दोनों ही कुत्तों ने कभी उमेश अंकल को नुकसान नहीं पहुंचाया. वे बस थे. होना चाहते थे. गली से खाना और दुलार मिलता रहे बस. मगर उनका होना ही उमेश अंकल की उलझन का सबब था. कहीं उनके फूल जैसे बच्चों को कुत्ते काट न लें. घर में गंदे पांव लेकर घुस न आएं. दिमाग न बढ़ जाए इनका. जबकि कुत्ते उमेश अंकल के बारे में सोचते हों, इसकी संभावना कम थी. ऐसा नहीं कि उमेश अंकल के परिवार में कभी किसी को कुत्ते ने काटा हो.
एक दिन सोते हुए शेरू पर उमेश अंकल ने अपनी मारुती 800 चढ़ा दी. पाजी भाग भी न पाया. कुत्तों को कौन अस्पताल ले जाता है. शेरू मर गया. उमेश अंकल के दरवाज़े कभी भौं-भौं नहीं हुई. बाकी को कुछ दिन वैसा-वैसा सा लगा फिर लोगों को शेरू के नाम की रोटियां न बनाने की आदत पड़ गई.
जब हमें किसी से बिना वजह डर लगता है तो उसे फोबिया कहते हैं. डर इसलिए नहीं कि वो व्यक्ति हिंसक है, बुरा है, या उसकी क्रिमिनल हिस्ट्री है. ऐसे व्यक्ति से डरने की सिर्फ एक ही वजह हो सकती है. कि वो आपके जैसा नहीं है. आपसे अलग आदतें, सोच और ख़याल रखता है. है न? वरना रिटायरमेंट की दहलीज़ पर खड़ा अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी का प्रफेसर आत्महत्या क्यों करता.
'गे' की पहचान
आज से लगभग 10 साल पहले प्रोफ़ेसर रामचंद्र सिरास अपना आखिरी इंटरव्यू दे रहे थे. किसी को नहीं मालूम था कि सेक्स राइट्स का देश में नया चेहरा बन चुके सिरास के वो आखिरी शब्द होंगे. उन्होंने पत्रकार बरखा दत्त से कहा था, 'मुझे आज बहुत शर्म आ रही है.'

2010 में प्रफेसर सिरास मृत पाए गए थे. उन्हें कानूनी न्याय मिल गया था. असल न्याय कभी नहीं मिला.
ये शर्म इस बात की नहीं थी कि सिरास को अध्यापन जैसे 'पवित्र' पेशे में होते हुए भी एक रिक्शे वाले के साथ सेक्स करते 'पकड़ा' गया था. बल्कि इस बात की थी कि उनकी निजता को नैशनल टीवी पर ऐसे खोलकर रख दिया गया था. जैसे वो पब्लिक एंटरटेनमेंट के लिए फिल्माया गया दृश्य हो.
प्रोफेसर सिरास गे थे. 'अलीगढ़' फिल्म में उनका किरदार निभाते हुए मनोज बाजपई कहते हैं, 'कोई मेरी पूरी आइडेंटिटी को मात्र तीन अक्षरों (GAY) में कैसे समेट सकता है?'
किसी की पूरी की पूरी पहचान को महज उसके सेक्स पार्टनर के चुनाव पर समेट देना होमोफोबिया का पहला कदम है. फिर उसे गालियां देना, उसका मज़ाक उड़ाना, चुटकुले बनाना, उसे सभ्य कहलाने वाले समाज से निष्कासित कर देना, उससे दोस्ती न करना और उसे खुद से अलग करवाने का कोई मौका न छोड़ना होमोफोबिया है. ये तो बेसिक है. अगर आप इसे गुनाह की श्रेणी में रख दें तो फिर इसके लिए जेल में डालना, पीटना, हत्या कर देना, या गुप्तांग काट लेना होमोफोबिया का नतीजा हैं.

'शुभ मंगल ज्यादा सावधान' होमोफ़ोबिया के बारे में है. इतने संवेदनशील मुद्दे को कैसे हैंडल किया जाता है, ये देखने लायक होगा.
वही होमोफोबिया, जिसको आयुष्मान खुराना का किरदार 'शुभ मंगल ज्यादा सावधान' के ट्रेलर में लाइलाज बीमारी बता रहा है.
होमोफोबिया
होमो का अर्थ है अपने जैसा. एक जैसा. एक ही सेक्स वाले दो लोग जब एक दूसरे से रिश्ता रखते हैं तो उन्हें होमो-सेक्शुअल कहते हैं. होमोसेक्शुअल यानी समलैंगिक होना या इसको ज़ाहिर करना हमारे समाज में आम नहीं है. इससे डरना और घबराना आम है. लेकिन ये इस घबराहट का जस्टिफिकेशन नहीं है.
होमोफोबिया का अर्थ है समलैंगिकों को हेय दृष्टि से देखना. यानी बैड लाइट में देखना. उनसे भेदभाव करना. उन्हें अलग मानना. इसके लेवल अलग-अलग हो सकते हैं. किसी समलैंगिक का मज़ाक उड़ाने से लेकर उनका रेप करने या उनकी हत्या तक. मगर मूल भावना एक ही होती है. नफरत.
होमोफोबिया सीधे शब्दों में समझने के लिए कुछ दलीलें देखिए. जो समलैंगिकता के विरोध में दी जाती है.
1. वो अप्राकृतिक है 2. उससे संतान नहीं होती 3. धर्म के खिलाफ है 4. मानसिक बीमारी है 5. इससे एड्स होता है
इस तरह की बातें कहना होमोफोबिया है.
होमोफोबिया सेक्सिज्म जितना आम है. यानी जैसे हम लड़कियों को पुरुषों से कमज़ोर और कम काबिल मानने के पहले जरा भी रुककर नहीं सोचते. वैसे ही समलैंगिकों के खिलाफ बोलने के पहले भी नहीं. या उनपर हंसने के पहले नहीं.

