यूपी के चुनावी मौसम के दौरान हम आपको मुख्यमंत्रियों के बारे में पढ़ा रहे हैं. हर मुख्यमंत्री कुछ ना कुछ अद्भुत ही लेकर आया है. आज बात है उस मुख्यमंत्री की, जिसे कांग्रेस की आत्मा का रक्षक कहा जाता था. पर वही आदमी अपने आखिरी दिनों में प्रधानमंत्री राजीव गांधी के खिलाफ चिट्ठियां लिखता था. इमरजेंसी के दौरान जगजीवन राम को लगता था कि इंदिरा गांधी गद्दी छोड़ने के बाद उन्हीं को प्रधानमंत्री बनायेंगी. पर वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैय्यर बताते हैं कि इंदिरा के दिमाग में एक ही नाम था - कमलापति त्रिपाठी. यही थे, जिन्होंने कांग्रेस में ही अर्श से फर्श तक का सफर तय किया. आज जब आडवाणी मोदी के खिलाफ कुलबुलाते हैं तो यही कहा जाता है कि ये भाजपा के कमलापति त्रिपाठी हैं.
आजादी की लड़ाई के दौर में कमलापति त्रिपाठी भी यूपी के तमाम कांग्रेस नेताओं की तरह बनारस से ही थे. 3 सितंबर 1905 को बनारस में ही जन्म हुआ था. काशी विद्यापीठ से पढ़ाई की. शास्त्री और डीलिट की उपाधियां प्राप्त कीं. फिर अखबार 'आज' में पत्रकार के तौर पर अपना करियर शुरू किया. हिंदी और संस्कृत दोनों भाषाओं के जानकार थे. तो लिखते बढ़िया थे. उस दौर में राजनीति सबकी हॉबी और प्रोफेशन दोनों हुआ करती थी. गांधीजी ने ऐसा माहौल ही बना दिया था कि जेल जाना और पुलिस से मार खाना चौपाटी घूमते हुए भेल-पूरी खाने जैसा लगता था.

कमलापति त्रिपाठी एक मीटिंग में
कमलापति भी आंदोलनों में पार्टिसिपेट करने लगे. जेल जाने लगे. 16 की उम्र में असहयोग आंदोलन के दौरान जेल गये. धीरे-धीरे यूपी की राजनीति में बड़ा नाम बनने लगे. 1937 के चुनाव में विधानसभा में चुने गये. ये सिलसिला लंबे समय तक जारी रहा. 1946, 1952, 1957, 1962 और 1969 में भी चुने गये थे. राजनीति में प्रवेश के बाद कद इतना बढ़ा कि आजादी के वक्त बनी संविधान सभा के भी सदस्य रहे.
राजनीति के भूचाल में कमलापति नब्ज पहचान इंदिरा के साथ निकल लिए
यूपी की राजनीति में कमलापति त्रिपाठी का एक अपना गुट था. इनकी बाकी नेताओं जैसे चंद्रभानु गुप्ता और त्रिभुवन नारायण सिंह से बनती नहीं थी. ये राजनैतिक दुराव था. व्यक्तिगत नहीं. पर राजनीति चीज ही ऐसी होती है कि सबको कुछ ना कुछ करने पर बाध्य कर देती है. डॉक्टर संपूर्णानंद को कमलापति त्रिपाठी और चंद्रभानु गुप्ता की राजनीति के चलते ही मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा था. और नेहरू ने गुप्ता को काबू करने के लिए सुचेता कृपलानी को मुख्यमंत्री बना दिया था. पर इसके तुरंत बाद नेहरू की मौत हो गई थी. फिर नये प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री की भी मौत हो गई. तो कांग्रेस ने जल्दबाजी में इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री बना दिया था.
ये घटना यूपी की राजनीति को भी प्रभावित कर रही थी. राममनोहर लोहिया और चरण सिंह ने कांग्रेस के वंशवाद के खिलाफ समाजवाद शुरू कर दिया. मुलायम सिंह यादव भी उसी दौर में विधायक बने थे. और फिर इंदिरा की कांग्रेस के पुराने नेताओं से खटपट हो गई. और कांग्रेस टूट गई. पिछले आर्टिकल
में आपने पढ़ा कि 1970 में त्रिभुवन नारायण सिंह मुख्यमंत्री बनने के बाद उपचुनाव में एक पत्रकार रामकृष्ण द्विवेदी के हाथों हार गये. द्विवेदी इंदिरा के सपोर्ट से थे. कमलापति त्रिपाठी उस वक्त राजनीति की नब्ज पहचानते थे. वो भी इंदिरा के साथ थे.

