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विनेश के गिरने पर खुश हो रहे 'गिद्धों' के नाम एक खत- "वो कल फिर उठेगी, तुम देखते रहोगे"

Vinesh Phogat Olympics: विनेश लड़ने के लिए तैयार थी. लेकिन लड़ नहीं पाई, क्योंकि वो महीनों पहले कहीं और लड़ गई थी. और वो लड़ाई भारी पड़ी. तैयारी, कैटेगरी, दोनों पर असर पड़ा. और उस असर का असर शायद अब हमेशा रहेगा. कुछ घंटों पहले, मेडल की आस लगाए बैठे गिद्धों को मौक़ा मिल चुका है

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इन गिद्धों की औक़ात उसे पता है, ये प्राणहीन शरीरों पर ही टूटते हैं. (Image: PTI)

दुनिया में दो तरह के लोग होते है. पहले, जिन्हें सितारों में इंट्रेस्ट होता है. उनके बारे में जानना चाहते हैं. पढ़ते हैं, लिखते हैं, निहारते हैं. दूसरे, जो रोज़ दुआ करते हैं कि सितारा टूट जाए. उन्हें सितारे के संघर्ष में कोई रुचि नहीं है. वो बस चाहते हैं कि सितारा टूटे और वो अपनी विश पूरी कर लें. विश, जो सबकी पूरी नहीं होती. हमारी भी नहीं हुई, विनेश को गोल्ड मेडल जीतते देखने की विश.

छह अगस्त की सुबह सोने गए, बड़े उत्साह में. सात को गोल्ड आएगा. लेकिन नहीं आया. आई वो खबर जिस पर यक़ीन करना मुश्किल. लेकिन यक़ीन तो मौत पर भी नहीं होता, तो क्या मौत आती नहीं? आती है, दबे पांव. और लेकर चली जाती है, जिसे मन करता है. मन, जिस पर किसी का कंट्रोल नहीं है. जो कभी भी आपे से बाहर हो जाता है. और कुछ भी कर बैठता है. आपा, जो खोना बड़ा ख़राब माना जाता है. क्योंकि इसमें आप अपना ही अच्छा बुरा नहीं सोच पाते.

महीनों पहले कुछ पहलवानों ने आपा खोया था. वो लड़ाई पर उतर आए थे. ना तो दांव सोचा, ना वक्त देखा. बस उतर आए. लड़े, खूब लड़े. रोए, चिल्लाए, सर पटका. एक सिस्टम को बदलने के लिए. सिस्टम, जो बदलता नहीं. जो दिखता नहीं. जिसे बदलना संभव नहीं है. ये बातें इन्हें पता थी. मैट पर आने से पहले नतीजा पता था. लेकिन ये आए. पीठ ना दिखाई. क्योंकि पीठ तो कायर दिखाते हैं. कायर, जो कोई भी हो सकता है. कई मामलों में मैं भी हूं और बहुत से मामलों में आप भी होंगे. कायर होने में कोई बुराई नहीं है.

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विनेश फोगाट

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सब वीर ही हो जाएंगे तो भी काम नहीं चलेगा. इसलिए कायरों की भी ज़रूरत है. कायर, जो इंतज़ार कर रहे थे. गिद्ध की तरह, शरीर से आत्मा निकलने का इंतज़ार. आत्मा, जो शरीर से निकल जाए, तो शरीर बस गिद्धों के काम का रह जाता है. आत्मा, जो अजर-अमर है. जिसे ना कोई काट सकता है, ना जला सकता है. जो मरती नहीं. मरते हैं ख़्वाब, जो देखने की हिम्मत बहुत कम लोगों में होती है. हिम्मत, जो चाहिए वो लड़ाई लड़ने के लिए जिसमें जीत की संभावना नगण्य हो.

नगण्य संभावना के लिए अपना सब कुछ दांव पर लगाने वालों में शामिल थीं, विनेश फोगाट. जिन्हें एक दाढ़ी वाले बाबा अपने परिवार का हिस्सा मानते हैं. परिवार, जिसमें मतभेद होते ही रहते हैं. लेकिन परिवार की ख़ासियत है कि ये मतभेद, मनभेद में नहीं बदलते. मनभेद, जो एक बार हो जाए, तो इंसान अंधा हो जाता है. उसे फिर कुछ दिखाई या सुनाई नहीं देता. उसके दिमाग़ में बस एक बात रह जाती है- बदला. और इसके लिए वो अपना घर फूंकने को भी तैयार रहता है. वो बदल देता है अपने घर को लाक्षागृह में. और लगा देता है माचिस.

उसे पता है कि घर जलेगा तो नुक़सान उसका भी होगा. लेकिन उसे इसकी परवाह नहीं होती. उसे बस बदला दिखता है. और इस बदले से मिलने वाली ख़ुशी. ख़ुशी, जो आ रही थी. अब शायद नहीं आएगी. विनेश के जीवन में. उसके जीवन का ये सबसे बड़ा मैच था. वो इसमें लड़ने के लिए तैयार थी. लेकिन लड़ नहीं पाई, क्योंकि वो महीनों पहले कहीं और लड़ गई थी. और वो लड़ाई भारी पड़ी. तैयारी, कैटेगरी, दोनों पर असर पड़ा. और उस असर का असर शायद अब हमेशा रहेगा. कुछ घंटों पहले, मेडल की आस लगाए बैठे गिद्धों को मौक़ा मिल चुका है. आत्मा शरीर छोड़ चुकी है. अब वो शरीर डिफ़ेंड नहीं कर सकता.

या शायद करना भी ना चाहे. क्योंकि इन गिद्धों की औक़ात उसे पता है. ये प्राणहीन शरीरों पर ही टूटते हैं. क्योंकि ज़िंदा लोगों से उनके प्राण कांपते हैं. और लाश नोचने के आदी गिद्धों को क्या जवाब देना. जवाब तो जहां देना था, दिया जा चुका है. पूरी दुनिया ने देखा. सारा जग तारीफ़ें कर रहा है. मेडल आए या ना आए. शान से फ़ाइनल तक गई और दिखा दिया कि मैं ख़त्म नहीं हुई. मेरे अंदर बहुत आग है. आपके तमाम दावों को मैट पर चित कर दिया. आज गिरी हूं, कल फिर उठूंगी. उसी जज़्बे के साथ, जिसने उस रोज़ सड़क से उठाया और आज यहां पहुंचा दिया. जहां मुझे बस मैं हरा पाई. क्योंकि

दुनिया दे चुभदा, रकाने जीवा जगदा।
इक्को मेरे दिल च, रवा ही नी सकदा॥

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