G20 Summit ख़त्म हो गया है. चाक-चौबंद व्यवस्था रही. आधी दिल्ली अब तक सजी हुई है. 20 से ज़्यादा देशों के राष्ट्राध्यक्ष या राष्ट्र के प्रतिनिधि देश की राजधानी में थे. दुनिया की बड़ी ताक़तें हमारे मंच पर थीं. और, ये सब हुआ चार लोगों की बदौलत. भारतीय विदेश सेवा के चार डिप्लोमैट्स की बदौलत. महीनों की प्लानिंग-प्लॉटिंग, सदस्य देशों के साथ लगातार संपर्क रखना, हफ़्तों तक रात-रात भर नींद ख़राब करने के बाद पूरी दुनिया एक मंच पर बैठी.
G20 के ऐतिहासिक फ़ैसले के पीछे ये चार अफ़सर हैं!
G20 के लिए काम कर रहे इन चार डिप्लोमैट्स की महीनों की मेहनत के बाद रूस और अमेरिका एक मंच पर आने को माने.
G20 में मेज़बान भारत के राष्ट्राध्यक्ष की तरफ़ से प्रतिनिधि (शेरपा) अमिताभ कांत ने X पर इन चारों की तस्वीर पोस्ट की और लिखा,
"मेरी युवा, गतिशील और प्रतिबद्ध अधिकारियों की टीम. जिन्होंने G20 को सफल बनाने में शत प्रतिशत योगदान दिया है.
अभय ठाकुर, नागराज नायडू काकनुर, आशीष सिन्हा और ईनम गंभीर. ग़ज़ब काम! सारा श्रेय इन्हीं को!"
इंडियन एक्सप्रेस के शुभाजीत रॉय ने इन चारों और इनके काम पर एक विस्तृत रिपोर्ट लिखी है.
> रिपोर्ट के मुताबिक़, अमिताभ कांत के नंबर-2 हैं: अतिरिक्त सचिव अभय ठाकुर. मॉरिशस और नाइजीरिया में भारत के राजदूत थे. विदेश मंत्रालय में नेपाल और भूटान विभाग संभाला. विदेश मंत्री के कार्यालय में निदेशक तौर पर भी काम किया है.
> संयुक्त सचिव नागराज नायडू ककनुर. बीजिंग, हॉन्ग-कॉन्ग और गुआंग्ज़ौ में लंबे वक़्त तक रहने की वजह से चीनी ज़ुबान पर सधी पकड़ है. यूक्रेन संघर्ष में भी एक प्रमुख वार्ताकार रहे. नायडू ने UN महासभा में भी काम किया है. भारत के संयुक्त राष्ट्र में उप-स्थायी प्रतिनिधि भी रहे हैं.
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> 2005 बैच IFS ईनम गंभीर अभी संयुक्त सचिव-G20 के पद पर हैं. टीम में एकमात्र महिला अफ़सर. ईनम ने लैटिन अमेरिका के दूतावासों में काम किया है. मसलन, मेइको और अर्जेंटीना में. न्यूयॉर्क में UN महासभा के अध्यक्ष की वरिष्ठ सलाहकार भी थीं.
> आशीष सिन्हा भी 2005 बैच के ही IFS हैं. जी-20 के संयुक्त सचिव बनने से पहले, पिछले सात बरसों में भारत के लिए बहुपक्षीय सेटिंग में वार्ताकर रहे. मैड्रिड, काठमांडू, न्यूयॉर्क और नैरोबी में काम किया है. स्पैनिश पर अच्छी पकड़ है. नई दिल्ली में भी विदेश मंत्री के दफ़्तर में और पाकिस्तान डेस्क पर काम किया.
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इन चारों के सामने सबसे बड़ी चुनौती थी, G7 देशों (पश्चिमी देश व जापान) और रूस-चीन ब्लॉक को एक मंच पर बैठाना. यूक्रेन युद्ध के बाद, स्थिति बहुत नाज़ुक थी. फिर इन्होंने सहयोग के लिए ब्राज़ील और दक्षिण अफ़्रीका का रुख किया. दोनों प्रगतिशील देश; ग्लोबल साउथ में हमारे सहयोगी. कुछ महीनों की बातचीत और कूटनीति के बाद, अंततः G7 गुट और रूस-चीन गुट के बीच सहमति बनी. चाहे प्रधानमंत्री मोदी और राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के बीच फोन कॉल हो या अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन के साथ द्विपक्षीय वार्ता, इन्हीं के काम ने दोनों संभावनाओं को साकार किया.
समिट में साझा बयान देने से पहले क़रीब 200 घंटों की मीटिंग हुई. सभी देशों को अलग-अलग मसलों पर एक बयान देने के लिए राज़ी करने में इन्हीं की भूमिका थी.
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