आज इंसानों ने ऐसे टेलीस्कोप बना लिए हैं, जिनसे चांद पर रखे संतरे को भी साफ देखा जा सके. करोड़ों किलोमीटर दूर के तारों को भी हम देख सकते हैं. जेम्स वेब स्पेस टेलीस्कोप यूनिवर्स की गहराइयों में झांक सकता है, इतना कि शुरुआती यूनिवर्स के सुराग मिल सकें. पर क्या हो अगर हम, इनसे बहुत ज्यादा शक्तिशाली टेलीस्कोप (most powerful telescope) बना सकें, वो भी अपने सूरज (Sun) की मदद से?
क्या सूरज का इस्तेमाल एक दूरबीन की तरह किया जा सकता है?
Space and Sun: क्या हो अगर हम किरणों को मोड़ने के लिए अपने ही सूरज का सहारा ले लें. क्योंकि इसमें काफी ज्यादा मास है. आइंस्टीन की ‘थ्योरी ऑफ जनरल रिलेटिविटी’ के मुताबिक, जो बेहद विशालकाय पिंड होते हैं, वो अपने आस-पास स्पेस-टाइम को मोड़ देते हैं - बीच में पड़ी गेंद की वजह से, मुड़ने वाले किसी चादर की तरह.
सूरज का इस्तेमाल एक टेलीस्कोप की तरह. पर क्या ये संभव है? या फिर बस एक वैचारिक गप्प यानी थॉट एक्सपेरिमेंट (Thought experiment)?
पहले समझते हैं, कोई आम टेलीस्कोप काम कैसे करता है:
आपने बचपन में लेंस के साथ धूप में खेला तो होगा. लेंस से कोई कागज़ भी जलाया होगा, जिस पर कभी कट्टम-जीरो खेला गया रहा होगा. अब इसमें होता ये है कि सूरज से जितनी लाइट लेंस पर पड़ी, वो एक केन्द्र या फोकस प्वाइंट की ओर केंद्रित कर दी जाती है.
दरअसल, वैसे तो लाइट सीधी चलती है. नाक की सीध में. सख्ती के साथ. बिल्कुल जाकिर भाई की तरह. पर कांच में आते ही, लाइट एक खास कोण पर झुकती है. अब कांच वाले लेंस में भी यही होता है और लाइट एक बिंदु पर केंद्रित की जा सकती है.
आपने देखा होगा कि उसी बिंदु पर लाइट एकदम इंटेंस या तेज हो जाती है. अब यही काम किसी दर्पण के साथ भी किया जा सकता है. और लाइट के अलावा कई तरह की तरंगों के लिए भी किया जा सकता है. जैसे हमारे घर में डिश एंटीना एक केंद्र पर सिग्नल या तरंगों को केंद्रित करता है.
ऐसा ही कुछ ये विशालकाय बड़े टेलीस्कोप भी करते हैं. जो या तो धरती पर होते हैं या स्पेस में तैर रहे होते हैं.
आइंस्टीन की थ्योरी में बताया गया कि बड़े-बड़े मास के पास भी लाइट मुड़ सकती है. जैसे किसी ब्लैक होल के पास. लाइट हमारे सूरज जैसे बड़े मास के पास आने पर भी मुड़ सकती है. तो क्या इसका इस्तेमाल एक ‘लेंस’ की तरह किया जा सकता है?
जादू के खाने से ब्रह्मांड दर्शनतुलना के लिए जेम्स वेब स्पेस टेलीस्कोप की बात करते हैं. बकौल स्पेस, इसमें करीब साढ़े छह मीटर का एक मिरर है. जो एक इंसानी आंख से 600 गुना ज्यादा रेजोल्यूशन पा सकता है. इस रेजोल्यूशन से 40 किलोमीटर दूर रखे सिक्के को देख सके.
वहीं इवेंट होराइजन टेलीस्कोप की बात करें, तो ये धरती पर कई जगह फैले इंस्ट्रूमेंट्स का समुच्चय है. इनके सामंजस्य से हम सुदूर खगोलीय घटनाओं की तस्वीरें ले सकते हैं.
पर अगर हम इससे भी ज्यादा महत्वाकांक्षी हो जाएं और बड़ा टेलीस्कोप चाहें, तब क्या किया जा सकता है? या तो हमें बेहद विशालकाय छतरियों की जरूरत पड़ेगी. या पूरे ब्रह्मांड में जगह-जगह टेलीस्कोप फेंकने होंगे.
पर क्या हो अगर हम किरणों को मोड़ने के लिए अपने ही सूरज का सहारा ले लें. क्योंकि इसमें काफी ज्यादा मास है. आइंस्टीन की ‘थ्योरी ऑफ जनरल रिलेटिविटी’ के मुताबिक, जो बेहद विशालकाय पिंड होते हैं, वो अपने आस-पास स्पेस-टाइम को मोड़ देते हैं - बीच में पड़ी गेंद की वजह से, मुड़ने वाले किसी चादर की तरह.
ऐसे ही सुदूर तारों से आ रही लाइट भी, सूरज की सतह के पास मुड़ जाती हैं. तो इनके जरिए भी सुदूर किसी गैलेक्सी को देखा जा सकेगा?
Space के मुताबिक, खगोलशास्त्री इस इफेक्ट का इस्तेमाल पहले से कर रहे हैं. इसे 'ग्रेविटेशनल लेंसिंग' कहा जाता है. जब दूर किसी गैलेक्सी से लाइट, किसी पास की गैलेक्सी से होकर गुजर रही होती है. तो भी वो मुड़ सकती है. इसकी मदद से दूर की गैलेक्सी को बेहतर देखा जा सकता है.
तो क्या सूरज को एक लेंस में बदला जा सकता है. और उसकी ग्रेविटी का इस्तेमाल करके लाइट को मोड़ा जा सकता है?
हालांकि, आइडिया अच्छा है, पर कुछ चैलेंजेज़ भी हैं. मसलन इस लेंस का जो फोकल प्वाइंट होगा. वो धरती और सूरज की दूरी का ही 540 गुना होगा. धरती और प्लूटो की दूरी का 11 गुना. और इंसानों ने अब तक जो स्पेसक्राफ्ट सबसे ज्यादा दूर भेजा है, वायजर 1 - से करीब तीन गुना ज्यादा दूर.
बता दें वायजर साल 1977 में भेजा गया था. यानी इससे तीन गुना दूर जाने में कहीं ज्यादा समय लगेगा.
मतलब ये पूरा मामला अभी के लिए, तो बस एक थॉट एक्सपेरिमेंट ही कहा जा सकता है. पर मामला दिलचस्प है, नहीं?
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