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यूपी का वो आदमी जिसके कंधे पर बंदूक रख अखिलेश यादव हीरो बन गए

शराब से लेकर खून तक फैला था ये व्यापार.

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2012 में सपा की इमेज गुंडई वाली पार्टी की थी. हालांकि आज भी इमेज बरकरार है. पर अखिलेश यादव इस इमेज से मुक्त हैं. अखिलेश की मुक्ति शुरू हुई 2012 के टिकट बंटवारे से. आपराधिक बैकग्राउंड वाले नेता डी पी यादव को अखिलेश ने टिकट नहीं दिया. इसके बाद अचानक से वो लोगों की नजरों में आ गये. सबको लगने लगा कि अखिलेश के रूप में एक ऐसा नेता आया है जो प्रदेश में गुंडई मिटाने को लेकर सीरियस है. वही मुद्दा अखिलेश ने 2017 के चुनाव में भी उठाया है. मुख्तार अंसारी की पार्टी के सपा में विलय को लेकर अखिलेश ने जो बगावत की कि पार्टी ही टूट के कगार पर पहुंच गई. हालांकि राजा भैया के नाम पर अखिलेश की चुप्पी ने किसी तरह का हंगामा खड़ा नहीं किया.
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अखिलेश यादव और मुलायम सिंह यादव

पर कौन हैं ये डी पी यादव जिनको टिकट ना देना अखिलेश का एचीवमेंट बन गया?

कहानी है कि नोएडा सेक्टर 18 के पास के एक गांव शरफाबाद में धर्मपाल यादव नाम का एक आदमी रहता था. जगदीश नगर में डेयरी चलाता. साइकिल से दूध दिल्ली ले जाता. दूध बेचते-बेचते ये आदमी 70 के दशक में शराब माफिया बाबू किशन लाल के संपर्क में आया. शराब का व्यापार ईमानदारी से नहीं होता. हिंदुस्तान में इस व्यवसाय को ही नफरत से देखा जाता है. बेचने वाले भी कोई नियम-कानून नहीं मानना चाहते. शराब की बिक्री के अलावा अवैध रूप से बनाई भी जाती थी शराब. तस्करी भी होती थी.
कहते हैं कि किशन लाल की तस्करी में धर्मपाल भी शामिल हो गया. जोधपुर से कच्ची शराब आती थी. पैकिंग के बाद अपना लेबल लगाकर उसे बेचा जाता था. शराब के धंधे में सब कुछ फटाफट होता है. वक्त नहीं होता ज्यादा बात करने का. कब टारगेट पूरा करना पड़ जाए और कब छाप पड़ जाए, कोई नहीं जानता. इसी जल्दबाजी में धर्मपाल यादव डी पी यादव बन गये. डी पी कहने से पर्सनैलिटी में ग्लैमर भी आ गया था. अब वो साइकिल वाला धर्मपाल नहीं रह गया था.
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डी पी यादव

शराब का व्यापार अपराध अपने साथ ले के आता है. जब मुनाफे की बात हो जाती है, तब ये अपराध दुगुना बढ़ जाता है. आरोप है कि 1990 के आसपास कच्ची शराब पीने से हरियाणा में लगभग 350 लोग मर गये. हरियाणा पुलिस ने डी पी यादव के खिलाफ चार्जशीट भी दाखिल की. पर उनको सजा नहीं हो पाई. निकल गये वो. क्योंकि इस व्यापार से वो राजनीति के संपर्क में आ चुके थे. इनके पास पैसा था, नेताओं के पास पावर. अपराध और राजनीति का घालमेल होने लगा था.