पर पीएसी ने पद छीन लिया मुख्यमंत्री का
तो 4 अप्रैल 1971 को कमलापति त्रिपाठी को यूपी का मुख्यमंत्री बना दिया इंदिरा गांधी ने. वो चंदौली से विधायक थे उस वक्त. पर कमलापति के राज में एक ऐसी चीज हुई जो सिर्फ अंग्रेजों के राज में हुई थी. अंग्रेजों का तो इससे बहुत नहीं बिगड़ा था, पर कमलापति की कुर्सी चली गई. 1946 के नौसेना विद्रोह के बाद का दूसरा विद्रोह हुआ 1973 में उत्तर प्रदेश का पीएसी का विद्रोह. नौसेना का विद्रोह तो ब्रिटिश शासन के खिलाफ था, लेकिन आजादी के बाद हुआ पीएसी की 12वीं बटालियन का विद्रोह अपनी ही सरकार के खिलाफ था.
यूपी में प्रोविंसियल आर्म्ड कॉन्स्टैबलरी यानी पीएसी एक रिजर्व पुलिस फोर्स के रूप में रहती है. राज्य के महत्वपूर्ण लोकेशन्स पर. डीआईजी से ऊपर लेवल के अधिकारी के ऑर्डर आने पर ही ये मूव करते हैं. यूपी में इनके बारे में फेमस है कि ये बड़ा मारते हैं. क्योंकि इनका कोई लोकल नेता वगैरह से जुड़ाव तो होता नहीं. तो मौका मिलते ही धुनना शुरू कर देते हैं. इनको मेले, त्योहार, खेल, चुनाव, दंगे वगैरह में बुलाया जाता है. ये लोग सिर्फ लाठी रखते हैं. इनकी कई बटालियन हैं.तत्कालीन गृह राज्य मंत्री के.सी. पंत द्वारा 30 मई 1973 को राज्यसभा को दी गयी सूचना के अनुसार 22 से 25 मई 1973 तक चले इस विद्रोह को दबाने के लिये की गयी सैन्य कार्रवाई के दौरान सेना ने भी अपने 13 जवान खो दिये थे और 45 अन्य घायल हो गये थे. इस विद्रोह का इतना जबरदस्त राजनीतिक असर हुआ कि 425 सदस्यीय उत्तर प्रदेश विधानसभा में 280 सीटों वाली कांग्रेस की कमलापति त्रिपाठी सरकार को 12 जून 1973 को सत्ता से हटना पड़ा था. इसके बाद यूपी में राष्ट्रपति शासन लग गया. डेढ़ सौ दिनों तक रहा. इसके बाद हेमवती नंदन बहुगुणा मुख्यमंत्री बने. इनके साथ के सारे लोग उस वक्त तक मुख्यमंत्री बन चुके थे. अब इनकी बारी आई थी.
मई 1973 में पीएसी की बारहवीं बटालियन ने यूपी में विद्रोह कर दिया. वजह थी खराब सर्विस कंडीशन, गलत अफसरों को चुनना जो कि जवानों पर धाक जमाते थे. बहुत सारे जवानों से घर के काम भी कराए जाते थे. एकदम जानवरों की तरह रखा जाता था. इस विद्रोह के बाद लगा कि पुलिस सिस्टम यूपी में टूट चुका है. मामला हाथ से निकल रहा था. कुछ भी हो सकने की आशंका थी. पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान में तानाशाही चल रही थी उस वक्त. तो डर बना रहता था. आखिरकार मिलिट्री बुलाई गई. 5 दिन के बाद आर्मी ने इस विद्रोह को कंट्रोल कर लिया. इसमें 30 पुलिसवाले मारे गये. सैकड़ों गिरफ्तार हुए. 65 केस चले, जिसमें 800 के आस-पास जवानों को कोर्ट में बुलाया गया. डेढ़ सौ लोगों को दो साल से लेकर आजीवन कारावास तक हुआ. फायरिंग करने वाले 500 जवानों को सर्विस से डिसमिस कर दिया गया.
