अस्सी-नब्बे के दशक में गुर्जर राजनीति में दो नेता उभर रहे थे. राजेश पायलट और महेंद्र सिंह भाटी. राजेश पायलट का नाम केंद्र की राजनीति में थे. देश में उनको जाना जाने लगा था. महेंद्र सिंह भाट क्षेत्र के नेता थे. चौपालों पर लोग महेंद्र सिंह भाटी को राजेश पायलट से बड़ा गुर्जर नेता मानते थे. लोग क्लेम यहां तक करते थे कि राजेश पायलट भी इस बात को मानते थे कि गुर्जरों में भाटी ज्यादा लोकप्रिय थे. क्लेम तो यहां तक होता है कि राजेश पायलट ने महेंद्र सिंह भाटी को कांग्रेस में आने का न्यौता भी दिया था. लेकिन महेंद्र विश्वनाथ प्रताप सिंह, शरद यादव, अजीत सिंह और रामविलास पासवान के बहुत करीबी थे, इसलिए उन्होंने ये न्यौता स्वीकार नहीं किया.
राजेश पायलट
देश की राजनीति का सीधा असर पड़ा यहां की राजनीति पर
किसानों में महेंद्र भाटी काफी लोकप्रिय नेता थे. वो तीन बार विधायक रहे थे. नोएडा, ग्रेटर नोएडा प्राधिकरण के खिलाफ उन्होंने जमीन अधिग्रहण के विरोध में बहुत सक्रिय रहे थे. लोग कहते हैं कि इस क्षेत्र में लगने वाली फैक्ट्रियों में गांवों के हजारों बेरोजगार लोगों को उन्होंने नौकरी दिलवाई थी. अपने रसूख में वो नये-नये लोगों को अपने साथ ले आते थे. उसी दौरान डी पी यादव शराब के व्यापार के साथ राजनीति में आने की कोशिश कर रहे थे. 90 के दशक में जहरीली शराब से लगभग 350 लोगों की मौत हो गई थी. इसमें यादव भी फंसे थे. तो राजनीति में आना जरूरी हो गया था.डी पी यादव
महेंद्र सिंह भाटी से डी पी यादव की यारी हो गई. यादव भाटी को अपना राजनैतिक गुरु मानने लगे. दोनों एक-दूसरे के बहुत करीब थे. भाटी ने 1988 में डी पी यादव को बिसरख ब्लॉक का प्रमुख बनवा दिया. 1989 में महेंद्र सिंह भाटी ने अपने करीबी नरेंद्र भाटी को सिकंदराबाद से और डी पी यादव को बुलंदशहर से विधायक का टिकट दिलवाया. भाटी खुद दादरी विधानसभा से चुनाव लड़ रहे थे. तीनों जीत भी गये. पर देश में राजनीति बदल रही थी. इसका प्रभाव इनकी यारी पर भी पड़ा.
लोकसभा और यूपी विधानसभा के चुनाव आस-पास ही हुए थे. जनता दल (नेशनल फ्रंट) के नेता वी पी सिंह 2 दिसंबर 1989 को देश के प्रधानमंत्री बने. ठीक तीन दिन बाद 5 दिसंबर 1989 को मुलायम पहली बार यूपी के सीएम चुने गए. वी पी चौधरी चरण सिंह के बेटे अजित सिंह को मुख्यमंत्री बनाना चाहते थे, पर मुलायम ने चिमनभाई पटेल को अपने नाम पर मना लिया. बाद में जनता दल के समर्थन वापस लेने की वजह से केंद्र में वीपी सिंह की सरकार गिर गई.
वी पी सिंह
लेकिन यूपी में जनता दल का साथ छूटने के बावजूद मुलायम की गद्दी सुरक्षित रही. क्योंकि मुलायम ने पैंतरा बदल लिया था. चंद्रशेखर की पार्टी के साथ हो लिये थे. तो दिल्ली में समाजवादी जनता पार्टी ने कांग्रेस के साथ मिलकर सरकार बनाई और चंद्रशेखर प्रधानमंत्री बने. मुलायम कांग्रेस के समर्थन से यूपी के सीएम बने रहे.