बाबा रामदेव का कहना था, योग से समलैंगिकता का इलाज हो सकता है.
दिन की शुरुआत में अंकल के वॉट्सऐप पर चुटकुला आता है. वो ऐसा है कि आदमी पुलिस के पास जाता है. शिकायत करता है मेरी बीवी खो गई. पुलिस वाला कहता है वाह ये कैसे किया तुमने, हमें भी ट्रिक बताओ. हमारी बीवी तो छोड़ती ही नहीं है. अंकल हंसते हैं. आंटी भी हंसती हैं क्योंकि वो इसी सिस्टम का हिस्सा हैं. जोक आगे बढ़ा दिया जाता है. इस चुटकुले में अंकल-आंटी को कोई खराबी नहीं दिखती. क्योंकि उनके लिए ये नॉर्मल है. कि पत्नी वो चुड़ैल है जो पति का खून चूसती है. फरमाइशें करती है. वो शाम को लौटता है तो कलह करती हैं.
इसी तरह कोई व्यक्ति गे है तो वो सभी पुरुषों पर डोरे डालेगा, उन्हें गलत ढंग से छुएगा, उनके बच्चों के लिए खतरा बन जाएगा. यहां तक कि ये वो वेश्यावृत्ति करता होगा, ग्रुप सेक्स में यकीन रखता होगा, नशा करता होगा और अस्वस्थ होगा- ये बातें लोग खुद ही अज्यूम कर लेते हैं. लड़की लेस्बियन हो तो उसके लिए भी ऐसी ही बातें. कि उसके घर में तमाम सेक्स टॉय निकलेंगे. उससे अपनी गर्लफ्रेंड को दूर कर लिया जाए. वगैरह. सबसे आम तो ये मानना है कि लड़के को कोई लड़की नहीं मिलती. या लड़की को कोई लड़का नहीं मिलता. तो वो समलैंगिक हो जाते हैं. इस तरह की सोच, जिसमें हममें से अधिकतर लोग जकड़े हुए हैं. उसे होमोफोबिया कहते हैं.
बॉलीवुड के 'नरम' हिजड़ानुमा मर्द
हिजड़ा और समलैंगिक दो बेहद अलग शब्द हैं, अलग अर्थ वाले. मगर चूंकि दोनों 'नॉर्मल' की परिभाषा में फिट नहीं होते. उन्हें एक ही मानकर एक दूसरे की जगह इस्तेमाल किया जाना आम है. इसलिए बॉलीवुड के समलैंगिक किरदार अक्सर रंग-बिरंगे कपड़े पहने दिखाए जाते हैं. जो लोगों से चीख-चीखकर कहें कि ये 'मर्द' नहीं हैं.
एक्टर सुरेश मेनन के कुछ किरदार शायद बॉलीवुड के सबसे घटिया किरदारों में से एक रहे हैं. बावजूद इसके कि सुरेश मेनन एक बेहद सधे और संवेदनशील एक्टर हैं. चाहे फिल्म 'पार्टनर' हो या 'मस्तीजादे', वो लड़कियों से कपड़े पहने, दूसरे मर्दों से चिपकते, 'केले' जैसे ऑब्जेक्ट्स पर द्विअर्थी संवाद करते दिखते हैं.

