केमिस्ट्री के नोबेल पुरस्कार (Nobel Prize 2024 in Chemistry) की घोषणा 9 अक्टूबर को की गई. नाम आया तीन लोगों का. डेविड बेकर, डेमिस हसबिस और जॉन जम्पर. नाम के साथ इनके काम की भी चर्चा हुई. बताया गया कि प्रोटीन को समझने में इनके योगदान के लिए, इन्हें ये सम्मान दिया गया है. इन्होंने प्रोटीन की संरचना (Protein Structure) को समझने का कोड क्रैक किया था. आइए सरल भाषा में समझते हैं, ये सब है क्या?
ये AI वाले प्रोटीन का तिकड़म क्या है, जिसके लिए इस बार केमिस्ट्री का नोबेल मिला है?
साल 2024 का Chemistry Nobel prize तीन साइंटिस्ट्स को साझा तौर पर दिया गया है. जिनका काम प्रोटीन्स की संरचना से जुड़ा है. समझते हैं, इस पूरे मामले से हमें क्या फायदा होगा?
इस साल केमिस्ट्री में जो खोजें चर्चा में हैं. उसे लेकर नोबेल कमिटी ऑफ केमिस्ट्री के चेयर हीनर लिंक कहते हैं,
इस साल जिन खोजों को यह पुरस्कार दिया जा रहा है, उसमें से एक बेहतरीन प्रोटीन को बनाने से जुड़ी है. वहीं दूसरी 50 साल पुराने सपने को पूरा करने से जुड़ी है. जिसमें एमीनो एसिड के क्रम से प्रोटीन की संरचना का अनुमान लगाया जा सकता है. दोनों खोजें अपार संभावनाओं को खोलती हैं.
अब इन दोनों खोजों को एक-एक करके समझते हैं.
पहली खोज के लिए, आज से कुछ 20 साल पहले चलते हैं. जब साल 2003 में ये कारनामा किया गया. और एक ऐसा प्रोटीन बनाया गया, जो कुदरत में मौजूद था ही नहीं. भला ये कैसे?
दरअसल, प्रोटीन आमतौर पर 20 अलग-अलग तरह के एमीनो एसिड (Amino Acids) से मिलकर बने होते हैं. जिन्हें जिंदगी की ईंटें कहा जा सकता है. जैसे कोई घर ईंटों से बनता है, वैसे ही प्रोटीन इन एमीनो एसिड नाम की ईंटों से बना होता है.
कहें तो ये एक खास तरह के केमिकल अणु होते हैं, जो खास क्रम और संरचना में जुड़कर खास प्रोटीन बनाते हैं.
माने ये ईंटें जिस हिसाब से लगती हैं, उस हिसाब से अलग-अलग प्रोटीन बनते हैं. जैसे कोई घर बनाया जा रहा हो. मतलब, इन 20 अलग-अलग तरह की ईंटों को जिस क्रम में सेट किया जाता है, उससे लाखों प्रोटीन्स की संरचना तय होती है.
साल 2003 में बेकर ने इन्हीं ईंटों यानी एमीनो एसिड को अपने हिसाब से सेट किया. और ऐसा प्रोटीन बना डाला जो किसी दूसरे प्रोटीन से एकदम अलग था. यह एक काल्पनिक प्रोटीन था.
सवाल ये कि ये प्रोटीन बना कर क्या फायदा निकलता है? दरअसल, ये प्रोटीन्स दवाओं, वैक्सीन और नैनोमटेरियल यानी बेहद छोटे मटेरियल्स में इस्तेमाल किए जा सकते हैं.
फर्ज करिए कोई बीमारी है जिसमें कोई खास प्रोटीन बनता है या नहीं बनता है.
अब अगर इस बीमारी को समझना है तो इस प्रोटीन की संरचना को समझना भी जरूरी है, ताकि इलाज के तरीके खोजे जा सकें.