अजित सिंह
मुलायम सिंह यादव और अजित सिंह में लाइन खिंच चुकी थी. और यहीं पर डी पी यादव और महेंद्र सिंह भाटी के रास्ते भी अलग हो गये. डी पी यादव मुलायम के साथ चले गये. महेंद्र सिंह भाटी अजित सिंह के साथ चले गए. इसी दौरान गाजियाबाद के लोनी क्षेत्र में महेंद्र फौजी और सतवीर गुर्जर की गैंगवार चल रही थी. डीपी यादव ने महेंद्र फौजी से करीबी रिश्ते बना लिए. वहीं सतवीर गुर्जर महेंद्र भाटी की शरण में आ गया. डी पी का रसूख बढ़ता गया. वो मुलायम के मंत्रिमंडल में मंत्री भी बन गये. पर दादरी में अभी भी महेंद्र सिंह भाटी की चलती थी. डी पी इस पूरे इलाके पर अपना कब्जा चाहते थे. पॉलिटिकल कब्जा.
गैंगवार से हुई शुरूआत, फिर राजनैतिक गुरु की हत्या का प्लान बना
1991 के विधानसभा चुनाव में महेंद्र सिंह भाटी ने बुलंदशहर से डीपी यादव के सामने पतवाड़ी गांव के प्रकाश पहलवान को जनता दल के टिकट पर चुनाव लड़वाया. चुनाव संगीन हुआ थी. इस चुनाव में जमकर गोलीबारी हुई थी. इसमें दोनों तरफ से छह-सात लोग मारे गए थे. डीपी यादव चुनाव हारते-हारते बचा था. यहीं से दुश्मनी और बढ़ गई. तो कहते हैं कि डी पी ने तय कर लिया कि अपने राजनैतिक गुरु को पॉलिटिक्स से हटाये बगैर काम नहीं चलेगा.
अप्रैल, 1991 में महेंद्र सिंह भाटी के छोटे भाई राजवीर सिंह भाटी की दादरी रेलवे रोड पर हत्या कर दी गई. इसमें महेंद्र फौजी और डीपी यादव के साले परमानंद यादव का नाम सामने आया. इनके खिलाफ मामला दर्ज हुआ. इसके बाद दोनों गुटों में जम के गैंगवार होने लगा. डीपी यादव के कई करीबी लोगों की हत्या हुई. इसमें सतवीर गुर्जर का नाम आया था.
इसके बाद फरवरी 1992 को गाजियाबाद के भाजपा जिलाध्यक्ष प्रवीण भाटी की बरौला में सड़क हादसे में मौत हुई. दो ट्रकों के बीच टक्कर से प्रवीण भाटी के मरने पर परिजनों को शक था कि महेंद्र भाटी ने हादसे का रूप देकर हत्या कराई है. उसके चलते ही परिवार के लोग डीपी यादव से मिल गए.
कहा जाता है कि तय हुआ कि जड़ ही काट दी जाए. रोज-रोज का टंटा कौन रखेगा. चुनाव लड़ने के लिए पब्लिक की जरूरत तो है नहीं. विरोधियों को ही निपटा दिया जाये. ये नये भारत की तस्वीर थी.13 सितंबर, 1992 को दादरी विधानसभा के विधायक महेंद्र सिंह भाटी कुछ लोगों के संग अपने घर पर बैठे थे. शाम के करीब साढ़े छह बजे इंस्पेक्टर तिवारी का फोन आया, जिन्होंने उन्हें भंगेल बुलाया. गंभीर बात लग रही थी. तो महेंद्र सिंह गनर कौशिक और ड्राइवर देवेंद्र के साथ कार से निकल पड़े. रास्ते में उन्होंने दोस्त उदय प्रकाश आर्य को भी साथ ले लिया. जबकि भाटी के भाई अनिल भाटी अपने दोस्त धनवीर के साथ बाइक पर कार के पीछे चल रहे थे.
भंगेल रोड पर रेलवे फाटक बंद होने के कारण उनकी कार रुक गई. जब फाटक खुला तो सामने दो कारें खड़ी थीं. दरवाजा खोले हुए. महेंद्र सिंह भाटी को अनुमान हो गया कि कुछ होने वाला है. पर संभलने का मौका नहीं मिला. क्योंकि कार वाले इरादा बनाकर आये थे. कुछ सोचना नहीं था. ताबड़तोड़ फायरिंग होने लगी. विधायक महेंद्र और उदय प्रकाश की मौके पर ही मौत हो गई. गनर गोली लगने से घायल हो गया था. जबकि चालक देवेंद्र बचकर भाग निकला था.
