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सिनेमा की दुनिया का सबसे पहला 46 सेकंड का वीडियो, जिसे देखकर लोग सन्न रह गए

46 सेकंड की ब्लैक एंड व्हाइट फ़िल्म देखकर लोगों का दिमाग़ भन्ना गया. जैसे रिएक्शन्स मिल रहे थे लुमियर ब्रदर्स ने भी इसकी कल्पना नहीं की थी. उन्हें लगा था, कलर के आगे ब्लैक एंड व्हाइट कौन पसंद करेगा!

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इस 46 सेकंड के वीडियो को ही सुधीजन सिनेमा की गंगोत्री मानते हैं.
फिल्मी इमेजेस के बारे में सोचते हुए मैं इस बहुप्रचारित आइडिया को सिरे से ख़ारिज करना चाहता हूँ कि वह मूलतः कंपाइल्ड है. मुझे यह थ्योरी नागवार लगी क्योंकि इसमें मान लिया गया: सिनेमा इससे जुड़ी हुई कलाओं के गुणों पर बेस्ड है और इसमें स्वयं का कोई गुण नहीं है. इसका मतलब होगा कि सिनेमा कला ही नहीं है.
यह शब्द हैं सोवियत फिल्ममेकर आन्द्रेई तारकोवस्की (Andrei Tarkovsky) के.
तो क्या सिनेमा कला नहीं है? सिनेमा का अपना कोई गुण नहीं है? इस पर विद्वानों में मतभेद हैं. लेकिन सिनेमा का अपना एक इतिहास है. इस पर किसी विद्वान में कोई मतभेद नहीं है. होगा भी कैसे! जो है, वो कैसे हैं? क्यों है? यही तो इतिहास है. ख़ैर इतिहास की क्लास बंद करते हैं. मुद्दे पर आते हैं.
लुमियर ब्रदर्स और 7 जुलाई 1896 को छपा इनविटेशन
लुमियर ब्रदर्स और 7 जुलाई 1896 को छपा इनविटेशन

7 जुलाई 1896. दो भाई फ्रांस से भारत पहुंचे. और साथ लेकर आये अपनी 6 फ़िल्में. मुम्बई के वाटसन होटल (थिएटर) में फ़िल्म्स का प्रीमियर हुआ. 200 लोगों ने फ़िल्म देखी. पर पर्सन टिकट की कीमत थी 1 रुपए. उस ज़माने के हिसाब से बहुत बड़ी रक़म.
आख़िर यह सब होने से पहले हुआ क्या कि फ्रांस से दो भाई भारत तक पहुंच गये. तो दोस्तों पेश है कहानी लुमियर ब्रदर्स(Lumiere brothers)  की. कहानी सिनेमैटोग्राफ (Cinematograph)  की.
लुमियर ब्रदर्स और उनका सिनेमैटोग्राफ
लुमियर ब्रदर्स और उनका सिनेमैटोग्राफ

19 अक्टूबर 1862 को ऑगस्टे निकोलस लुमियर और 5 अक्टूबर 1864 को लुई लुमियर का फ्रांस में जन्म हुआ. छुटपने में ही उनके माता-पिता ल्योन शहर चले आये. यहां उन्होंने एक फोटोग्राफिक वर्कशॉप खोली. जिसे ख़ूब ख्याति मिली. इसके बाद उन्होंने फ़ोटोग्राफ़िक प्लेट्स बनाने की एक फैक्ट्री डाल दी.
ठीकठाक पैसा आने लगा था. अब लुमियर ब्रदर्स को शहर के सबसे बड़े टेक्निकल स्कूल में भर्ती कराया गया. लुई को किशोरावस्था से ही इमेजेस के साथ खेलने का, उन पर एक्सपेरिमेंट करने का चस्का लग गया. 18 की उम्र में ही वो मूविंग फ़ोटोज खींचना सीख गया. सरल भाषा में कहें तो वैसा फ़ोटो, जिसमें मूवमेंट हो. कोई दौड़ रहा हो. कार चल रही हो, लुई कैप्चर करने लगा था.
इस बीच बड़े लुमियर सैन्य सेवा में चले गए. और एक बहन के साथ फैक्ट्री चला रहे उनके पिता दीवालिया होने की कगार पर आ गये. जब बड़े लुमियर सैन्य सेवा से लौटे, तो दोनों भाईयों ने मिलकर फ़ोटोग्राफिक प्लेट बनाने की ऑटोमैटिक मशीन बना डाली. धंधा चल निकला.
काइनेटोस्कोप
काइनेटोस्कोप

इन सबके बीच, उनके पिता को 1894 में एडिसन के अविष्कार 'काइनेटोस्कोप' के डेमोंस्ट्रेशन में बुलाया गया. एक ऐसा यंत्र जिसमें मूविंग पिक्चर्स यानी फ़िल्म देखी जा सकती थी. लेकिन अकेले.
पिता ने इस अविष्कार के बारे में लुमियर ब्रदर्स को बताया. और इसके इम्प्रोवाइजेशन की बात चलने लगी.
दोनों भाई जो पहले से ही 1892 में लियोन बूली के पेटेंट पर काम कर रहे थे. उसी साल उन्होंने एक कैमरा बनाया. जो फ़िल्म भी कर सकता था और प्रोजेक्ट भी. इसका नाम रखा गया सिनेमैटोग्राफ.
लुमियर ब्रदर्स का सिनेमैटोग्राफ
लुमियर ब्रदर्स का सिनेमैटोग्राफ

