जीवन की उत्पत्ति के लिए जरूरी सभी तत्वों का साथ आना एक महान संयोग है. पृथ्वी के संदर्भ में तो इस संयोग की महानता को शब्दों में बताना बड़ा मुश्किल है. हजारों-लाखों-करोड़ों नहीं, अरबों सालों का समय लगा तब जाकर धरती पर जीवन पनपा. लेकिन निर्माण के बाद सर्वनाश का आना भी तय है. क्योंकि पुनर्निर्माण भी तो होना है. इसलिए 'Doomsday' आएगा, जरूर आएगा. प्रलय का दिन.
इस घड़ी में 12 बजने का मतलब कयामत आ गई है, और ऐसा होने में बचे हैं सिर्फ '89 सेकेंड'!
Doomsday Clock को अल्बर्ट आइंस्टीन और रॉबर्ट ओपनहाइमर जैसे महान वैज्ञानिकों द्वारा बनाई गई संस्था Bulletin Of Atomic Scientists चलाती है. हमने सुविधा के लिए घड़ी लिखा, हालांकि ये एक तरह का टाइमर है.

लेकिन कब, ये किसी को नहीं पता. वैज्ञानिक अलग-अलग अनुमान लगाते हैं. उन्होंने एक घड़ी भी बनाई थी. कयामत का वक्त बताने वाली घड़ी. जिस दिन इस घड़ी में 12 बजे, समझ लेना है कि सर्वनाश आ गया है.
Doomsday Clockइस घड़ी को अल्बर्ट आइंस्टीन और रॉबर्ट ओपनहाइमर जैसे महान वैज्ञानिकों द्वारा बनाई गई संस्था Bulletin Of Atomic Scientists चलाती है. हमने सुविधा के लिए घड़ी लिखा, हालांकि ये एक तरह का टाइमर है. इसके मुताबिक जब इस घड़ी में 12 बजेंगे, तो वो कयामत का दिन होगा. इसीलिए इस घड़ी को Doomsday Clock माने 'प्रलय या कयामक की घड़ी' नाम दिया गया है.

Bulletin of The Atomic Scientists को 1945 में मशहूर वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन, रॉबर्ट ओपनहाइमर और यूजीन रबीनोविच ने यूनिवर्सिटी ऑफ शिकागो के कुछ विद्वानों के साथ मिलकर शुरू किया था. 1947 में इसने डूम्सडे क्लॉक के आइडिया को सामने रखा. इस ऑर्गेनाइजेशन का 'साइंस एंड सिक्योरिटी बोर्ड' इस घड़ी का समय तय करता है. बोर्ड के सदस्यों में नोबल पुरस्कार जीतने वाले वैज्ञानिक भी शामिल होते हैं.
ये घड़ी एक सिंबॉलिक टाइमर है. यानी इस घड़ी का बताया टाइम एक्जैक्ट नहीं होता. इस पर दिखाया गया समय सिर्फ दुनिया की मौजूदा स्थिति को दर्शाने का एक प्रयास है, कि सब ठीक चल रहा है या कुछ गंभीर समस्याएं खड़ी हो गई हैं. जैसे-जैसे घड़ी की सुई 12 बजने के नजदीक पहुंचेगी, समझ जाना है कि पृथ्वी पर हालात और ज्यादा विनाशकारी होते जा रहे हैं.

