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सोशल मीडिया पर 'ब्राह्मण जीन' का भोकाल बना रहे लोग, लेकिन ऐसा कुछ होता भी है?

Brahmin Genes Row: यूनिक जेनेटिक प्रोफाइल के आधार पर फॉरेंसिक्स में बहुत मदद मिलती है. बताया जाता है कि जेनेटिक प्रोफाइल के आधार पर 99% तक बताया जा सकता है कि फला शख्स किस जगह से ताल्लुक रखने वाला था.

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जीन्स, DNA से बने होते हैं. सांकेतिक तस्वीर (Image: Social Media)

आपने अब तक सोशल मीडिया पर वायरल हैशटैग, ‘Brahmin genes’ के बारे में तो सुन ही लिया होगा. नहीं सुना, तो अब तक की मोटा-माटी कहानी हम आपको बता देते हैं. एक महिला ने 22 अगस्त को अपने X अकाउंट से एक पोस्ट शेयर किया. पोस्ट में महिला की एक तस्वीर थी. जिसमें वो एक हाथ में नारियल पकड़े थीं और दूसरे हाथ की ट्राइसेप्स मसल्स दिखा रही थीं. साथ में लिखा था, ‘Brahmin genes’. फिर क्या था? बात श्रेष्ठता, जाति और आरक्षण तक पहुंच गई. पक्ष-विपक्ष में तमाम तरह की बातें कही गईं. इन बातों में साइंस का एक शब्द सुनने मिला ‘Genes.’ अब ये पूरा ‘Brahmin genes’ का मामला समझने के लिए हमने बात की एक्सपर्ट से. आइए समझते हैं ये पूरा मामला.

दरअसल, महिला के इस पोस्ट पर, ‘इस तरफ-उस तरफ’ दोनों तरफ से कॉमेंट्स किए गए. एक सज्जन ने चैलेंज तक कर डाला. कहा इनमें से कोई साबित करे कि इनमें ‘Brahmin genes’ जैसी कोई चीज है. कहा अगर ये ऐसा कर सकें तो वो जीन मैपिंग का पैसा देने के लिए भी तैयार हैं.

‘इधर-उधर’ दोनों तरफ की बात हो गई. लेकिन हम तो साइंस की तरफ से हैं. समझते हैं कि क्या कोई ‘Brahmin genes' जैसी चीज है?

एक साहब ने इसमें ‘Eugenics’ की बात भी की, अब भला ये क्या बला है ये भी समझते चलेंगे.

अब जीन (Gene) शब्द हम इतनी बार सुन चुके हैं. तो सबसे पहले समझ लेते हैं कि आखिर ये होता क्या है?

फर्ज करिए आपके शरीर का कोई अंग है. अपने हाथ को ही ले लीजिए, अब अगर हाथ के एक छोटे से हिस्से को लिया जाए, तो वो किसी टिशू (Tissue) से बना होगा. अब टिशू के भीतर और जूम करें, तो दिखेगा कि ये बना है- कई छोटी-छोटी कोशिकाओं से. अब अगर इन कोशिकाओं को और जूम किया जाए तो हमें दिखेंगे- गुणसूत्र या क्रोमोजोम(Chromosome).

ये वही हिस्सा है जो एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में जरूरी बॉयोलाजिकल जानकारी लेकर जाता है. किसी मेमोरी कार्ड की तरह.

अब एक क्रोमोजोम को लेकर उसमें जूम किया जाए, तो हमें दिखेगा हमारा DNA. जो कई तरह के केमिकल वगैरा से मिलकर बना होता है. अब ये जो DNA है, इससे बने होते हैं- हमारे जीन (Gene). इनका काम होता है एक वंश से दूसरे वंश में जानकारी को पहुंचाना. और प्रोटीन वगैरा बनाने की जानकारी रखना.

जानकारी, मसलन आंखों का रंग हो गया. कलर ब्लाइंडनेस या कुछ रंगों में भेद ना कर पाने की बीमारी हो गई. या फिर दूध पचाने की क्षमता. जी, ये शक्ति भी जीन्स के जरिए ही एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुंचती हैं. इसे साइंस की भाषा में लैक्टोज़ टॉलरेंस कहते हैं. यानी दूध की शुगर, लैक्टोज़ पचाने की क्षमता. अब हम जीन्स को समझ गए. 

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 DNA और कुछ प्रोटीन वगैरा मिलकर क्रोमोजोम बनाते हैं.
Eugenics क्या है?

जब इंसानों को मालूम चला कि कुछ जेनेटिक ट्रेट्स या गुणों को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुंचाया जा सकता है. तो एक दौर में ये भी सोचा गया कि कुछ खास गुणों को चुनकर, क्यों ना इंसानों को बुरे गुणों से मुक्त कर दिया जाए.

यूजेनिक्स (Eugenics) के शुरुआती समर्थकों को ये भी लगता था कि दिमागी बीमारियां, जुर्म करने की आदत, यहां तक गरीबी को भी सेलेक्टिव ब्रीडिंग से लोगों के जीन पूल से बाहर किया जा सकता है. सेलेक्टिव ब्रीडिंग जिसमें कुछ खास गुणों को पाने की चाह में प्रजनन करवाया जाता है. 

इसके लिए तमाम अनैतिक प्रयोग भी किए गए, जबरन लोगों की नसबंदी करा दी गई. विश्व युद्ध के समय हिटलर ने तो नरसंहार तक कर डाला.

आज इस थ्योरी को साइंटिफिक तौर पर गलत बताया जाता है. इनब्रीडिंग या क्लोज रिलेटिव में रिप्रोडक्शन कई जेनेटिक बीमारियों का कारण भी बताया जाता है. यानी DNA के लेन देन में डायवर्सिटी को अच्छा माना जाता है.

