंग और लैंब को ग्यारह गेंदों के अंतराल में पॉवेलियन पहुंचा दिया. लेकिन ग्राहम गूच जम गए. उनका सैकड़ा टीम को दिन का खेल खत्म होने तक 245 पर ले गया. दिन का खेल खत्म होने को ही था, लेकिन चेतन शर्मा का रोल अभी खत्म नहीं हुआ था. वे फिर बॉलिंग पर आए और घूमती इनस्विंगर से शतकीय बल्लेबाज़ के कीले उड़ा दिए.
चेतन शर्मा के पहली पारी में आंकड़े 32 ओवर में 64 रन देकर 5 विकेट थे. उन्होंने लॉर्ड्स के ऑनर बोर्ड पर अपना नाम लिखाया. याद रखिए, बस दो महीने ही हुए थे मियांदाद के उस शारजाह वाले छक्के को, जिसने चेतन शर्मा को भारतीय क्रिकेट का विलेन बनाया था. लेकिन यहां युवा तेज़ गेंदबाज़ शर्मा हमें याद दिला रहे थे कि चंद पलों से पूरी ज़िन्दगी का हिसाब नहीं होता. टेस्ट मैच की तरह, ज़िन्दगी भी जीतने का दूसरा मौका देती है.
लॉर्ड्स का शतक हर बल्लेबाज़ के हिस्से में नहीं होता, चाहे उसकी महानता कितनी ही बड़ी हो. गावस्कर उन्हीं में से एक थे, जिनकी लॉर्ड्स पर एक और पारी निराशा में खत्म हुई. लेकिन लॉर्ड्स के कर्नल ने अपनी टीम को निराश नहीं किया. क्रिकेट के मक्का पर दिलीप वेंगसरकर की तीसरी शतकीय पारी ने भारत को पहली इंनिग्स की लीड दिलाई.
10 जून, 1986. आखिर वो तारीख़ आई, जिसे इतिहास में दर्ज होना था. एक दिन पहले सोमवार की सुबह कपिल देव की स्विंग ने उन्नीस गेंदों में गूच, रॉबिनसन और कप्तान गॉवर को आउट कर जो उम्मीद की सुबह रची थी, उन्होंने ही उसे खेल के आखिरी दिन एडमंड के ओवर में 18 रन मारकर जीत के उजले दिन में बदल दिया.
धोनी से भी पहले वो कपिल देव निखंज थे, जिन्होंने मिड विकेट के ऊपर छक्का मारकर भारतीय क्रिकेट इतिहास की सबसे फेमस जीत हासिल की थी. कपिल विश्व विजेता कप्तान थे, लेकिन उनकी ये कप्तान के तौर पर पहली टेस्ट विजय थी. भारत ने सीरीज़ 2-0 से जीती. यह भारत की इंग्लैंड में सिर्फ़ दूसरी सीरीज़ जीत थी. यह भारतीय क्रिकेट का सुनहरा दौर था, जब खेल में कुछ सबसे चमकीली जीतें और सबसे धाकड़ खिलाड़ी मैदान पर देखे गए.
भारतीय खिलाड़ियों ने यह साबित कर दिया था कि आकाओं की नज़र में 'बंदर' अब अपनी कहानी खुद लिखेंगें. जीत की कहानी.
1999 के वर्ल्ड कप में सचिन के आउट होने की इतनी खुशी थी कि पाक संसद जश्न मना रहा था