राजनीति में शराब लेकर आये डी पी यादव

इससे पहले 80 के दशक में कांग्रेस के बलराम सिंह यादव ने डी पी को गाजियाबाद जिले में कांग्रेस पिछड़ा वर्ग का अध्यक्ष बना राजनीति की मलाई दिखाई थी. पर दादरी के विधायक महेंद्र सिंह भाटी उनको पूरी तरह से राजनीति में लाये. डी पी बिसरख से ब्लॉक प्रमुख बने. और जाति के आधार पर अपना रसूख बढ़ाते गये. इतना कि बुलंदशहर से विधानसभा पहुंचे और मुलायम के मंत्रिमंडल में पंचायती राज मंत्री बने.
कहा जाता है कि पार्टी बनाने के बाद मुलायम सिंह यादव को धनी लोगों की जरूरत थी. डीपी को मंच चाहिए था और मुलायम को पैसा. तो दोनों का आसानी से मिलन हो गया. मुलायम सिंह यादव ने डीपी को बुलंदशहर से टिकट दिया. वो धनबल और बाहुबल का दुरुपयोग कर आराम से जीत गये.
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मुलायम सिंह यादव और अमर सिंह

फिर साल 1991 में डी पी के खिलाफ एनएसए के तहत कार्रवाई भी हुई. पर डी पी का कुछ बिगड़ा नहीं. तब तक वो महेंद्र भाटी से अलग होकर मुलायम के खेमे में चला गये थे. महेंद्र भाटी अजीत सिंह के खेमे में थे. डी पी को पूरा इलाका चाहिए था. इसके लिए महेंद्र का सामने से हटना जरूरी था. उन्होंने 1992 में अपने राजनैतिक गुरू महेंद्र सिंह भाटी की हत्या करा दी. फिर तो लाइन लग गई. डी पी पर नौ हत्या, तीन अटेंम्प्ट टू मर्डर, दो डकैती, अपहरण औऱ फिरौती के मामले दर्ज हुए. टाडा और गैंगस्टर एक्ट के तहत भी कार्रवाई हुई. 2015 में कोर्ट से उसे आजीवन कारावास की सजा हुई.
एक वक्त था कि डी पी को सिनेमा में काम करने का बड़ा शौक था. अक्सर वो ट्रेन पकड़ के मुंबई चले जाते थे. पर बाद में अपना बिजनेस खड़ा कर लिये. शराब से शुरू कर शुगर मिल, पेपर मिल, होटल, रिसॉर्ट, टीवी चैनल, स्कूल, कॉलेज, खदान और कंस्ट्रक्शन के काम में भी हाथ डाला.

फिर मुलायम से हुआ बिगाड़, तब सपा को भी दी चुनौती

कहा जाता है कि मुलायम सिंह यादव के करीबियों और पार्टी के खास नेताओं को डीपी यादव आए दिन कीमती तोहफे भेजते थे. इतना रसूख हो गया था कि कुछ भी करवा लेते. अपने ही डिक्लेरेशन के मुताबिक वो उत्तर प्रदेश का सबसे धनी नेता बन गये थे. एक बार उन्होंने अपनी संपत्ति डिक्लेयर की तो ये कुल 5 हजार करोड़ की थी.
पर इससे मुलायम की छवि ज्यादा खराब होने लगी. साथ ही पार्टी पर डी पी का प्रभाव बढ़ने लगा. डीपी यादव पार्टी पर हावी होते, उससे पहले मुलायम सिंह यादव ने डीपी से ही किनारा कर लिया. मुलायम से बिगाड़ हो गया. इतना हुआ कि डी पी मुलायम के खिलाफ ही लोकसभा का चुनाव लड़ने पहुंच गये. पर हार गये. बाद में रामगोपाल के खिलाफ खड़े हुए और फिर से हारे.
लोकसभा की वेबसाइट पर उनकी जो प्रोफाइल थी, उसमें वो स्वतंत्रता सेनानियों के परिवार से आते हैं. बीएचयू से पढ़े हैं. इन्होंने एक फिल्म भी प्रोड्यूस की है. आकांक्षा. इसमें काम भी किया था. पूरा यूरोप घूम चुके हैं. राज्यसभा की वेबसाइट पर इनके बारे में लिखा था कि ये नेशनल वॉलीबॉल औऱ कबड्डी का प्लेयर रह चुके हैं. वो अखिल भारतीय यादव समाज सुधार सभा का प्रेसिडेंट भी रह चुके हैं.
वह खुद बड़े गर्व के साथ कहते थे कि उन्होंनेकभी किसी दल में शामिल होने के लिए अर्जी नहीं दी. तमाम दलों के नेता खुद उनको अपने यहां लाने के लिए उत्सुक रहते हैं. किसी हद तक यह बात सही भी लगती है. डीपी यादव को उनके सहयोगी मंत्री जी कह कर पुकारते हैं. मंत्री जी कहलाना उनको पसंद भी है.