यह कैमरा ऐसा पहला उपकरण था जो सिर्फ़ इमेज कैप्चरिंग के लिए नहीं था. बल्कि इससे कई तस्वीरों को सिलसिलेवार ढंग से कैप्चर करके, एक दृश्य रिकॉर्ड किया जा सकता था. यानी इसकी मदद से मोशन पिक्चर्स को रिकॉर्ड, प्रॉसेस (डेवलप) और प्रोजेक्ट किया जा सकता था. एक लकड़ी का बक्सा जिसमें लेंस था और था एक घुमाने वाला क्रैंक जिसमें 35 एमएम फॉर्मेट की 17 मीटर लम्बी फ़िल्म लपेटी जा सकती थी. इसे फरवरी 1895 में लुमियर ब्रदर्स ने पेटेंट करवा लिया.
लुमियर ब्रदर्स कि पहली फिल्म से
लुमियर ब्रदर्स कि पहली फिल्म से

इसी कैमरे से रिकॉर्ड किया गया 46 सेकंड का वीडियो:
'. जिसे सिनेमाई इतिहास का पहला प्रोडक्शन माना जाता है. इसे लुमियर फैक्ट्री के निकास पर रिकॉर्ड किया गया. जहां से निकलकर फैक्ट्री वर्कर्स सेंट विक्टर स्ट्रीट पर आ रहे हैं. कैमरा गेट के ठीक अपोज़िट प्लेस किया गया है. कुछ लोग कैमरे के लेंस में देखते हैं. बाक़ी कैमरा नोटिस ही नहीं कर पाते. हालांकि इससे पहले के भी कुछ एक्सपेरिमेंटल रिकॉर्ड्स थे. लेकिन इस 46 सेकंड के वीडियो को ही सुधीजन सिनेमा की गंगोत्री मानते हैं.
अब आती है वो तारीख़, जिसकी वज़ह से यह कहानी हम आपको सुना रहे हैं. 22 मार्च 1895. सोसाइटी फॉर द डेवलपमेंट ऑफ द नेशनल इंडस्ट्री की बैठक बुलाई गयी. जिसमें मौज़ूद 200 लोग थे. वो आये थे, लुई लुमियर का कलर फोटोग्राफी पर हालिया काम देखने. लेकिन इस कॉन्फ्रेंस में दिखायी गयी 46 सेकंड की ब्लैक एंड व्हाइट फ़िल्म देखकर लोगों का दिमाग़ भन्ना गया. जैसे रिएक्शन्स मिल रहे थे लुमियर ब्रदर्स ने भी इसकी कल्पना नहीं की थी. उन्हें लगा था, कलर के आगे ब्लैक एंड व्हाइट कौन पसंद करेगा. पर वो पिक्चर और मोशन पिक्चर के बीच के फ़र्क को नज़रअंदाज कर रहे थे.
इसके बाद 20 मई 1895 को न्यूयॉर्क में वुडविल लैथम ने पहली बार कमर्शियल स्क्रीनिंग की. यानी देखने वालों से पैसे लिये गये.
सैलून इंडियन डू ग्रैंड कैफे
सैलून इंडियन डू ग्रैंड कैफ़े

28 दिसंबर 1895. हालांकि स्कॉलर्स के बीच इस तारीख़ को लेकर मतभेद है. कई विद्वान इसे दिसम्बर 1895 न मानकर जनवरी 1896 मानते हैं. इस दिन पेरिस के सैलून इंडियन डू ग्रैंड कैफ़े में सिनमैटोग्राफ से रिकॉर्डेड एक के बाद एक 10 शॉर्ट डॉक्यूमेंट्रीज़ दिखाई गयीं. जिनमें से हर फ़िल्म की ड्यूरेशन 50 सेकंड से कम थी. यह भी एक कमर्शियल स्क्रीनिंग थी.
1896 में लुमियर ब्रदर्स सिनेमैटोग्राफ लेकर पूरी दुनिया में घूमे. ब्रुसेल्स , लंदन और न्यूयॉर्क समेत तमाम शहरों में अपनी फिल्में दिखायीं. इसी सिलसिले में उनका 7 जुलाई 1896 को मुम्बई आना हुआ. वहां वाटसन होटल (थिएटर) में उन्होंने अपनी फ़िल्में 200 लोगों के सामने दिखायी. और हर व्यक्ति से 1 रुपया लिया. जो उस ज़माने में बहुत बड़ी रक़म थी.
तो दोस्तों हमारी कहानी जहां से शुरू हुई थी वहीं पर आकर ख़त्म होती है. अलविदा.