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आंखों की जांच के टाइम ये तस्वीरें जरूर देखी होंगी, इनका 'असली काम' अब पता चला है!

Science Explained: आप अगर कभी आंखों की जांच वगैरा करवाने गए हों, मुमकिन है आपने कुछ तस्वीरों को आंखें टेस्ट करने वाली मशीन के भीतर देखा होगा. कई बार हमको लग सकता है कि इन तस्वीरों से ही आंखों के चश्मे के पावर का अंदाजा लगाया जाता है. लेकिन असली मामला होता है इससे इतर.

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इस कहानी से बड़ी शिक्षा मिलती है.

मेन मुद्दे (Eye Test) पर बाद में आते हैं, पहले कहानी सुनते हैं, जो कभी स्कूल में पढ़ी थी. एक शख्स अपनी आंखों का इलाज करवाने के लिए डॉक्टर के पास जाता है. डॉक्टर उसे कई तरह के लेंस पहनाता है और दीवार पर टंगी एक तख्ती की तरफ इशारा करता है. उस पर लिखे अक्षरों को पढ़ने के लिए कहता है. 

डॉक्टर सबसे छोटे अक्षरों की तरफ उंगली करके पूछता है,

सबसे ऊपर वाली लाइन में क्या लिखा है पढ़ो?

शख्स ना में जवाब देता है.

फिर डॉक्टर उससे दूसरी, तीसरी और चौथी लाइन की तरफ इशारा करके सेम सवाल पूछता है. क्या लिखा है? और हर बार शख्स वही जवाब देता है, पता नहीं.

फिर डॉक्टर तख्ती की आखिरी पंक्ति में लिखे सबसे बड़े अक्षरों की तरफ इशारा करता है. इसमें क्या लिखा है, ये तो बता दो? शख्स का वही जवाब रहता है, नहीं समझ आ रहा.

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चश्मा तो ठीक है

डॉ. अचंभे में आ जाता है. पूछता है कि मैं दिखाई दे रहा हूं? शख्स जवाब देता है, हां.

फिर एक छोटी सी चीज को कुछ दूर रखकर पूछता है, क्या ये दिखाई दे रहा है? जवाब हां, में मिलता है. 

अब डॉक्टर का माथा झन्ना जाता है. कहता कि तुम्हें ये छोटी सी चीज दिख रही है. और तुम इतने बड़े अक्षर नहीं देख पा रहे? तो शख्स जवाब देता है कि साहब देख तो पा रहे हैं. बस पढ़ नहीं पा रहे. हमको अंग्रेजी नहीं आती.

इस कहानी की शिक्षा

खैर, इस कहानी से क्या शिक्षा मिलती है? वो आप समझिएगा. पर हम इतना तो समझ गए कि मैनुअली आंखों की जांच में कुछ दिक्कतें आ सकती हैं. मसलन, अगर किसी को पढ़ना नहीं आता. या कम-ज्यादा लाइट वगैरह के चलते कोई ठीक से अक्षर ना पहचान पाए. तब ठीक तरह से जांच करना बल का काम हो सकता है.

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इन्हीं दिक्कतों से राहत, आंखों की जांच करने वाली मशीन से मिलती है, जिसे ऑटोरिफ्रैक्टर कहा जाता है. लेकिन अगर कभी आप आंखों की जांच कराने गए हों, तो मुमकिन है- टेस्ट के लिए आपको ठुड्डी इस मशीन में लगे सपोर्ट पर रखने को कहा गया होगा.

फिर आप से मशीन में कुछ तस्वीरों को देखने के लिए कहा गया हो. इन तस्वीरों में अक्सर ‘हॉटएयर’ बलून या एक घर का कार्टून सा दिखता है. नीचे लगी तस्वीर से आप याद को फिर से ताजा कर सकते हैं. फिर बताते हैं, इनके पीछे की पूरी कहानी.

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जांच वाली मशीन में कुछ ऐसी तस्वीरें देखने मिलती हैं (तस्वीर; सोशल मीडिया)
आंखों के भीतर का लेंस हो सकता है एडजस्ट

अब आंखों की जांच के पीछे के पूरे मामले को समझने के लिए, हमें आंखों की संरचना के बारे में थोड़ा सा, हौले से समझना होगा.