डी पी यादव की राजनीतिक यात्रा कुछ यूं है

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डी पी यादव
1. 1993 में वो बुलंदशहर से सपा के टिकट से विधायक बने. 1991 से 1992 तक वो सपा के जनरल सेक्रेटरी रहे.
 2. बाद में वो बसपा में आ गये. इसी पार्टी से 1996 में संभल से लोकसभा पहुंचे. फिर 1998 में स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में राज्यसभा भी पहुंच गये.
3. 2004 में डी पी भाजपा के साथ आये. राज्यसभा से सांसद बन गये. पर आलोचना का शिकार होने के बाद भाजपा ने कुछ ही दिनों में उनकी छुट्टी कर दी.
4. 2007 में उसने राष्ट्रीय परिवर्तन दल बनाया. इसके दो सदस्यों ने विधानसभा चुनाव जीत भी लिया. जिनमें से सहसवान विधानसभा से वह खुद थे. बिसौली से उनकी पत्नी उमलेश यादव ने जीत दर्ज की. हालांकि अक्टूबर 2011 में चुनाव खर्च का ब्यौरा न देने के चलते चुनाव आयोग ने उनकी पत्नी की सदस्यता रद्द कर दी. उनके प्रतिद्वंदी प्रत्याशी योगेन्द्र कुमार गर्ग उर्फ कुन्नू बाबू ने बिंदुवार शिकायत कर उनके निर्वाचन को आयोग में चुनौती दी थी. अजीब बात यह है कि उमलेश यादव कागजी प्रमाण के मुताबिक डी पी यादव उर्फ धर्मपाल यादव की पत्नी नहीं हैं. क्योंकि 1989 में ही गाजियाबाद के सीजेएम न्यायालय से दोनों का तलाक हो चुका है. 
5. 2009 में वो मायावती की बहुजन समाज पार्टी में शामिल हो गये और लोकसभा का चुनाव लड़े. मुलायम सिंह यादव के भतीजे धर्मेन्द्र यादव के विरुद्ध बदायूं लोकसभा क्षेत्र से. पर हार गये.
6. उन्होंने 2012 में यूपी विधानसभा चुनाव से ठीक पहले बसपा छोड़ दी. डीपी ने सपा में फिर से शामिल होने के लिए हाथ-पैर मारे लेकिन अखिलेश यादव ने डीपी यादव को पार्टी में लेने से इंकार कर दिया. वह 2012 के चुनाव में अपनी पार्टी से चुनाव लड़े लेकिन हार गये.  2012 के विधानसभा चुनावों में उनकी पार्टी को एक भी सीट नहीं मिली.
7. 2014 को लोकसभा चुनावों में वो संभल से खड़ा हुए पर हार गये. अक्टूबर 2014 में भाजपा के नेशनल प्रेसिडेंट अमित शाह के साथ उन्होंने स्टेज शेयर किया था हरियाणा में. इसके बाद बवाल मच गया था.
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डी पी यादव और अमित शाह
पर रसूख इतना था कि अपने भतीजे जितेंद्र यादव को एमएलसी बना दिया. इतना ही नहीं साले भारत सिंह यादव की पत्नी पूनम यादव को जिला पंचायत अध्यक्ष की कुर्सी पर आसीन करा दिया.
जब अखिलेश ने डी पी को टिकट नहीं दिया तो वाहवाही खूब हुई. पर डी पी ने सपा को बदायूं में मात दे दी. डी पी यादव के साले की बीवी जिला पंचायत बदायूं की अध्यक्ष बन गईं. सपा इनके खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लेकर आई पर ये पारित नहीं हो सका. बदायूं सपा का किला है. मुलायम जब मुख्यमंत्री थे तो यहीं की गुन्नौर सीट से विधायक थे. इससे पहले वो यहीं की सहसवान सीट से विधायक थे. राम गोपाल संभल से सांसद रहे हैं. वहां की दो विधानसभा सीटें बदायूं में आती हैं. धर्मेंद्र यादव वहीं से सांसद हैं.
अखिलेश यादव ने सरकार बनने के बाद पंचायतों की तरफ रुख किया. कोशिश थी कि राज्य में बसपा सरकार में बने जिला पंचायत अध्यक्षों को हटा दिया जाए. 29 को तो हटा भी दिया गया. बदायूं में डी पी यादव की रिश्तेदार पूनम यादव जिला पंचायत अध्यक्ष थीं. पर डी पी ने भी दिमाग लगाना शुरू किया. इतना तिकड़म लगाया कि सपा ने अविश्वास प्रस्ताव की डेट आगे बढ़ा दी. वजह बताई गई कि एक ही दिन में 12 जिला पंचायत सदस्यों का अपहरण हुआ है. पर जब अविश्वास प्रस्ताव पारित हुआ तो सपा के पसीने छूट गये. 41 जिला पंचायत सदस्यों में से मात्र 17 ने सपा के पक्ष में वोट किया.

