The Lallantop

हमारे पैदा किए कार्बन को धरती ने सोखना बंद कर दिया है? ये रिपोर्ट पढ़ गला सूख जाएगा

वायुमंडलीय कार्बन को बड़े पैमाने पर हटाने वाली तकनीकों के अभाव में पृथ्वी के विशाल जंगल, घास के मैदान और महासागर ही कार्बन को सोखने का एकमात्र विकल्प हैं.

post-main-image
मिट्टी से होने वाले कार्बन उत्सर्जन महासागरों के बाद दूसरा सबसे बड़ा सक्रिय कार्बन भंडार है. (फोटो- Nasa/Alamy)

साल 2023 अब तक का सबसे गर्म वर्ष रहा. साफ है, पृथ्वी की जलवायु तेजी से बदल रही है. हर साल ये सुनने को मिलता कि ये वर्ष सबसे गर्म रहा. हमारी पृथ्वी में पैदा होने वाला कार्बन इस जलवायु परिवर्तन का सबसे बड़ा कारण है. हजारों प्राकृतिक गतिविधियां पृथ्वी की जलवायु को नियंत्रित करती है. इनमें से एक है कार्बन सिंक (Carbon Sink), जिसे लेकर एक बड़ा दावा किया गया है. ताजा रिसर्च के मुताबिक समुद्र, वन, पौधे और मिट्टी की कार्बन एब्जॉर्ब करने की क्षमता में उल्लेखनीय कमी देखी जा रही है.

रिसर्च में जलवायु परिवर्तन को लेकर क्या-क्या खुलासे किए गए हैं? ये समझने से पहले ये जानते हैं कि कार्बन सिंक क्या होता है?

कार्बन सिंक को एक Sponge की तरह समझा जा सकता है. माने वो चीज जो किसी अन्य चीज को अपने में सोख ले, समा ले. हमारे पर्यावरण में इस Sponge का काम हमारे आस-पास लगे पेड़, महासागर और मिट्टी करते हैं. माने पेड़, महासागर और मिट्टी वायुमंडल में जितना कार्बन छोड़ते हैं, उससे कहीं अधिक सोख लेते हैं. इससे कार्बन का हमारे पर्यावरण में बैलेंस बना रहता है. इसीलिए कहा जाता है कि ज्यादा से ज्यादा पेड़ लगाइए और वनों को खतरे में मत डालिए.

कार्बन सिंक खतरे में?

जलवायु परिवर्तन से निपटने और जलवायु को स्थिर बनाए रखने के लिए कार्बन सिंक की सुरक्षा करना आवश्यक है. लेकिन वे लगातार खतरे में है. दी गार्डियन की एक रिपोर्ट के मुताबिक धरती के महासागर, जंगल, मिट्टी और अन्य प्राकृतिक प्रक्रियाएं मानव निर्मित कार्बन एमिशन का लगभग आधा हिस्सा सोखते हैं. लेकिन जैसे-जैसे पृथ्वी गर्म होती जा रही है, वैज्ञानिकों को इस बात की चिंता सता रही है कि ये महत्वपूर्ण प्रक्रियाएं खतरे में हैं.

ग्रीनलैंड के ग्लेशियर और आर्कटिक की बर्फ की चादरें अपेक्षा से कहीं ज़्यादा तेज़ी से पिघल रही हैं. इससे गल्फ़ स्ट्रीम महासागर की धारा बाधित हो रही है. और इसके कारण महासागरों के कार्बन सोखने की दर भी धीमी हो रही है. रिपोर्ट के मुताबिक पिघलती समुद्री बर्फ एल्गी खाने वाले ज़ूप्लैंकटन (पानी की सतह पर तैरने वाली छोटे जीव) को ज्यादा धूप के संपर्क में ला रही है. वैज्ञानिकों की मानें तो इस बदलाव की वजह से उन्हें लंबे समय तक गहराई में रहना पड़ सकता है. इस कारण उनके समुद्र तल पर आने की संभावना कम होगी, जिससे कार्बन को तल पर स्टोर करने की प्रक्रिया में बाधा आने की संभावना बढ़ सकती है.

पॉट्सडैम इंस्टीट्यूट फॉर क्लाइमेट इम्पैक्ट रिसर्च के डायरेक्टर जोहान रॉकस्ट्रॉम ने सितंबर में न्यूयॉर्क क्लाइमेट वीक में एक कार्यक्रम में बताया,

"हम पृथ्वी की प्रणालियों के लचीलेपन में बाधाएं आती देख रहे हैं. हम भूमि पर बड़ी दरारें देख रहे हैं, ये अपने कार्बन भंडार और कार्बन सोखने की क्षमता खो रहे हैं. इतना ही नहीं, महासागर भी अस्थिरता के संकेत दिखा रहे हैं."

जोहान की मानें तो,

‘प्रकृति ने अब तक हमारे शोषण को संतुलित रखा है. पर अब ये खत्म होने वाला है.”

प्रकृति के बिना नेट ज़ीरो असंभव

रिपोर्ट के मुताबिक 2023 में भूमि कार्बन सिंक में गिरावट आना अस्थायी हो सकता है. अगर धरती में सूखे जैसे हालात या जंगलों में आग जैसी घटनाएं नहीं होती हैं, तो भूमि फिर से कार्बन सोखने की प्रक्रिया पर वापस आ जाएगी. ये इन इकोसिस्टम की नाजुकता को दर्शाता है और इसका सीधा असर जलवायु संकट पर पड़ सकता है.