ये तो हमने यूजेनिक्स को समझा जिसका जिक्र, पोस्ट पर एक कॉमेंट पर किया गया था. अब बात करते हैं जाति और जीन्स वाले मसले पर.

जाति और जीन्स

इस बारे में बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी में जंतु विज्ञान के प्रोफेसर ज्ञानेश्वर चौबे बताते हैं,

भारत में कोई भी जाति बड़े लंबे समय से रह रही है. भारतीय उप-महाद्वीप में करीब 70-80 हजार साल पहले से ह्यूमन पॉपुलेशन है. वहीं जातियों में बंटने की कहानी ज्यादा से ज्यादा 3-4 हजार साल पुरानी होगी.

जेनेटिक्स के आधार पर देखें, तो कुछ 2200 से 2500 साल पहले भारतीय शादियों को लेकर थोड़े स्ट्रिक्ट हो गए. माने शादियां कास्ट के बाहर होना लगभग बंद हो गईं. दो अलग-अलग जातियों के बीच में जीन फ्लो (जीन्स का लेन-देन) कम हो गया. जीन का सर्कुलेशन लिमिट हो गया. तो जाहिर सी बात है, इसकी वजह से हर एक कास्ट का एक यूनिक प्रोफाइल बनना शुरू हो जाएगा.

पहले इस मामले को सरल शब्दों में समझते हैं, फिर आगे बात करते हैं कि यूनिक प्रोफाइल का क्या माजरा है?

बकौल प्रोफेसर ज्ञानेश्वर चूंकि एक ही जातियों में शादियां लंबे समय से होती रही हैं. ऐसे में भारत के भूभाग को जीन्स के आधार पर कई हिस्सों में बांटा जा सकता है. आगे वो कहते हैं कि पर सभी के पूर्वज एक ही थे.

वो बताते हैं कि इस यूनिक प्रोफाइल के आधार पर फॉरेंसिक्स में बहुत मदद मिलती है. वो कहते हैं कि जेनेटिक प्रोफाइल के आधार पर 99% तक बताया जा सकता है कि फलां शख्स किस जगह से ताल्लुक रखने वाला था.

कहें तो एक तरह का जेनेटिक फिंगर प्रिंट. जैसे सब के फिंगर प्रिंट कुछ अलग होते हैं, लेकिन किसी के फिंगर प्रिंट को बेहतर या खराब नहीं कहा जा सकता है.

वो इससे जुड़ा एक उदाहरण भी देेते हैं. बताते हैं कि अमृतसर के अजनाला में एक कुएं में कई दशकों पुरानी कुछ हड्डियां मिली थीं. लेकिन हड्डियों को देखकर ये बताना मुश्किल था कि वो कहां रहने वाले शख्स की होगीं. पर हड्डियों की जीन्स की मदद से बताया गया कि वह हड्डियां गंगा के मैदानों में रहने वाले किसी शख्स की थीं.

दरअसल, इंसानी जीनोम या कहें एक कोशिका में पाया जाने वाला पूरा DNA इन्फ्रास्ट्रक्चर, जो बना होता है कई सारे (genes) जीन्स से मिलकर. ये किसी पॉपुलेशन में कम तो किसी पॉपुलेशन में ज्यादा हो सकते हैं.

वो आगे बताते हैं कि जीनोम लोगों में कुछ अलग हो सकते हैं. मसलन, हरियाणा की कुछ जातियों में दूध पचाने वाला जीन ज्यादा पाया जाता है. जिसकी बदौलत वहां वयस्कों की 70-75 फीसद जनसंख्या दूध पचा सकती है.

लेकिन ऐसा नहीं है कि सिर्फ यहीं के लोग ऐसा कर सकते हैं. कुछ ट्राइब्स में भी ये जीन ज्यादा पाया जाता है. वहीं उत्तर भारत के मैदानों में रहने वाले लोगों में भी ये जीन पाया जाता है. पर वहां ये हरियाणा की जातियों के मुकाबले ये कम लोगों में पाया जाता है. जिसकी वजह से हरयाणा के मुकाबले, वहां कम वयस्क पॉपुलेशन दूध पचा सकती है.

हालांकि, प्रोफेसर चौबे ये भी बताते हैं कि ऐसा भी नहीं है कि किसी एक जाति में कोई खास जीन मौजूद हो. अभी तक की रिसर्च में ऐसा ही पता चलता है.

वहीं अमेरिकन जर्नल ऑफ ह्यूमन जेनेटिक्स में छपी एक रिसर्च ये भी बताती है कि भारत की सभी पॉपुलेशन में मिक्सिंग हुई थी. यहां तक की सबसे अलग-थलग माने जाने वाले ट्राइबल ग्रुप्स में भी.

इस स्टडी से जुड़े बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर डॉ लालजी सिंह ने इस बारे में हार्वड पर छपे एक लेख में बताया था. बताया कि भारत की पॉपुलेशन एक रैंडमली मिक्सड या मिली जुली पॉपुलेशन से विकसित हुई है. बकौल डॉ सिहं ये बताता है पहले कास्ट सिस्टम अभी जैसा नहीं रहा होगा.

कहें तो कोई खास या एक्सक्लूसिव जीन नहीं है, जो किसी एक जाति में पाया जाता हो. अभी तक यही जानकारी मिलती है. सभी में तमाम तरह के जीन्स शामिल हैं.

वीडियो: सोशल लिस्ट: 'ब्राह्मण जीन' वाली कंट्रोवर्सी क्या है जो एक ट्वीट से शुरू होकर जाति की लड़ाई बनी?