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26 हफ्तों के भ्रूण के गर्भपात से जुड़े मामले में सुप्रीम कोर्ट का फैसला आ गया

चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली बेंच ने कहा है कि भ्रूण 26 हफ्ते और 5 दिन का है. गर्भावस्था को काफी समय हो चुका है, और इस स्टेज में वो गर्भपात की अनुमति नहीं दे सकती.

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बेंच ने कहा है कि भ्रूण 26 हफ्ते और 5 दिन का है, साथ ही इसमें किसी भी तरह की कोई असामान्यता नहीं पाई गई है. (फोटो- आजतक)

एक शादीशुदा महिला के 26 हफ्ते के गर्भ को गिराने से जुड़ी अर्ज़ी पर सुप्रीम कोर्ट ने 16 अक्टूबर को अपना फैसला सुनाया (Supreme Court abortion case). कोर्ट ने महिला की अर्ज़ी को ख़ारिज कर दिया है. चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली बेंच ने कहा है कि भ्रूण 26 हफ्ते और 5 दिन का है. गर्भावस्था को काफी समय हो चुका है, और इस स्टेज में वो गर्भपात की अनुमति नहीं दे सकती. कोर्ट ने कहा कि मेडिकल आंकलन में महिला को कोई खतरा या भ्रूण में कोई भी डिफेक्ट नहीं पाया गया है. इसमें किसी भी तरह की कोई असामान्यता (या विषमता) भी नहीं पाई गई है. 

इसके साथ ही कोर्ट ने महिला के ट्रीटमेंट के लिए दिल्ली स्थित एम्स अस्पताल को निर्देश दिए हैं और उचित समय पर डिलीवरी कराने के लिए कहा है.

बेंच ने सुनवाई में कहा कि इस मामले में सभी चिकित्सा प्रक्रियाओं का खर्च राज्य द्वारा वहन किया जाएगा. साथ ही ये भी कहा कि याचिकाकर्ता को इस बात पर अंतिम अधिकार होगा कि वो बच्चे के जन्म पर उसे अपने पास रखना चाहती है या उसे गोद लेने के लिए छोड़ना चाहती है. कोर्ट ने फैसला सुनाते हुए कहा,

“ये कोर्ट इस तरह का निर्देश (गर्भापात) पारित करने के खिलाफ है. याचिकाकर्ता को भी ऐसा नहीं करना चाहिए.”

इससे पहले मामले में सुनवाई करते हुए जस्टिस बीवी नागरत्ना ने कहा था कि भ्रूण मां से अलग नहीं है. अगर महिला अपना गर्भ गिराना चाहती है, तो उसके फ़ैसले का सम्मान किया जाना चाहिए. वहीं जस्टिस हिमा कोहली ने कहा था कि कोई भी अदालत ये नहीं कहेगी कि जिस भ्रूण में जान हो, उसकी धड़कनें छीन लो. 9 अक्टूबर को बेंच ने महिला को गर्भपात की अनुमति दे दी थी. लेकिन अगले ही दिन केंद्र सरकार ने इस केस में आवेदन दायर किया, कि आदेश वापस ले लिया जाए.

केंद्र सरकार की तरफ़ से अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल ऐश्वर्या भाटी ने तर्क दिया कि अदालत को अजन्मे बच्चे के जीवन के अधिकार की रक्षा करने पर विचार करना चाहिए. फिर 11 अक्टूबर को जस्टिस कोहली और जस्टिस नागरत्ना की बेंच ने एक स्प्लिट-वर्डिक्ट दिया. इसके बाद ही इसे देश के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस मनोज मिश्रा की बेंच को रेफ़र कर दिया गया.

मामला क्या था?

दरअसल, 27 साल की एक महिला ने अपना गर्भ गिराने के लिए सुप्रीम कोर्ट में अर्जी लगाई थी. महिला का पक्ष था कि वो शारीरिक, मानसिक या आर्थिक रूप से अवांछित गर्भ को जारी रखने के लिए तैयार नहीं है. इसीलिए कोर्ट से गर्भ गिराने की इज़ाजत चाहती है. महिला के दो बच्चें भी हैं. अपनी याचिका में उन्होंने बताया कि पहले की दो डिलीवरी सी-सेक्शन थीं और वो तीसरे के लिए तैयार नहीं हैं. वो और उनके पति दो बच्चों के साथ संतुष्ट हैं. अपने दूसरे बच्चे के जन्म के बाद से उन्होंने LAM (लैक्टेशनल एमेनोरिया मेथड) तक अपना लिया था.

LAM नई-नई मां बनी महिलाओं के लिए मासिक धर्म को टालने और गर्भवती होने की संभावना को कम करने का एक तरीका है. दरअसल, स्तनपान ओवरीज़ से अंडे के रिलीज़ को रोक सकता है क्योंकि गर्भावस्था के लिए अंडे का रिलीज़ होना ज़रूरी है. हालांकि, ये कोई पुख़्ता तरीक़ा नहीं है और समय के साथ कम प्रभावी होता जाता है.

याचिका के मुताबिक़, इस वजह से महिला को उसकी प्रेग्नेंसी का भान नहीं हुआ. जब पता चला, तो उन्होंने गर्भपात के लिए कई डॉक्टर्स से संपर्क किया. लेकिन मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ़ प्रेग्नेंसी एक्ट (MTP Act 1971) के तहत वैधानिक बाधा है. इसके चलते किसी भी डॉक्टर ने अबॉर्शन करने से मना कर दिया. MTP Act कहता है कि 20 हफ़्ते तक महिला को गर्भपात का अधिकार है. यौन उत्पीड़न या अनाचार से पीड़ित महिलाओं, नाबालिगों, शारीरिक या मानसिक रूप से विकलांग महिलाओं या वैवाहिक स्थिति में बदलाव जैसे कुछ विशेष केस होते हैं, जिनमें दो डॉक्टर्स की राय पर 24 हफ़्तों तक का समय भी दिया गया है. अगर 24 हफ़्ते भी बीत गए हैं, तो केवल मेडिकल बोर्ड की सलाह पर ही गर्भपात करवाया जा सकता है.

6 अक्टूबर को महिला AIIMS में एक मेडिकल बोर्ड के सामने पेश हुई. तब भ्रूण 25 हफ़्ते और 5 दिन का था. बोर्ड ने रिपोर्ट सौंपी, कि गर्भपात पर फिर से विचार किया जाना चाहिए क्योंकि बच्चा पैदा हो सकता है और उसके सर्वाइव करने की पूरी संभावना है.

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