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बार-बार पलटी मारने में नीतीश कुमार को कितना नफा, कितना नुकसान हुआ?

Bihar Politics News: BJP के साथ सरकार बनाने के साथ ही Nitish Kumar ने नौवीं बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ली. 2020 में चुनाव हुए थे. तब से तीन बार CM पद की शपथ ले चुके हैं.

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नीतीश कुमार 2020 से अब तक 3 बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ले चुके हैं.. (फाइल फोटो- PTI)

पश्चिम बंगाल के उत्तर दिनाजपुर में एक छोटा सा रेलवे स्टेशन है गैसल. 2 अगस्त, 1999 का दिन था. गैसल स्टेशन के पास अवध असम एक्सप्रेस और ब्रह्मपुत्र मेल आपस में टकरा जाती हैं. भीषण दुर्घटना हुई. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 280 से ज्यादा लोगों की मौत हो गई और 300 से ज्यादा घायल हुए. देश में तब अटल बिहारी वाजपेयी की अगुवाई में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) की सरकार थी. और रेल मंत्री थे नीतीश कुमार. गैसल रेल हादसे की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए नीतीश कुमार ने मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया.

50 साल की लोकतांत्रिक व्यवस्था में कई भीषण रेल हादसे हो चुके थे. पर नैतिकता का ऐसा उदाहरण मात्र दो रेल मंत्रियों ने पेश किया था. पहले लाल बहादुर शास्त्री. जिन्होंने 1956 में तमिलनाडु में हुए रेल हादसे के बाद इस्तीफा दिया था. और दूसरे नीतीश कुमार. हालांकि, रेल मंत्री रहते हुए उनकी नीतियों ने खूब वाहवाही बटोरी थी और इसीलिए अटल बिहारी ने डेढ़ साल बाद नीतीश को वापस रेल मंत्री बना दिया था.

असल मायनों में देश की राजनीति को नैतिकता का पाठ पढ़ाने वाले वही नीतीश कुमार को नई पीढ़ियां अब पलटूराम के नाम से जानने लगी हैं. वजह है, बीते एक दशक में नीतीश कुमार का राजनैतिक रिकॉर्ड. कहा जाता है कि, वो कब पलट जाएंगे उन्हें खुद भी नहीं मालूम होता है. एक रेल हादसे से क्षुब्ध होकर इस्तीफा दे देने वाले नीतीश कुमार पिछले 6 साल में 3 बार पलटी मार  चुके हैं. लेकिन कुर्सी के अगल-बगल कोई फटक भी नहीं सका. तीन बार गठबंधन बदला, इस्तीफा दिया, और कुछ ही घंटों में दोबारा मुख्यमंत्री पद की शपथ ली.

कहते हैं सियासत में यूं हीं कोई फैसला नहीं लिया जाता है. हर समझौते के नफा-नुकसान होते हैं. और नीतीश सरीखे मंझे हुए सियासतदां बिना जोड़-घटाना किए प्यादे की चाल भी नहीं चलते. तो पिछले एक दशक में बार-बार पाला बदलने वाले नीतीश कुमार को क्या फायदे और और क्या नुकसान हुए हैं?

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2013 में NDA छोड़ा 

2013 में बीजेपी ने नरेंद्र मोदी को लोकसभा चुनाव प्रचार कमेटी का अध्यक्ष बनाया. नीतीश कुमार ने इस फ़ैसले से असहमति जताते हुए NDA से नाता तोड़ लिया. 2014 लोकसभा चुनाव में बिहार में अकेले सभी 40 सीटों पर चुनाव लड़ा. ऐसा बुरा हाल हुआ, जो पहले कभी नहीं हुआ था. JD(U) को सिर्फ 2 सीटें मिलीं. NDA को 31 सीटें मिलीं. RJD-कांग्रेस-NCP गठबंधन को 7 सीटें मिलीं.

JD(U) का इतना बुरा हाल तब हुआ था जब पिछले चुनाव में बिहार की आधी सीटें उसके खाते में आईं थी. 2009 लोकसभा चुनाव बीजेपी और नीतीश ने मिलकर लड़ा था. JD(U) ने 25 सीटों पर चुनाव लड़ा और 20 उसके खाते में आईं थी. लेकिन बीजेपी का साथ छोड़ा तो दो सीट पर सिमट गई.

21 साल बाद लालू के साथ

2014 लोकसभा में बुरी तरह हारने के बाद नीतीश ने ऐसा दांव चला जो राजनीतिक पंडितों ने सोचा भी नहीं था. 1994 में नीतीश ने लालू का साथ छोड़ा था. लेकिन बिहार में 2015 विधानसभा चुनाव से पहले नीतीश ने लालू के साथ गठबंधन कर लिया. कांग्रेस के साथ मिलकर नाम दिया गया महागठबंधन. नीतीश तब भी बिहार के मुख्यमंत्री थे और लालू से इस बात की घोषणा भी करवा दी थी कि अगर महागठबंधन जीतेगा तो मुख्यमंत्री नीतीश ही होंगे.

