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फेसबुक ने नाबालिग लड़की और उसकी मां का चैट पुलिस को दे दिया, पर क्यों?

साइबर एक्सपर्ट्स का कहना है कि बड़ी सोशल मीडिया कंपनियां इस तरह मैसेज पढ़ती और शेयर करती रहेंगी.

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मामला USA के नेब्रास्का का है (फोटो - AP)

कल अमेरिका में ट्विटर पर #DeleteFacebook ट्रेंड कर रहा था. ट्विटर पर फ़ेसबुक को डिलीट करने की मांग हो रही थी. कमाल है! लेकिन क्यों? दरअसल, फ़ेसबुक पर आरोप लग रहे हैं कि फ़ेसबुक के कुछ अधिकारियों ने एक मां-बेटी की चैट लीक कर दी और इस वजह से उन्हें जेल जाना पड़ सकता है.

अमेरिका के नेब्रास्का राज्य की एक महिला पर अपनी 17 साल बेटी के अबॉर्शन में मदद करने के आरोप हैं. अमेरिकी क़ानून के अनुसार, 41 साल की जेसिका बर्गेस पर पांच आरोप हैं और बेटी पर तीन. जिसमें मरे हुए भ्रूण को छोड़ने का आरोप भी शामिल है.

24 जून को अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट ने महिलाओं के गर्भपात के संवैधानिक हक़ को ख़त्म कर दिया. 1973 के चर्चित Roe vs Wade के फ़ैसले को पलट दिया, जिसमें महिलाओं के गर्भपात के अधिकार को सुनिश्चित किया गया था. रो बनाम वेड की सुनवाई के दौरान भी वकीलों ने इस तरह की चेतावनी दी थी कि बड़ी कंपनियां ऐसा कर सकती हैं. उनके पास यूज़र्स के हर तरह के डेटा का भंडार होता है.

ये मामला सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के पहले का है. अब इसमें एक बात ये है कि अमेरिका में राज्य स्तर पर क़ानूनों में फ़र्क़ है. 16 राज्यों में तो अबॉर्शन को लेकर बहुत सख़्त क़ानून थे. रो बनाम वेड वाले फ़ैसले से भी पहले. नेब्रास्का इन्हीं में से एक है. 

नेब्रास्का की जेसिका बर्गेस और उनकी बेटी पर अवैध गर्भपात के आरोप थे. बेटी 20 हफ़्ते से ज़्यादा की प्रेग्नेंट थी. गार्डिअन की रिपोर्ट के मुताबिक़, फ़ेसबुक ने जांच एजेंसियों को मां-बेटी के चैट दे दिए. चैट्स में इस तरह की बातें थीं कि अबॉर्शन की गोलियां कैसे मिलेंगी, अबॉर्शन के क्या तरीक़े हो सकते हैं.

अब इस मामले में फ़ेसबुक पर डेटा लीक करने और निजता का हनन करने के आरोप लग रहे हैं.

फ़ेसबुक वालों ने कहा, हमको पता ही नहीं था

डेटा सौंपने के बारे में पूछे जाने पर फ़ेसबुक ने न्यूज़ एजेंसी AFP को बताया कि उनकी पॉलिसी है क़ानून की मदद करने की.

अदालती दस्तावेज़ों से पता चलता है कि कैसे फ़ेसबुक जैसी बड़ी कंपनियां गर्भपात के आपराधिक मुक़दमों में 'खेल करती हैं'. साइबर एक्सपर्ट्स का भी कहना है कि ये तो शुरुआत है और ऐसे मामले एंड-टू-एंड एन्क्रिप्शन की ज़रूरत को और भी ज़्यादा बढ़ा देते हैं. एंड-टू-एंड बोले तो जैसे वॉट्सऐप में एंड-टू-एंड एन्क्रिप्शन है. मतलब कि कंपनी जानती ही नहीं कि क्या बात हुई, तो वो और किसी को क्या बता पाएगी. लेकिन ऐसी प्राइवेसी फ़ेसबुक मेसेंजर में नहीं है. यही पेच है. कंपनीज़ कहीं न कहीं मजबूर हैं. 

सेंटर फ़ॉर डेमोक्रेसी एंड टेक्नोलॉजी की CEO एलेक्जेंड्रा गिवेंस ने कहा, "अगर कंपनियों के पास देश और दुनिया भर के लोगों का इतना डेटा है तो ऐसा तो होता ही रहेगा."

उन्होंने ये भी बताया कि इसमें पूरी ग़लती कंपनियों की नहीं है. अगर कंपनियों से एक वैध क़ानून के तहत ऐसी जानकारी मांगी जाती है, तो उनके पास भी कोई चारा नहीं है.

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