जैसे कोविड-19 के समय एक नाम सुनने मिला था, SARS-CoV-2 spike protein. इस प्रोटीन की संरचना को समझने की कोशिश भी की गई थी, ताकि एंटीवायरल दवा या वैक्सीन बनाई जा सके.
AI की मदद से हो रहा ये कामअब बात करते हैं, साझा पुरस्कार में सुनाई देने वाली दूसरी खोज की. जो जुड़ी है इन प्रोटीन्स की संरचना का अनुमान लगाने से. जैसा कि हमने आपको बताया कि ये प्रोटीन जिन ईंटों से मिलकर बने होते हैं, उनका एक सीक्वेंस या क्रम होता है.
ये उसी हिसाब से मुड़कर एक खास संरचना बनाते हैं. जो 3D होती है. यानी इसमें लंबाई, चौड़ाई और ऊंचाई होती है. किसी घर की तरह.
अब हर घर चाहे बने एक जैसे ईंटों से, उसकी संरचना में कुछ बुनियादी अंतर तो होते ही हैं. किसी घर में कोई कमरा यहां कोई कमरा वहां. यही होता है प्रोटीन में, इनकी संरचना में बुनियादी अंतर होते हैं. जो इनकी अलग अलग संरचना से जुड़े हैं. और इनका काम करने का तरीका भी इनकी संरचना से जुड़ा रहता है.
1970 के दशक से रिसर्चर्स कोशिश कर रहे हैं कि इन एमीनो एसिड के सीक्वेंस से प्रोटीन की संरचना को समझ सकें. फर्ज करिए कि अगर आपको बता दिया जाए कि फलां प्रोटीन में इस एमीनो एसिड के बाद ये एमीनो एसिड है. और इस जानकारी के आधार पर उसकी संरचना बता दी जाए.
लेकिन ये सुनने में जितना आसान लगता है था उतना ही मुश्किल. अलग-अलग प्रोटीन्स की संरचना बताने में रिसर्चर्स सालों लगाते रहे हैं.
लेकिन कुछ चार साल पहले इस सिलसिले में एक बड़ी उपलब्धी हासिल हुई.
साल 2020 में डेमिस हसबिस और जॉन जम्पर ने एक AI मॉडल प्रेजेंट किया, नाम था अल्फाफोल्ड2 (AlphaFold2). बताया जाता है कि इस मॉडल की मदद से, अब तक पहचाने गए - लगभग सभी दो हजार लाख प्रोटीन्स की संरचना को समझ सकते हैं.
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अब फिर वही सवाल इससे क्या फायदा निकला? तो बता दें 190 देशों के कुछ 20 लाख लोगों ने अल्फाफोल्ड का इस्तेमाल किया है. इसके इस्तेमाल से रिसर्चर्स अब एंटीबायोटिक रेजिस्टेंस यानी एंटीबायोटिक दवाओं के प्रतिरोधक होने को बेहतरी से समझ सकते हैं. यानी एंटीबायोटिक दवाएं जब असर करना बंद कर देती हैं.
साथ ही एंजाइम्स की बेहतर तस्वीर बना सकते हैं, जो प्लास्टिक को डिग्रेड या नष्ट कर सकते हैं. दरअसल ये तो हम जानते हैं कि आज प्लास्टिक से निपटना बड़ी समस्या है. केमिकल्स या रीसाइकलिंग कुछ मौजूदा तरीके हैं.
साथ ही ये पर्यावरण को लेकर भी कई दिक्कतें पैदा करते हैं. इसलिए साइंटिस्ट्स, बॉयोलाजिकल तरीकों से यानी एंजाइम्स की मदद से प्लास्टिक से निपटने की कोशिशें भी कर रहे हैं हैं.
ये एंजाइम्स भी खास तरह के प्रोटीन होते हैं, जिन्हें समझने में इस तकनीक से खासी मदद मिल सकती है.
और चूंकि प्रोटीन्स के बिना जीवन संभव नहीं है, इसलिए अगर इनको समझा जा सके तो जीवन को और बेहतरी से समझा जा सकेगा.
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