आमतौर पर घड़ियां आगे की तरफ बढ़ती है. जैसे पहले 1 बजेगा फिर 2 बजेंगे. पर डूम्सडे क्लॉक एक टाइमर की तरह काम करती है. इसमें एक कहावत का जिक्र आता है- ‘Time Left To Midnight’. मिडनाइट का एक अर्थ पूरी तरह तबाह होने से है. ये घड़ी भी समय कुछ इस तरह बताती है. यानी पूरी तबाही होने में कितना समय बचा है.
1947 में जब ये घड़ी बनी तब इसके समय को आधी रात से 7 मिनट पहले सेट किया गया. यानी 11 बजकर 53 मिनट. लेकिन 1949 में जैसे ही सोवियत संघ ने न्यूक्लियर टेस्ट किया, इस घड़ी का समय 11:57 कर दिया गया. यानी मिडनाइट से 3 मिनट पहले. फिर साल 1953 में एक नए हथियार की होड़ शुरू हुई. नाम था हाइड्रोजन बम. 1952 में अमेरिका की टेस्टिंग के बाद 1953 में सोवियत संघ ने भी हाइड्रोजन बम टेस्ट किया. दुनिया को कयामत के करीब ले जाने वाले इस हथियार की होड़ को देखते हुए घड़ी के समय को मिडनाइट से 2 मिनट पहले कर दिया गया.
कैसे काम करती है?इस घड़ी में फिलहाल कयामत के लिए 89 सेकेंड्स का समय बचा है. यानी हमारी दुनिया तबाही के बहुत करीब है. इसके कई कारण हैं. जैसे क्लाइमेट चेंज, न्यूक्लियर हथियारों का खतरा, दुनियाभर में चल रहे बड़े युद्ध आदि. इन सभी कारणों को ध्यान में रखते हुए वैज्ञानिकों की टीम इस घड़ी का समय घटाती या बढ़ाती है. क्लाइमेट चेंज की वजह से दुनिया के अलग अलग हिस्से में प्राकृतिक तबाही मच रही है.
संयुक्त राष्ट्र (UN) की एक संस्था है, Intergovernmental Panel on Climate Change (IPCC). ये संस्था क्लाइमेट चेंज पर नजर रखती है. IPCC के मुताबिक पिछले 50 सालों में इतना कार्बन उत्सर्जन (Carbon Emission) हुआ है कि पहले के मुकाबले धरती का तापमान 1.1 डिग्री सेल्सियस बढ़ गया है. इसकी वजह से ग्लेशियर पिघल रहे हैं. कुछ इलाकों में बारिश इतनी बढ़ गई है कि अक्सर बाढ़ की समस्या सामने आ रही है. जैसा बीते साल चेन्नई में हुआ.
साल 2100 तक धरती का तापमान 3 डिग्री सेल्सियस बढ़ सकता है. अगर ऐसा हुआ तो सारे ग्लेशियर पिघल जाएंगे. दुनिया की 50% आबादी को पानी नहीं मिलेगा. 14% लोगों को भयानक लू का सामना करना पड़ेगा. सारे टापू डूब जाएंगे और जानवरों, पेड़-पौधों की कई प्रजातियां विलुप्त हो जाएंगी.

इसके अलावा चीन, रूस और अमेरिका जैसे देश अपने न्यूक्लियर हथियारों को बनाने और उनका आधुनिकीकरण करने के लिए पानी की तरह पैसा बहा रहे हैं. ईरान जैसे देश भी न्यूक्लियर हथियार हासिल करने के लिए हरसंभव प्रयास कर रहे हैं. इन सारे कारणों को ध्यान में रखकर Bulletin of The Atomic Scientists के वैज्ञानिकों ने घड़ी में सिंबॉलिक समय सेट किया है.
यानी वैज्ञानिक समझते और आंकलन करते हैं कि ये परिस्थितियां मानव अस्तित्व के लिए कितना बड़ा खतरा हैं. इस आधार पर डूम्स्डे क्लॉक का टाइम सेट करते हैं कि 'कयामत की आधी रात' होने में कितना समय बाकी है. हालात सुधरे तो टाइमर में बदलाव किया जा सकता है.