कांताबेन एक उम्रदराज़ महिला है जो अपने मालिक को लंबे समय तक गे समझती है. क्योंकि वो उसे अक्सर ऐसी ही अवस्था में मिलता है. ये संयोग ही होता है. उसे ऐसी अवस्था में देख वो इस कदर कांपती है जैसे कोई राक्षस देख लिया हो.
बॉलीवुड के गे किरदारों की असल में उनके गे होने के अलावा कोई आइडेंटिटी दिखती ही नहीं. 'दोस्ताना' और 'बोल बच्चन' जैसी फिल्मों में भी गे किरदार फूहड़, मूर्ख और किसी भी दूसरी पहचान से दूर हैं.
'कल हो न हो' की कांताबेन को यहां याद करना ज़रूरी है. ये एक उम्रदराज़ महिला है जो अपने मालिक को लंबे समय तक गे समझती है. क्योंकि वो उसे अक्सर ऐसी ही अवस्था में मिलता है. ये संयोग ही होता है. उसे ऐसी अवस्था में देख वो इस कदर कांपती है जैसे कोई राक्षस देख लिया हो. समलैंगिकता का राक्षस.
इन फिल्मों को बनाते समय ये नहीं सोचा गया कि इन्हें देखने वाले कई गे लड़के थोड़े और दब गए, उनके कंधे थोड़े और झुक गए, और अवसाद से घिर गए, वे थोड़े और मर गए, कुछ और रस्सियां फांसी में बदल गईं.
इंडिया और आयरनी का 'आई' एक है
एक समाज के तौर पर हम लोग लड़कों और लड़कियों को पूरी तरह अलग रखने का प्रयास करते हैं. स्कूल में अलग-अलग रो में बैठाते है. अलग हॉस्टल में रखते हैं. बेटियों से सभी लड़कों को 'भैया' कहलवाना अपनी ज़िम्मेदारी समझते हैं. लड़कों और लड़कियों के अलग-अलग स्पेसेज में एक-दूसरे की एंट्री नहीं होने देते. मगर ये कभी सोचते नहीं की जो काम (पढ़ें: सेक्स) लड़के-लड़कियां एक-दूसरे से कर सकते हैं. वो तो आपस में भी कर सकते हैं. सॉरी अंकल, सेक्स के राक्षस से आपके मासूम बच्चे कहीं सुरक्षित नहीं हैं.

भारतीय समाज को 'छूने' और सटकर बैठने से तकलीफ नहीं होती. मगर प्रेम से होती है.
टिक-टॉक खोलें तो ऐसे वीडियोज़ की भरमार मिलेगी जिसमें दो लड़कों में इतनी घनिष्ठता है कि वो बीच में आ रही एक लड़के की गर्लफ्रेंड को ठेंगा दिखा देते हैं. एक दूसरे के आंसू पोंछते हैं. एक दूसरे को गले लगाते हैं. 'सोनू के टीटू के स्वीटी' टाइप की फिल्मों में तो लड़का बाकायदा अपनी जान दांव पर लगा देता है. विलेन लड़की से भाई को बचाने के लिए.
यहां लड़के हाथ पकड़कर चलते हैं. कंधे जोड़कर चलते हैं. दो की जगह वाली मोटरसाइकल पर चार लड़के एक दूसरे से यूं सटकर बैठते हैं कि हवा को भी जगह न मिले. नाबालिग लड़कों के लिंगों को हास्यास्पद नाम देते हैं.मगर इसे कोई प्रेम का नाम दे दे. कोई पूछ ले कि दोनों के बीच दोस्ती से इतर भी कोई रिश्ता है क्या. तो ऐसे देखेंगे मानो किसी ने किडनी मांग ली हो.
एलर्जी बस प्रेम से ही है. और उस प्रेम में किए सेक्स से है. सहमति से किए सेक्स से है. रेप से नहीं है. रेप तो प्राकृतिक है. सबसे प्राकृतिक तो वो रेप है जिसमें लड़की ने छोटे कपड़े पहने हों, शराब भी पी हो, रात को बाहर हो या ज्यादा बोलती हो. बाकी सब अननैचुरल है.
'नैचुरल' सेक्स
सेक्स से प्राकृतिक असल में कुछ नहीं होता. होता तो इंसान खुद को छूते हुए खुद ही हस्तमैथुन करना न सीख जाते. प्राकृतिक की परिभाषा गढ़ने वाले हम कौन होते हैं.
असल में एक इंसान दूसरे इंसान को दबा सके, इसके लिए वो अक्सर प्रकृति का सहारा लेता है. कुछ महानुभाव तो आपसे ये तक कहते मिलेंगे कि प्रकृति ने तय किया है कि औरतें नौकरी न करें क्योंकि गर्भवती होने की सुविधा उनको ही है. इन्हें कौन बताए कि प्रकृति ने तो नौकरियां बनाई ही नहीं. तो पुरुष भी नौकरियां छोड़ दें?समलैंगिकता को अप्राकृतिक कहने में ही ये अज्यूम कर लिया जाता है कि सेक्स का उद्देश्य ही महज़ बच्चे पैदा करना है. अगर ऐसा है तो तमाम गीतों, फिल्मों, कविताओं और ग़ज़लों के कोई माने ही न हों. क्योंकि प्रेम तो लोग इंटिमेसी के लिए करते हैं. अच्छा वक़्त बिताने के लिए करते हैं. और जिस प्रेम संबंध से बच्चे न हों, उसे तो प्रेम माना ही न जाएगा!
खुसरो अपने ईश्वर के प्रेम में 'स्त्री' हो गए थे. ये 'स्त्री' एक 'स्त्री' नहीं, एक कॉन्सेप्ट थी. जिसमें पुरुष को भी पुरुष रूप में लिखे गए ईश्वर से प्रेम हो सकता है. जो लिंग और कपड़ों से परे है.
'मोहे सुहागन कीन्ही रे मोसे नैना मिलाइके.'
जिन्हें आप मनचला कहते हैं दरअसल वो स्टॉकर होते हैं, और ये अपराध है.