होली के दौरान लालू और नीतीश. (फाइल फोटो- PTI)

महागठबंधन को चुनाव में जीत मिली. नीतीश को 71 सीटें मिलीं. लालू को उनसे 9 ज्यादा 80 सीटें मिली. बीजेपी को 53 सीटें मिलीं और NDA 60 सीट तक भी नहीं पहुंच पाया. नीतीश कुमार एक बार फिर मुख्यमंत्री बने. सत्ता तो मिल गई लेकिन जिस जेडीयू के 2010 में 115 विधायक थे, इस बार चुनाव लड़ने को ही सिर्फ 100 सीटें मिली. और जीत मिली 71 सीट पर.

सीटें कम हुईं क्योंकि गठबंधन में सरकार बनी थीं. लेकिन धीरे-धीरे राजनीतिक जमीन पर नुकसान भी हुआ. पिछले 15 साल में नीतीश अपनी छवि के दम पर लालू की पार्टी को सियासी गर्त में ढकेलने में कामयाब हो गए थे. लेकिन गठबंधन का नतीजा ये हुआ कि लालू की पार्टी बिहार में सबसे ज्यादा विधायकों वाली पार्टी बन गई. जो आज भी है. जिस पिछड़े और अतिपिछड़े वर्ग को नीतीश ने लालू से छीनकर अपना वोट बैंक बनाया था वो एक बार फिर लालू में बंट गया. सत्ता में आने से लालू की पार्टी का फायदा ये हुआ कि नीतीश ने जब लालू का साथ छोड़ा तब भी लालू के वोट कम नहीं हुए.

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2017 में फिर पलटी

2015 में महागठबंधन ने सरकार बनाई. नीतीश मुख्यमंत्री, लालू के छोटे बेटे तेजस्वी यादव डिप्टी सीएम और मिली-जुली सरकार. लेकिन डेढ़ साल बीते थे और नीतीश कुमार का मन डोल गया. इस बार अंतरआत्मा की आवाज़ आई. उसने कहा कि बीजेपी के साथ चले जाना चाहिए तो नीतीश NDA के साथ चले गए. सरकार बदली, डिप्टी सीएम भी बदले, लेकिन सीएम नहीं बदले. मुख्यमंत्री की कुर्सी नीतीश कुमार के पास ही रही.

2017 में नीतीश सरकार में बीजेपी के सुशील मोदी डिप्टी सीएम बने. (PTI)

2019 में लोकसभा चुनाव हुए. नीतीश NDA का हिस्सा थे. बीजेपी-जेडीयू ने 17-17 सीटों पर चुनाव लड़ा. बीजेपी ने अपनी सभी सीटें जीतीं, जेडीयू को 16 मिलीं. राम विलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी ने 6 सीटों पर चुनाव लड़ा, सभी पर जीत दर्ज की. लोकसभा में बीजेपी के साथ चुनाव लड़ने से नीतीश की पार्टी को फायदा हुआ. पिछली बार अकेले लड़कर 2 सीटें मिलीं थी. इस बार 14 सीटें ज्यादा मिलीं.

फिर 2020 में बारी आई विधानसभा चुनाव की. इस बार बीजेपी ने जेडीयू को 115 सीटें दीं और खुद 110 सीट पर चुनाव लड़ा. सरकार NDA की बनी. नीतीश एक बार फिर मुख्यमंत्री बने. लेकिन इस बार उनकी लोकप्रियता पर सवाल उठ गए. जेडीयू को सिर्फ 43 सीटें मिलीं. बीजेपी को 74 सीटें मिलीं और 75 सीटों के साथ RJD सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी. लालू की पार्टी ने  2015 में जिस वोटबैंक पर पकड़ बनाई थी, इस बार उसे और मज़बूत कर लिया. 2015 में RJD को 18.35 प्रतिशत वोट मिले थे, जो 2020 में बढ़कर 23.11 प्रतिशत हो गया. जेडीयू का वोट 15.39 प्रतिशत पर आ गया. पिछले चुनाव से भी डेढ़ प्रतिशत कम.

पिछले 10 साल में नीतीश ने पकड़म-पकड़ाई का खेल खूब खेला. पर इस खेल में बिहार में उनकी पकड़ कमज़ोर होती दिखाई दे रही है. 2010 में जिस जेडीयू को करीब 39 प्रतिशत वोट मिले थे वो 2020 में आधे से भी कम रह गए और सीटें करीब एक तिहाई.

डेढ़ साल में दो बार पाला बदला

2020 विधानसभा चुनाव के बाद नीतीश दो बार पाला बदल चुके हैं. अगस्त 2022 में महागठबंधन में शामिल हुए. यहां तक कह दिया कि 'मर जाएंगे, पर बीजेपी के साथ नहीं जाएंगे.' फिर राष्ट्रीय राजनीति में सक्रियता बढ़ाई. प्रधानमंत्री पद का ख्वाब लेकर INDIA गठबंधन बनाया. अलग-अलग राज्यों की पार्टियों के नेताओं से निजी मुलाकात की और सबको एक छत के लिए आने के लिए मनाया. लेकिन लोकसभा चुनाव आने से ठीक पहले फिर पलटी मार दी, और बीजेपी के साथ बिहार में सरकार बना ली. मुख्यमंत्री इस बार भी नीतीश कुमार ही हैं.

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