उदाहरण के लिए, अमेरिका ने 1953 में हाइड्रोजन बम का टेस्ट किया. तब वैज्ञानिकों ने तबाही का सिंबॉलिक समय 2 मिनट किया. लेकिन 1963 में 'पार्शियल टेस्ट बैन ट्रीटी' साइन हुई. अमेरिका, ब्रिटेन और सोवियत संघ ने इस संधि पर साइन किए. इसके हिसाब से कोई भी न्यूक्लियर टेस्ट हवा, स्पेस या पानी में नहीं किया जा सकता. इस समझौते से लोग सुरक्षा को लेकर आश्वस्त हुए.
न्यूक्लियर बम के टेस्ट में रेडिएशन निकलता है जिससे कैंसर जैसी जानलेवा बीमारी होती है. अगर ये टेस्ट खुले आसमान या पानी में होंगे तो लोगों की जिंदगी को खतरा होगा. इस टेस्ट बैन ट्रीटी से ये खतरा टल गया. तब इस घड़ी का टाइम 2 मिनट से बढ़ाकर 12 मिनट किया गया.
कब-कब बदला समय?78 सालों के इतिहास में कई बड़े जियोपॉलिटिकल इवेंट्स हुए जिन्होंने मानव जाति को प्रभावित किया. इन इवेंट्स की वजह से कई बार इस घड़ी का समय बदला गया.

1974 तक ये समय 10-12 मिनट के बीच रहा. फिर उसी साल बुद्ध पूर्णिमा के दिन भारत ने न्यूक्लियर टेस्ट Operation Smiling Buddha को अंजाम दिया. तब फिर से वैज्ञानिकों ने समय घटा कर 9 मिनट कर दिया. यानी इस घड़ी के समय को घटाने में भारत की भी भागीदारी रही है.
इस घड़ी के हिसाब से दुनिया के लिए सबसे सुरक्षित समय साल 1991 में रहा. इस साल सोवियत संघ के टूटने के बाद शीत युद्ध यानी कोल्ड वॉर खत्म हुई. वैज्ञानिकों ने तब इस घड़ी के समय को बढ़ा कर 17 मिनट कर दिया था.

पर ये शांति ज्यादा समय तक नहीं रही. साल 1995 में अमेरिका और नॉर्वे के साइंटिफिक मिशन के लिए छोड़े गए रॉकेट को रूस ने न्यूक्लियर मिसाइल समझ लिया. रूस के राष्ट्रपति बोरिस येलस्तीन अमेरिका पर न्यूक्लियर अटैक करने की सोचने लगे. शीत युद्ध खत्म होने के बाद से ये पहला मौका था जब दुनिया पर फिर से न्यूक्लियर तबाही का खतरा मंडरा रहा था. ये वो दौर था जब दुनिया में 40 हजार से अधिक न्यूक्लियर हथियार थे. साथ ही ये चिंता भी पनप रही थी कि कम सुरक्षा वाली न्यूक्लियर फैसिलिटीज़ पर आतंकी संगठन कब्जा कर सकते हैं. लिहाजा घड़ी का समय घटाकर 14 मिनट कर दिया गया.
1998- इस साल भारत ने फिर न्यूक्लियर परीक्षण किया. हालात और डरावने हो गए जब इसके तीन हफ्तों बाद पाकिस्तान ने भी अपने न्यूक्लियर हथियारों का परीक्षण किया. रूस और अमेरिका पहले से ही एक-दूसरे को आंख दिखा रहे थे. दोनों देशों ने एक दूसरे पर 7 हजार से ज्यादा न्यूक्लियर हथियार तान रखे थे. इन सभी कारणों को देखते हुए घड़ी को 9 मिनट पर ला दिया गया.
2002- 9/11 के हमले के बाद अमेरिका ने पूरी दुनिया, खासकर अफ़ग़ानिस्तान में वॉर ऑन टेरर शुरू किया. उस समय सबसे बड़ी चिंता ये थी कि न्यूक्लियर हथियार ऐसे संगठनों के हाथ में न पड़ जाएं जो किसी सरकार का हिस्सा न हों. जियोपॉलिटिकल भाषा में इन्हें Non-State Actors कहा जाता है. वॉर ऑन टेरर के दौरान ही इसी अमेरिका ने सोवियत संघ के साथ 1972 में हुई 'Anti-Ballistic Missile Treaty' तोड़ दी. लिहाजा वैज्ञानिकों ने घड़ी को 7 मिनट पर ला दिया.