हत्या की शंका थी, महेंद्र सिंह भाटी ने विधानसभा में मुद्दा उठाया था
महेंद्र सिंह भाटी को अपने खिलाफ चल रही साजिश का पता चल गया था. उन्होंने जून 1992 में विधान सभा सत्र में लिखित सवाल करते हुए कहा था कि राजनीतिक कारणों से उनकी हत्या हो सकती है. पुलिस, प्रशासन उन्हें सुरक्षा मुहैया नहीं करा रहा है. सुरक्षा नहीं मिली तो अगले सत्र में मेरी शोकसभा होगी. इसके बाद भी कल्याण सिंह सरकार ने उन्हें सुरक्षा मुहैया नहीं कराई थी. तीन माह बाद उनकी हत्या हो गई.फिर आरोप दाखिल हुए. आरोप लगा प्रवीण के पिता तेजपाल भाटी, उसके भाई प्रणीत भाटी, लक्कड़पाला, करण यादव और डीपी यादव पर. अगस्त, 1993 में तत्कालीन राज्य सरकार की सिफारिश पर मामले की जांच सीबीआई को दी गई थी. सीबीआई ने इनके खिलाफ चार्जशीट फाइल कर दी. केस चलता रहा. 2000 में सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर ये केस सीबीआई देहरादून को ट्रांसफर कर दिया गया. क्योंकि आरोप लग रहा था कि अगर यूपी में ट्रायल होंगे तो डी पी यादव अपने रसूख का इस्तेमाल कर बच जाएगा.
28 फरवरी 2015 को सीबीआई के विशेष न्यायाधीश अमित कुमार सिरोही की अदालत ने डी पी यादव को उम्रकैद की सजा सुनाई. इनके साथ ही चार और को भी उम्रकैद मिली. अभियुक्तों पर कुल तीन लाख 90 हजार रुपये का फाइन भी लगाया गया. महेंद्र सिंह भाटी के बेटे समीर भाटी ने इस फैसले पर खुशी जताई थी. कहा कि देर से ही सही, फैसला हुआ तो.
आज तक से साभार
सतवीर गुर्जर और महेंद्र फौजी अलग-अलग एनकाउंटर में मारे गये थे.
बेटे समीर भाटी तलाश रहे हैं जमीन, पर सपा यहां अब तक जीत नहीं पाई है
महेंद्र सिंह भाटी की हत्या के बाद गुर्जर राजनीति पूरी तरह राजेश पायलट के इर्द-गिर्द घूमने लगी थी. हालांकि 2000 में राजेश पायलट की भी सड़क हादसे में मौत हो गई थी. इसके बाद कई गुर्जर नेता निकले. महेंद्र भाटी और राजेश पायलट की मौत के बाद कई गुर्जर नेताओं ने चुनाव लड़ा. सांसद, विधायक बनने के बाद मंत्री भी बने, पर गुर्जर नेता का रुतबा कोई हासिल नहीं कर पाया.महेंद्र सिंह भाटी के बेटे समीर भाटी ने सबसे पहले 1993 में जनता दल के टिकट पर दादरी से चुनाव लड़ा. इसमें वो जीत गये थे. फिर 1996 में सपा, 2002 में निर्दलीय और 2007 में रालोद से लड़े थे. तीनों में ही हारे थे. समीर भाटी 2012 में कांग्रेस से लड़े थे. पर तीसरे नंबर पर रहे थे. समीर भाटी निर्दलीय चुनाव लड़कर भी हर बार पच्चीस से तीस हजार वोट हासिल करते हैं. दो लाख मतदाता हैं इस विधानसभा में. एक लाख गुर्जर हैं. तो गुर्जर वोटों का भरोसा रहता है. इस बार कांग्रेस ने अभी तक क्लियर नहीं किया है. सपा के साथ गठबंधन के लिए रुकी हुई है. कुछ कहा नहीं जा सकता कि समीर को टिकट मिलेगा कि नहीं. दादरी से वर्तमान विधायक सतबीर गुर्जर हैं. ये बसपा के टिकट पर आये थे. 2017 में भी इसे बसपा से टिकट मिल गया है. सपा दादरी से कभी नहीं जीती है. इस बार सपा-कांग्रेस ने समीर को ही टिकट दिया है.