'जितना तुम्हारा सच है, उतना ही कहो' यह कहने वाले सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय' का आज जन्मदिवस है. उन्होंने 'जन्मदिवस' शीर्षक एक बहुत कोट की जाने वाली कविता हिंदी को दी है. अज्ञेय को याद करते हुए आज एक कविता रोज़ में उनकी यही कविता. पढ़िए :
जन्मदिवस
मैं मरूंगा सुखी
क्योंकि तुमने जो जीवन दिया था—
(पिता कहलाते हो तो जीवन के तत्व पांच
चाहे जैसे पुंज-बद्ध हुए हों, श्रेय तो तुम्हीं को होगा—)
उससे मैं निर्विकल्प खेला हूं—
खुले हाथों उसे मैंने वारा है—
धज्जियां उड़ाई हैं तुम बड़े दाता हो :
तुम्हारी देन मैंने नहीं सूम-सी संजोई
पांच ही थे तत्व मेरी गूदड़ी में—
मैंने नहीं माना उन्हें लाल
चाहे यह जीवन का वरदान तुम नहीं देते बार-बार—
(अरे मानव की योनि! परम संयोग है!)
किंतु जब आए काल
लोलुप विवर-सा प्रलंब-कर, खुली पाए प्राणों की मंजूषा—
जावें पांचों प्राण शून्य में बिखर :
मैं भी दाता हूं
विसर्ग महाप्राण है
मैं मरूंगा सुखी किंतु नहीं धो रहा मैं पाटियां आभार की
उनके समक्ष
दिया जिन्होंने बहुत कुछ
किंतु जो अपने को दाता नहीं मानते
नहीं जानते :
अमुखर नारियां, धूल-भरे शिशु, खग,
ओस-नमे फूल, गंध मिट्टी पर
पहले अषाढ़ के अयाने वारि-बिंदु की,
कोटरों से झांकती गिलहरी,
स्तब्ध, लय-बद्ध, भौंरा टंका-सा अधर में,
चांदनी से बसा हुआ कुहरा,
पीली धूप शारदीय प्रात: की,
बाजरे के खेतों को फलांगती डार हिरनों की बरसात में—
नत हूं मैं सबके समक्ष, बार-बार मैं विनीत स्वर
ऋण — स्वीकारी हूं — विनत हूं मैं मरूंगा सुखी
मैंने जीवन की धज्जियां उड़ाई हैं! ***
अज्ञेय की कुछ कविताएं उनकी ही आवाज में यहां सुनें :
https://www.youtube.com/watch?v=wJvXUKbPRPI