2007- इस साल नॉर्थ कोरिया ने न्यूक्लियर टेस्ट किया. दुनिया को ये चिंता हुई कि ईरान भी अपना न्यूक्लियर बम बनाने की दिशा में आगे बढ़ चुका है. और हमेशा की तरह रूस और अमेरिका एक दूसरे पर हथियार ताने हुए थे. इन सभी कारणों को देखते हुए वैज्ञानिकों ने कयामत की घड़ी को 5 मिनट पर सेट किया.
2010- Doomsday Clock के हिसाब से इस साल मानव जाति को जीने की आस मिली. साल की शुरुआत से पहले डेनमार्क के कोपनहेगन में United Nations Climate Change Conference हुई. सभी विकासशील और औद्योगिक देश कार्बन उत्सर्जन कम करने पर सहमत हुए. अमेरिका और रूस के बीच न्यूक्लियर हथियारों को कम करने को लेकर बातचीत शुरू हुई. इसे देखते हुए घड़ी के समय को एक मिनट बढ़ा कर 6 मिनट कर दिया गया.
2012- दुनिया को न्यूक्लियर हथियारों से मुक्त करना और क्लाइमेट चेंज के कारण होने वाले गंभीर नुकसानों पर दुनिया ने ध्यान नहीं दिया. किम जोंग-उन की बयानबाजी ने एशिया में न्यूक्लियर युद्ध की संभावना को बढ़ा दिया. मध्य-पूर्व और दक्षिण एशिया में भी स्थिति तनावपूर्ण बनी रही. इन कारणों से घड़ी एक बार फिर कयामत के नजदीक आई और इसे 5 मिनट पर ला दिया गया.
2015- अनियंत्रित क्लाइमेट चेंज, न्यूक्लियर हथियारों का आधुनिकीकरण और बड़े पैमाने पर न्यूक्लियर हथियारों का भंडार मानव अस्तित्व के लिए खतरा बनता जा रहा था. विश्व के नेता नागरिकों को संभावित तबाही से बचाने के लिए जरूरी कदम उठाने में विफल रहे. इस बीच अमेरिका और रूस ने अपने न्यूक्लियर ट्रायड को आधुनिक बनाने के लिए बड़े पैमाने पर कार्यक्रम शुरू किए. और इन वजहों से ये घड़ी कयामत से बस 3 मिनट दूर रह गई.
साल 2017 में इन्हीं बढ़ते खतरों को देखते हुए घड़ी को आधा मिनट और कम किया गया और ये घड़ी ढाई मिनट पर आ गई. इसके अगले साल 2018 में फिर से घड़ी को आधा मिनट पीछे किया गया और कयामत का समय 2 मिनट रह गया. 2020 आते-आते क्लाइमेट चेंज और न्यूक्लियर खतरों के अलावा साइबर खतरों ने भी दुनिया को अपनी गिरफ्त में लेना शुरू किया. बुलेटिन ने इस घड़ी को और घटाया और इसे 100 सेकेंड पर लाया दिया. 2023 तक वैश्विक तबाही के आसार इतने बढ़ गए कि घड़ी को फिर से दस सेकेंड पीछे कर के 90 सेकेंड पर लाया गया.
मिनट से शुरू हुई घड़ी जब सेकेंड के पैमाने में आ जाए तो निश्चित तौर पर ये चिंताजनक बात थी. सेकेंड में गिने जाने के बाद से इस घड़ी का एक-एक सेकेंड मायने रखने लगा. 2025 में इस घड़ी का समय एक सेकेंड घटाकर 89 सेकेंड किया गया है. इससे ये साफ है कि दुनिया में चल रहे युद्ध, क्लाइमेट चेंज की वजह से होने वाले बदलाव और हथियारों की बढ़ती होड़ दुनिया को विनाश के करीब ले जा रही है.
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