दी गार्डियन की इस रिपोर्ट की मानें तो प्रकृति के बिना नेट ज़ीरो तक पहुंचना असंभव है. 2023 में कार्बन प्रदूषण रिकॉर्ड 37.4 बिलियन टन तक पहुंच गया है. वायुमंडलीय कार्बन को बड़े पैमाने पर हटाने वाली तकनीकों के अभाव में पृथ्वी के विशाल जंगल, घास के मैदान और महासागर ही कार्बन को सोखने का एकमात्र विकल्प हैं. दुनिया के कम से कम 118 देश राष्ट्रीय जलवायु लक्ष्यों को पूरा करने के लिए भूमि पर निर्भर हैं. लेकिन बढ़ते तापमान, खराब मौसम और सूखे के कारण इस पर गलत असर पड़ सकता है.

रिपोर्ट की मानें तो जैसे-जैसे मानवीय उत्सर्जन बढ़ा, प्रकृति द्वारा इसे सोखे जाने की मात्रा भी बढ़ी. अधिक कार्बन डाइऑक्साइड का मतलब है कि पौधे तेजी से बढ़ते हैं, जिससे ये अधिक कार्बन स्टोर करते हैं. लेकिन बढ़ती गर्मी के कारण ये संतुलन अब बदल रहा है. जोहान कहते हैं,

“ये संकटग्रस्त ग्रह चुपचाप हमारी मदद कर रहा था. जैव विविधता की बदौलत हम कार्बन एमिशन को कंट्रोल कर पा रहे थे. अब हम एक आरामदायक जोन में पहुंच चुके हैं, हम वास्तव में संकट को नहीं देख सकते हैं.”

जानकारी के अनुसार केवल कांगो बेसिन एक मजबूत कार्बन सिंक बना हुआ है, जो वायुमंडल में जितनी कार्बन छोड़ता है उससे कहीं ज़्यादा सोख लेता है. वहीं अल नीनो, वनों की कटाई और ग्लोबल हीटिंग के कारण अमेजन बेसिन रिकॉर्ड तोड़ सूखे का सामना कर रहा है. यहां नदियों का जलस्तर अब तक के सबसे निचले स्तर पर है.

मिट्टी से होने वाले कार्बन उत्सर्जन महासागरों के बाद दूसरा सबसे बड़ा सक्रिय कार्बन भंडार है. अगर यह वर्तमान दर से जारी रहा तो इसमें सदी के अंत तक 40 प्रतिशत तक की वृद्धि होने की उम्मीद है. एक्सेटर यूनिवर्सिटी में जलवायु परिवर्तन और पृथ्वी प्रणाली विज्ञान के प्रोफेसर टिम लेंटन कहते हैं,

"हम जैवमंडल में कुछ आश्चर्यजनक प्रतिक्रियाएं देख रहे हैं, जो पूर्वानुमान के विपरीत हैं. ठीक वैसे ही जैसे हम जलवायु के मामले में देख रहे हैं. हमको ये सवाल पूछना होगा कि कार्बन सिंक या कार्बन भंडार के रूप में हम उन पर किस हद तक भरोसा कर सकते हैं?"

प्रकृति में महासागर सबसे ज्यादा कार्बन डाइऑक्साइड सोखते हैं. हाल के दशकों में महासागरों ने फॉसिल फ्यूल्स से होने वाली 90 प्रतिशत गर्मी को सोखा है. जिस कारण समुद्र का तापमान बढ़ रहा है. रिसर्च में ये भी संकेत मिले हैं कि इससे समुद्री कार्बन सिंक कमजोर हो रहा है.

क्या होगा अगर कार्बन सिंक काम करना बंद कर देगा?

जैसे-जैसे विश्व के हर देश नेट जीरो के टारगेट की तरफ बढ़ रहे हैं, कार्बन एमिशन को रोकने का प्रेशर भी उन पर बढ़ रहा है. कार्बन को सोखने की प्रकृति की क्षमता में मामूली कमी का मतलब ये भी होगा कि दुनिया को नेट जीरो हासिल करने के लिए ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में बहुत अधिक कटौती करनी होगी. भूमि की कार्बन सोखने की क्षमता कमजोर होने से डीकार्बोनाइजेशन और जलवायु लक्ष्यों की दिशा में देशों की प्रगति पर प्रभाव पड़ता है. यही कई देशों के लिए एक बड़े संघर्ष की तरह साबित हो रहा है.

इस साल हुए एक रिसर्च में पाया गया है कि ऑस्ट्रेलिया के रेंजलैंड में अत्यधिक गर्मी और सूखे से मिट्टी में कार्बन का भारी नुकसान हो रहा है. अगर उत्सर्जन में वृद्धि ऐसे ही जारी रहती है, तो देश के जलवायु लक्ष्य पहुंच से बाहर हो सकते हैं. यूरोप में, फ्रांस, जर्मनी , चेक गणराज्य और स्वीडन सभी ने भूमि द्वारा सोखे जाने वाली कार्बन की मात्रा में गिरावट देखी गई है. हालांकि, अभी तक ये बदलाव क्षेत्रीय रहे हैं. चीन और अमेरिका जैसे कुछ देशों में अभी तक ऐसी गिरावट नहीं देखी गई है.

ग्लोबल कार्बन बजट की देखरेख करने वाले एक्सेटर यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर पियरे फ्राइडलिंगस्टीन कहते हैं,

"हमें इस काम के लिए प्राकृतिक वनों पर निर्भर नहीं रहना चाहिए. हमें वास्तव में बड़े मुद्दे (सभी क्षेत्रों में जीवाश्म ईंधन उत्सर्जन) से निपटना होगा."

पियरे कहते हैं कि हम ये नहीं मान कर चल सकते कि हमारे पास जंगल हैं और ये जंगल कुछ कार्बन डाइऑक्साइड हटा देंगे. उनका कहना है कि ये लंबे समय तक काम नहीं करेगा.

वीडियो: कार्बन डेटिंग से ज्ञानवापी मामले में क्या राज खुलेगा?