हालांकि कमलापति की राजनीति खत्म नहीं हुई. वो 1973-78, 78-80, 85-86 में राज्यसभा के सदस्य रहे. 1980-84 में लोकसभा के रहे. 1973-77 तक रेल मंत्री रहे. 1977-80 राज्यसभा में विपक्ष के नेता रहे. इस वक्त इंदिरा गांधी सत्ता से बाहर थीं. रेलमंत्री के तौर पर इन्होंने बनारस को कई ट्रेनें दीं. काशी विश्वनाथ, साबरमती सहित छह-सात ट्रेनें दी थीं.

अकेलेपन में कटा आखिरी वक्त
फिर इंदिरा गांधी की भी मौत हुई. राजीव गांधी ने 'नौजवान' नेताओं की फौज इकट्ठी करनी शुरू कर दी. इसी में कमलापति त्रिपाठी को कांग्रेस के उपाध्यक्ष पद से हटाकर अर्जुन सिंह को बना दिया. इसके बाद कमलापति दरकिनार कर दिए गए.
जब 1987 में विहिप ने रामजन्म भूमि का शिलान्यास किया तो कमला ने कहा कि बाबरी मस्जिद पर गिरने वाला पहला फावड़ा मेरी गर्दन पर गिरेगा. कमला ने अपने जीवन में राजनीति के अपराधीकरण के विरुद्ध बातें शुरु की थीं.85 साल की उम्र में कमला दिल्ली के 9 जनपथ के वीआईपी क्वॉर्टर्स में बिसुरे अकेले रहते थे. इंडिया टुडे से एक इंटरव्यू में कहा था- मैं वक्त को मार रहा हूं, तब तक जब तक कि वक्त मुझे मार ना दे. आवाज टूट रही थी. आंखें पानी से भर जा रही थीं. खालीपन खा रहा था. नजमा हेपतुल्ला, के के तिवारी, मार्गरेट अल्वा सबने कमला से ट्रेनिंग ली थी. पर सबने भुला दिया था. कमला ने कहा- मैं ये नहीं कहता कि सब मेरी इज्जत करें, पर अपमान तो मत करें. देश की स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ के हमने कोई अपराध नहीं किया था. 1983 में जब आंध्र प्रदेश और कर्नाटक में हार हुई तो इंदिरा ने कमला को दोनों जगहों का प्रभारी बना दिया. बाद में राजीव ने इनकी इज्जत करनी बंद कर दी. 1986 में कमला ने राजीव को एक जहर बुझी चिट्ठी लिखी. पर बाद में कांग्रेस ने इनको धर के दे दिया. कमला को माफी मांगनी पड़ी. बाहर नहीं निकाले गये, बस वही बच गया. मुस्कुराते हुए कहते हैं- उसने मुझे बर्बाद किया, वरना मैं भी आदमी था काम का. एक जगह पैर छुये गये तो कहा- आशीर्वाद देना तो हमारे खानदान का काम है.

8 अक्टूबर 1990 को कमलापति त्रिपाठी की मौत हो गई. इनकी मौत के बाद बनारस बीजेपी का गढ़ बन गया. 84 की इंदिरा लहर में श्यामलाल यादव ने मोर्चा जरूर संभाला था लेकिन फिर अयोध्या आंदोलन के दौरान श्रीशचंद्र दीक्षित ने झटक लिया. उसके बाद तो शंकर प्रसाद जायसवाल कुंडली मार कर ही बैठ गए. बीच में राजेश मिश्रा ने सेंध लगाई लेकिन फिर मुरली मनोहर जोशी आ डटे. उसके बाद तो नरेंद्र मोदी ने कमान संभाल ली. और प्रधानमंत्री बनने वाले बनारस के दूसरे सांसद बने. 1977 में चंद्रशेखर वाराणसी लोक सभा सीट से सांसद चुने गए थे जो बाद में कांग्रेस के समर्थन से प्रधानमंत्री बने. हालांकि, तब वो बलिया से सांसद रहे थे.
राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने अपनी किताब में 80 के दशक की राजनीति का जिक्र करते लिखा है,' कांग्रेस के कार्यकारी अध्यक्ष कमलापति त्रिपाठी और राजीव में संबंध खराब होते जा रहे थे. राजीव कहते थे कि वो काम नहीं कर रहे हैं. वहीं कमलापति त्रिपाठी का कहना था कि राजीव को उन्होंने ही देश का प्रधानमंत्री बनाया है. 26 अप्रैल, 1986 को मैं कमलापति त्रिपाठी के घर था, तभी मुझे उनकी बहू ने खबर दी कि मुझे पार्टी से 6 साल के लिए निकाल दिया गया है. पार्टी के किसी नेता ने मुझे ये जानकारी देने की जरूरत नहीं समझी.' यूपी में औरतों की पॉलिटिक्स की शुरुआत कमलापति त्रिपाठी के घर से हुई. कहा जाता है कि उनके परिवार में उनकी बहू चंद्रा त्रिपाठी की काफी चलती थी. वह कभी खुलकर पॉलिटिक्स में एक्टिव नहीं रहीं, लेकिन कमलापति और उनके बेटे लोकपति को वह समय-समय पर टिप्स दिया करती थीं. उस वक्त कहा जाता था कि पर्दे के पीछे से कमलापति त्रिपाठी की बहू मुख्यमंत्री के फैसले बदलवा देती थीं. उनको पार्टी के लोग बहूजी कहते थे. कांग्रेस ने 1984 में पूर्वांचल की करीब पांच संसदीय क्षेत्रों से महिला प्रत्याशियों को चुनाव मैदान में उतारा. सिर्फ चंदौली से चंद्रा त्रिपाठी ही जीत सकीं थीं. उन्होंने सिटिंग सांसद निहाल सिंह को 51101 वोटों से हराया था.बेचन शर्मा उग्र ने कमलापति त्रिपाठी के नेता बन जाने पर उनके बारे में खूब लिखा था. इसी से थोड़ा पता चल जाएगा कि नेता बनकर रहना कितना मुश्किल होता है और कितना बदलना पड़ता है-
महादेवी वर्मा ने कमला को अजातशत्रु कहा था. कहा कि त्रिपाठी लेखक थे पर राजनीति ने उधार ले लिया था. दिनकर ने कहा कि कमला कवि थे. पर वो दौर ही ऐसा था कि राजनीति करनी थी. भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान पांडेय बेचन शर्मा उग्र के साथ जेल में रहे. वहीं से हाथ से लिखी साप्ताहिक पत्रिका कारागार का प्रकाशन किया.
याद है तुम्हें जब गांधी बनारस आये थे और टीचर्स ट्रेनिंग कॉलेज की छत पर लोगों को असहयोग आंदोलन समझा रहे थे. तब मैंने और तुमने तय किया था कि महात्मा मीटिंग कर बाहर निकलेंगे तो हम लोग उनके चरण पकड़ लेंगे. मेरे हाथ में दाहिना आया और तुम्हारे हाथ में बांया. महात्मा चमककर शांत हो गये थे. उसके बाद मेरे तुममें 5-5 रुपये की बाजी लगी कि कौन जेल पहले जाता है. मैं ही गया था. पर आज तुम कहते हो कि कोई तुमसे पॉलिटिक्स में भिड़ाए तो जानूं. हरिश्चंद्र सत्य में भिड़ाने की बात करते थे, रामचंद्र मर्यादा में, गौतम करुणा में और पंडित कमलापति...पॉलिटिक्स. अहंकार देखता हूं तुम्हारे चेहरे पर.2016 में बनारस में अपने रोड शो में कांग्रेस ने अंबेडकर की मूर्ति पर भी माला पहनाई और अंत किया कमलापति त्रिपाठी की मूर्ति पर पहना कर. आज भी जब कोई नेता फेसबुक पर चिट्ठी लिखता है तो कमलापति का ही उदाहरण दिया जाता है कि कैसे राजीव को चिट्ठी पर चिट्ठी लिखी थी.
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