हमारी आंख एक खांचे में फिट होती है, जिसको ऑर्बिट कहते हैं. छह एक्सट्राऑक्युलर मसल्स आंख को आर्बिट से जोड़कर रखती हैं. जिनकी मदद से ये दाएं-बाएं या ऊपर नीचे देख सकती हैं.

अब देखने की बात चली है, तो उस हिस्से की बात करते हैं, जो आंख में बाहर से हमें दिखता है. सफेदी के बीच, एक गोल काला सा हिस्सा हमको दिखता है, जिसे आइरिस कहते हैं. वहीं इसके बीच एक डार्क छोटा सा छेद सा दिखता है, जिसे प्युपिल कहते हैं. इसे छोटा-बड़ा करके आंख के भीतर जाने वाली लाइट को कंट्रोल किया जाता है.

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आंख की संरचना में, फोकस करने का मेन काम लेंस का होता है (विकीमी़डिया)

अब इसके ठीक पीछे होता है, आंख का लेंस. जिसका काम होता है, आंखों के पीछे के पर्दे या रेटिना पर इमेज को फोकस करना. ताकि बाहर की तस्वीर पर्दे पर बने. और दिमाग उसे पढ़ सके.

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यानी पास की चीज देखनी है, तो लेंस एडजस्ट कर लिया. दूर की चीज देखनी है, तो और कर लिया. कुल मिलाकर काम है तस्वीर को पर्दे पर फोकस करने का. जैसे किसी लेंस को आगे पीछे करने पर, लाइट का फोकस हम बदल लिया करते हैं वैसे ही.

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चश्मों की मदद से इमेज को रेटिना पर फोकस किया जाता है (विकीमीडिया)
पास का चश्मा क्यों?

अब अगर आंख के इस पूरे सिस्टम में कुछ गड़बड़ी हो जाए, तो पास या दूर की चीजें देखने में दिक्कत होने लगती है. ऐसे में तस्वीर कहां बन रही? परदे के पहले या बाद में, ये सब जानने के लिए हमको मशीन वगैरह का सहारा लेना पड़ता है. 

ताकि चश्मा लगाकर उसे ठीक किया जा सके. क्योंकि चश्मे के लेंस को इस हिसाब से तराशा जाता है कि वो आंख के भीतर बनने वाली इमेज को सीधा परदे तक पहुंचाए.

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लेंस की मदद से कुछ ऐसे किरणों का फोकस बदला जाता है
मशीन में गुब्बारे वाली तस्वीर

अब आते हैं मशीन से मेजरमेंट के मुद्दे पर. जब आप मशीन में देखते हैं, तो मशीन से इन्फ्रारेड लाइट आपकी आंखों में भेजी जाती है. लेकिन इन्फ्रारेड लाइट को हम देख नहीं सकते हैं.

ये लाइट की किरणें आंख में जाकर वापस आती हैं, और ये जिस एंगल पर वापस आती हैं, इस सब के आधार पर अंदाजा लगाजा जाता है कि फोकस कहां पर हो रहा है? आंखों के विजन को कितना एडजस्ट करने की जरूरत है?

लेकिन सही रीडिंग के लिए हमारा लेंस रिलैक्स होना चाहिए. नहीं तो अगर हम पास की चीज़ पर फोकस कर रहे होंगे, तो हमारा लेंस उसी हिसाब से एडजस्ट होगा. और रीडिंग बिगड़ सकती है.

इसकी वजह से हमें एक तस्वीर दिखाई जाती है. जैसे ये गुब्बारे या घर के कार्टून की तस्वीर. ताकि हमारी आंखें दूर किसी चीज पर फोकस करें. और रिलैक्सड और नेचुरल हालत में रहें. ताकि बराबर रीडिंग मशीन को मिल सके.

अपने चश्मे वाले साथी को ये भेजकर जरा पूछिए, क्या उसे ये 'राज़' मालूम था!

वीडियो: चश्मा हटाने का दावा करने वाली दवा पर बैन