नीतीश कटारा हत्याकांड इनके जीवन का टर्निंग पॉइंट बन गया

कल्याण सिंह के मुख्यमंत्री काल में डीपी यादव को रासुका के तहत गिरफ्तार किया गया था. तब वो बच गया थे. पर नीतीश कटारा हत्याकांड डीपी की जिंदगी का टर्निंग पॉइंट बन गया. बताया जाता है कि नीतीश कटारा और डीपी की बेटी भारती एक-दूसरे को चाहते थे और शादी करना चाहते थे. अभी घरवालों को ये बात पता नहीं थी, ऐसा ये लोग कहते हैं. तभी डीपी के बेटे विकास यादव ने भारती और नीतिश को गाजियाबाद में आयोजित एक फंक्शन में एक साथ देख लिया. विकास की नजर में ये अपराध था. क्योंकि पिताजी ने तो अपराध की परिभाषा ही बदल दी थी.
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नीतिश कटारा और भारती

17 फरवरी 2002 को नीतीश को अगवा करके खुर्जा इलाके में उसकी हत्या कर दी गयी. हत्या के दो दिन बाद नीतीश की अधजली लाश के टुकड़े पुलिस ने बरामद किए. पुलिस तफ्तीश में विकास यादव, विशाल यादव और सुखदेव पहलवान को आरोपी बनाया गया. 30 मई 2008 को विशाल, विकास और सुखदेव पहलवान को अदालत ने उम्रकैद की सजा सुनाई. इसमें नीतीश कटारा की मां की हिम्मत की दाद देनी पड़ेगी. तमाम मजबूरियों और धमकियों के बावजूद उस औरत ने लड़ाई जारी रखी.
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फिर 2015 में डीपी यादव को महेंद्र भाटी हत्याकांड में शामिल होने के कारण उम्रकैद की सजा सुनाई गई. इनका भांजा भी एक हत्या के मामले में जेल में है. फिलहाल डीपी यादव का छोटा बेटा कुणाल कारोबार संभाल रहा है.





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