अब तक जितना भी विकास हुआ है विचार का, अगर फिल्म उसे एक कदम आगे नहीं ले जाती, तो उसके होने का मेरे लिए कोई मतलब नहीं है: आनंद गांधी, ('शिप ऑफ थीसियस'
के डायरेक्टर. उन्होंने ये बात सिनेमा के बारे में बात करते हुए कही थी)
फिल्म रिव्यू: करीब करीब सिंगल
इसमें इरफान और पार्वती हैं.

अगर किसी के साथ रिलेशनशिप की उम्मीद लगी हुई है, तो उसे साथ ले जाइए. उस दिन कुछ हो जाएगा: इरफान, ('करीब-करीब सिंगल'
के लीड एक्टर, जिन्होंने ये बात फिल्म के प्रमोशन के दौरान कही थी)
ये अपनी किस्म के दो दावे हैं, जो अलग-अलग समय में, अलग-अलग संदर्भों में पेश किए गए. पहला सिनेमा की सार्थकता पर लकीर खींचता है और दूसरा किसी विशेष फिल्म के पक्ष में अनोखा दावा करता है. 'दावे' एक प्रक्रिया (Process) से गुज़रने के बाद की गईं ईमानदार स्वीकरोक्ति हैं. लेकिन कमाल की बात ये है कि ये प्रक्रिया और स्वीकरोक्ति हमारे सिनेमा से गायब है. ये खालीपन अभी हमें उलझन की अवस्था तक नहीं ले जा पाया है. यही वजह है कि हम 'करीब करीब सिंगल'
जैसी फिल्मों को अपनी ओर आते नहीं देख पाते. देखकर पता चलता है कि ये तो एक मुकम्मल फिल्म है... वही जिसे फिल्म की हीरोइन 'मुकल्लम' कहती है.

'करीब करीब सिंगल' के एक सीन में इरफान और पार्वती
तनुजा चंद्रा निर्देशित और इरफान-पार्वती अभिनीत ये फिल्म डेटिंग से रिलेशनशिप के सफर के बारे में है. हालांकि, इसे मोटा परिचय कहा जाएगा, क्योंकि डायरेक्टर की चैतन्यता की वजह से ये फिल्म कई पहलू छूती है. हम देखते हैं कि कैसे डेटिंग साइट्स पर लड़कियों को डार्ट बोर्ड के उस गोले की तरह देखा जाता है, जिस पर 100 लिखा होता है. हम पाते हैं कि प्रेम करने के लिए जितना धैर्य चाहिए, उतना हममें नहीं होता है. फिल्म कहीं गहरे ये बता जाती है कि अगर चालाकी, ईष्या और गुस्से की वजह से इंसान होना कमज़ोरी है, तो पश्चाताप, उम्मीद और प्रेम की वजह से इंसान होना ताकत भी है.
प्रेम बहुत आसान है, हम खुद उसे जटिल बना देते हैं.

'करीब करीब सिंगल' की डायरेक्टर तनुजा, जो इससे पहले 'दुश्मन' और 'संघर्ष' जैसी फिल्में बना चुकी हैं
'करीब करीब सिंगल' करीब-करीब हर किसी के बारे में है. वो जो खुद में कैद होकर किसी का इंतज़ार कर रहे हैं... वो जो इंटरनेट पर पार्टनर्स ढूंढ रहे हैं... वो जिनके लिए प्यार दूसरी बार नहीं होता... वो जो प्यार को हर आखिरी मौका देना चाहते हैं... वो जो चाहते हैं कि कोई बिना कहे उनकी बात समझ ले... और वो भी जो हर सफर, हर दौर... बिना वहशी हुए बिता सकते हैं. असल में इरफान हमें ही स्क्रीन पर दिखा रहे होते हैं. हमारा कोई न कोई भाव उनके किरदार में मजबूती से बैठा होता है. हमें लगता है कि हम ही हैं. पार्वती भी ऐसी ही हैं. एक कंप्लीट वुमन. कोई भी लड़की खुद को उनकी जगह महसूस कर सकती है. बात बस इतनी सी है कि प्यार में हम सभी योगी और जया से बहुत पहले हिम्मत हार जाते हैं.

