एक कविता रोज़ - बद्री नारायण की कविताएं
घण्टी अभी बजी भी नहीं थी कि मृत्यु आ गयी सारे नीति, नियम तोड़/ पर इसमें उस बच्चे का क्या दोष था जिसकी आंखे अभी सपने भी नहीं देख पाई थी.
'मैं निपट अकेला कैसे बचाऊंगा तुम्हारा प्रेम-पत्र'. ये पंक्तियां प्रलय की भयावहता और और प्रेम की आवश्यकता को जतलाने के लिए अब तक की लिखी हुई सबसे सुन्दर पंक्तियों में से एक हैं. ना जाने कितनी-कितनी बार किन-किन सम-विषम परिस्थितियों में इन पंक्तियों को बारम्बार दोहराए जाने की आवश्यकता है. जब महामारी सिर पर हो और हमारे भीतर बैठा सारा प्रेम जैसे चाहता हो आकाश में उड़ना, जब हम मास्क रुपी सभी बंधनों को तोड़ते हुए चाहते हों अपने प्रियतम को चूम लेना; ठीक तभी हमें बद्री नारायण द्वारा लिखी इन पंक्तियों की याद आती है. बद्री नारायण बिहार के भोजपुर में पैदा हुए और फिलहाल उत्तर प्रदेश के गोविन्द बल्लभ पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान में पढ़ा रहे हैं. आज जब महामारी के दौर में हम निराशाओं से घिरे हैं और हमें एक-एक सांस की कीमत मालूम हो रही है, हम एक कविता रोज़ में आपको पढ़ाने जा रहे हैं बद्री नारायण की कुछ और कविताएं जो अभी की परिस्थिति को बिलकुल सटीक बयान करती हैं. पढ़िए बद्री नारायण की तीन कविताएं.
अकाल मृत्यु
घण्टी अभी बजी भी नहीं थी कि मृत्यु आ गयी सारे नीति, नियम तोड़ पर इसमें उस बच्चे का क्या दोष था जिसकी आंखे अभी सपने भी नहीं देख पाई थी. वह लड़की जो अभी प्रेम में पग रही थी उसकी गलती क्या थी. एक साहित्यकार जिसे अभी कई कहानियां लिखनी थी एक कवि जिसका नया संकलन अभी आया ही था एक गायक जिसने अभी-अभी नया राग बनाया था एक किसान जिसने अभी-अभी बेटे के नौकरी लगने के बाद अपना सारा कर्ज चुकाया था एक पिता जिसकी बेटी की शादी तय थी उसकी क्या गलती थी चित्रगुप्त ने एक बार कहा भी इन्हें न स्वर्ग जाना चाहिए न नरक इन्हें अभी रह कर पृथ्वी को ही सुंदर बनाना चाहिये ये सब अकाल मृत्यु हैं इसमें यमराज का कोई दोष नहीं
संक्रमण में निर्गुण
झुन झुन झुन झुनझुना बजाता घूमता है यमराज गली गली कभी लेमनचूस निकलता है कभी चिनिया बादाम कभी सोनपापड़ी दिखा भरमाता है बच्चों! बाहर निकलो नहीं माता पिता सब घर में ही रहो रहो दरवाजे के भीतर ही बिटिया और सुहागिनें न राजा बचायेगा, न सन्त उसने हवा पानी हर जगह भर दिए हैं अपने दूत स्वप्न काले भैसों के सींग से भर गए हैं लेखक, कवि, गायक बचो इस प्रलय से बचो गरीब गुरबा, धनी,सम्राट देवी, देवता, डीहवार सब हैं चुप चाप बिल्कुल उदास है देवी की थान हो रही है जीवन की शाम अभी तो आयी थी फिर आ गयी उसकी आवाज अरे विधाता यह वही हरकारा है मृत्यु का जो कई अपने के मरने का संदेश दे रहा है मन डूब रहा है जरा ध्यान से सुनो कानों में गूंज रही है मृत्यु की झन झन करती आवाज मानो सांझ की बेला में बोलते हैं अनंत झींगुर मणिकर्णिका में जैसी आह उठती है पूरे देश मे वैसी ही उठ रही है आह सृष्टि के किनारे बैठ कर रो रही है बिल्ली एक डरावनी रुलाई और पृथ्वी के केंद्र में एक ऊदबिलाव ऐसे में कैसे लिखू आस भरी कविता ऐसे मरण के बेला में शायद कौन बचाएगा हमें कबीर तो खुद ही अपने शिष्य की मृत्यु के बाद उसकी आत्मा की शांति के लिए गादी लगाने में लगे हैं और बुद्ध अभी अभी एक मारक संक्रमण से ऊबरे हैं
मृत्यु का अर्थशास्त्र
महामारियां आती नहीं भेजी जाती हैं इन्हें कोई अधिनायक भेजता है कोई वैज्ञानिक कई बार तो सृष्टि का निर्माता भेजता है कई बार उसे डॉलर, पौंड, युवान रचते हैं इसलिए कहता हूं लोगों मृत्यु का भी एक अर्थशास्त्र होता है और गहरा समाजशास्त्र मृत्यु की भी एक गहरी राजनीति होती है