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फ़ैज़ ने जो नज़्म लिखी थी वो अब भी ज़िन्दा है, गुड़िया होती तो न बचती!

एक कविता रोज़ में आज पढ़िये फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की वो नज़्म जो युवा क्रांतियों का नारा बन गयी.

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उसके पिता जेल में थे. बेटी ने कहा मैं मिलने आऊँगी तो मुझे एक गुड़िया देना प्लीज़. पिताजी ने हाँ कह दिया. बेटी जेल में मिलने आई. आई तो पिता से गुड़िया मांगी. पिता ने उसे गुड़िया तो नहीं एक कागज़ पकड़ा दिया. कागज़ में एक नज़्म लिखी थी. बेटी के लिए. बेटी उस कागज़ का क्या करती? उसने तो गुड़िया मांगी थी. उसे तो गुड़िया ही चाहिए थी. उसने वो कागज़ फैंक दिया. वो पिता से खफ़ा हो गयी. जेल में बंद एक पिता से गुड़िया की उम्मीद नहीं की जा सकती. लेकिन आठ साल की लड़की अपने पिता से और भला क्या मांगती?

बाद में टी.वी. इंटरव्यू के दौरान फ़ैज़ की बेटी मोनीज़ा हाशमी ने बताया कि उस कागज़ में लिखी नज़्म अब भी ज़िन्दा है गुड़िया होती तो न बचती! नज़्म कौन सी थी ये नहीं बताया.

आज उन्हीं मोनीज़ा के पिता यानी फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की पुण्यतिथि है. तो आइये लल्लनटॉप में पढ़वाते हैं उनकी ऐसी नज़्म जो 'अमेरिका वाले पाकिस्तान' के दौर में 'रशिया वाला नारा' थी. एक ऐसी नज़्म जिसकी कुछ लाइंस हम सब ने अपने कॉलेज के दिनों में सुनी ही होंगी, एक ऐसी नज़्म जो तब पैदा होती है जब दिल शायराना हो और जज़्बात क्रांतिकारी.

बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे बोल ज़बाँ अब तक तेरी है तेरा सुत्वाँ जिस्म है तेरा बोल कि जाँ अब तक तेरी है देख कि आहन-गर की दुकाँ में तुंद हैं शोले सुर्ख़ है आहन खुलने लगे क़ुफ़्लों के दहाने फैला हर इक ज़ंजीर का दामन बोल ये थोड़ा वक़्त बहुत है जिस्म ओ ज़बाँ की मौत से पहले बोल कि सच ज़िंदा है अब तक बोल जो कुछ कहना है कह ले सुतवाँ जिस्म- कसा हुआ शरीर, आहन-गर- लौहकार, सुर्ख़- लाल, आहन- लोहा, क़ुफ़्लों- बंद


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