फिल्म के एक सीन में इरफान, पार्वती
बाहर निकलकर देखिए. दुनिया ऐसे करोड़ों लोगों से भरी पड़ी है, जो सालों से अकेले रहते-रहते कैद हो चुके हैं. अपने दरवाज़े बंद कर चुके हैं. किसी को अपनी करीब पाकर डर जाते हैं. वो न जाने कब से अपने हर अच्छे-बुरे काम के लिए सिर्फ खुद को सफाई दे रहे हैं. पर तभी एक साझेदार आ जाता है, जो आपकी खिड़की के कोने से लेकर आपके फोन, आपकी ज़िंदगी... हर चीज़ में हिस्सेदारी चाहता है. पर हमसे से बर्दाश्त नहीं होता. हम उसे विदा करके फिर अपने पटों के पीछे छिप जाना चाहते हैं. पर प्रेम करने के लिए पहले प्रेम स्वीकारना भी तो ज़रूरी है. ज़िंदगी सिर्फ सनक में लिए गए फैसले या ब्रेकअप्स नहीं होती. ज़िंदगी रेगिस्तान में सिर्फ चौखट के सहारे खड़ा दरवाज़ा है, जिसके आसपास कोई दीवार नहीं होता. फिर कोई भी आए-जाए, क्या फर्क पड़ता है.
'करीब करीब सिंगल' में एक तोहफा उनके लिए भी है, जो कभी रिलेशनशिप में नहीं रहे. किसी के साथ रिश्ता बिल्ड करना मुश्किल होता है. पर ये हमारे वक्त की खुशकिस्मती है कि हमारे पास इरफान हैं. योगी और जया से सीखिए कोई रिश्ता कितना खाद-पानी, कितनी मेहनत मांगता है. आपकी ज़िंदगी में शायद ही कोई हो, जो आपको अपने रिलेशनशिप में इतना करीब रख पाए कि आप सब कुछ साफ-साफ देख-सुन-समझ सकें. योगी और जया आपको लूप में रखकर अपनी कहानी सुलझाते हैं. आपके पास सब समझने-सीखने का मौका होता है.
ये किरदार इतने मेच्योर हैं कि इनके बीच कंसेन्ट जैसी बातों का ख्याल ही नहीं आता. क्यों आए? कभी तो हम बेसिक चीजों से ऊपर बढ़ेंगे न. कभी तो हम इस स्तर पर पहुंचेंगे, जहां हम भी योगी और जया की तरह बर्ताव कर सकें. ईमानदार.
हमारा सिनेमा हमें हमेशा अतिरेक वाली कहानियां और नायक देता है. ऐसी प्रेम कहानियां, जो महज़ एक डायलॉग, एक फाइट सीक्वेंस या एक महंगे से प्रपोज़ल से पूरी हो जाती हैं. साथ जीने-मरने वाली कहानियां. सिर्फ एक बार प्यार करने वाले नायक. पर असल ज़िंदगी में ऐसा कब होता है. असलियत में तो ईंट दर ईंट रिश्ता बनाना पड़ता है. धीमी आंच पर पकाना पड़ता है. ये पूरा प्रॉसेस है, जो कोई हमें दिखाता-बताता नहीं है.
ज़िंदगी सिर्फ बाथरूम में शीशे के सामने फैसला लेना नहीं है. ज़िंदगी वो फैसला लेने के बाद उसके साथ जीना है. अपने साथी के साथ जीना है. कभी गाड़ी छूट जाती है, तो कभी आप आगे बढ़कर उसे पकड़ लेते हैं. फिर आखिर में आसमान में पटाखे नहीं फूटते हैं. और न कोई खेतों में टहलने जाता है. आखिर में तो हम बस एक-दूसरे को देखते हैं... देखते रहते हैं.
फिल्म के आखिर में एक बहुत प्यारा सीन है. रेस्ट्रॉन्ट में बैठी जया योगी पर चीखते हुए कहती हैं कि उसकी ज़िंदगी में सिर्फ 'वो है'... वो, उसकी शायरी, उसकी गर्लफ्रेंड्स, उसकी बकबक. उसकी ज़िंदगी में किसी और के लिए जगह नहीं है. सब कुछ सुनने के बाद योगी धीरे से उससे कहता है, 'क्या तुम्हारी ज़िंदगी में किसी और के लिए जगह है?' यही वो पल है, जब लोग वापस अपनी गुफा में लौट जाते हैं. आप भी खुद से पूछिए, क्या आपकी ज़िंदगी में किसी और के लिए जगह है? नहीं है, तो इंतज़ार किस बात का कर रहे हैं?
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