“बचपन में कराई गई शादी अपनी पसंद का पार्टनर चुनने का विकल्प छीन लेती है.” “बाल विवाह कई सारे संवैधानिक अधिकारों का हनन करता है.” “बाल विवाह रोकथाम कानून को कोई भी पर्सनल लॉ प्रभावित नहीं कर सकता है.” ये सारी टिप्पणियां सुप्रीम कोर्ट ने 18 अक्टूबर को की हैं. बाल विवाह के खिलाफ एक याचिका पर कोर्ट सुनवाई कर रहा था. फैसले के दौरान चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली बेंच ने कई निर्देश भी जारी किए हैं.
बाल विवाह कानून के दायरे में पर्सनल लॉ होंगे या नहीं, सुप्रीम कोर्ट ने साफ कर दिया
सुप्रीम कोर्ट में दाखिल एक याचिका में आरोप लगाया गया था कि देश में बाल विवाह के मामले बढ़ रहे हैं. और राज्यों में बाल विवाह रोकथाम कानून का सही तरीके से पालन नहीं हो रहा है.
सुप्रीम कोर्ट में यह याचिका 'सोसायटी फॉर एनलाइटेनमेंट एंड वॉलेंटरी एक्शन' नाम के NGO ने दाखिल की थी. याचिका में आरोप लगाया गया था कि देश में बाल विवाह के मामले बढ़ रहे हैं और राज्यों में बाल विवाह रोकथाम कानून का सही तरीके से पालन नहीं हो रहा है.
इसी पर CJI डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस मनोज मिश्रा की बेंच ने सुनवाई की. कोर्ट ने कहा कि बाल विवाह बच्चों के स्वास्थ्य और शिक्षा, उनकी यौनिकता, स्वतंत्रता, पसंद और खुद से फैसले लेने जैसे अधिकारों का उल्लंघन करता है. इसके अलावा ये संविधान के अनुच्छेद-21 के तहत मिले अधिकारों का भी उल्लंघन है.
लाइव लॉ की रिपोर्ट के मुताबिक, CJI चंद्रचूड़ ने कहा कि बाल विवाह बच्चों को अपनी स्वतंत्रता, उनके पूरे विकास और बचपन का आनंद लेने के अधिकार को भी रोकता है.
कोर्ट ने और क्या-क्या कहा?> बाल विवाह रोकथाम कानून को किसी भी पर्सनल लॉ से बाधित नहीं किया जा सकता.
> इस तरह की शादियां नाबालिगों के पार्टनर चुनने की इच्छा का उल्लंघन हैं.
> जिन लड़कियों की जल्दी शादी होती है, वे सिर्फ अपना बचपन नहीं खोती हैं बल्कि उन्हें अपने परिवार, दोस्तों और दूसरे सपोर्ट सिस्टम से अलग कर दिया जाता है. ऐसी लड़कियों को ससुराल की दया पर छोड़ दिया जाता है.
> जिन लड़कों की जल्दी शादी होती है, उन्हें जबरन ज्यादा जिम्मेदारियां लेनी पड़ती हैं. और कम उम्र में परिवार में कमाने वाले की भूमिका निभानी पड़ती है.
> जल्दी शादी से (बाल विवाह) दोनों - लड़का और लड़की - पर बुरा प्रभाव पड़ता है. नाबालिग लड़कियां जबरन संबंध बनाने के कारण कई बार मानसिक तनाव से भी गुजरतीं हैं.
> बाल विवाह के कारण बच्चों पर बड़ा बोझ पड़ता है, जिसके लिए वे शारीरिक या मानसिक रूप से तैयार नहीं होते हैं.
> शादी के बाद लड़कियों से बच्चों की उम्मीद की जाती है और उसे अपनी प्रजनन क्षमता साबित करनी होती है. बच्चा पैदा करने का फैसला लड़कियों के हाथ से निकल जाता है और परिवार के पास चला जाता है.
> पितृसत्तात्मक समाज में ज्यादातर महिलाओं की शादी का मतलब उसकी पढ़ाई-लिखाई रुकवाना भी है.
> प्रशासन को बाल विवाह को रोकने और नाबालिगों की सुरक्षा पर फोकस करना चाहिए.
> बाल विवाह रोकथाम कानून में कुछ खामियां हैं. इसका उल्लंघन करने वालों को सजा देना एक अंतिम उपाय होना चाहिए.
बाल विवाह को रोकने के लिए मौजूदा कानून साल 2006 में बना था. इसका उद्देश्य ऐसी शादियों को रोकना और इसे पूरी तरह खत्म करना था. लेकिन अलग-अलग आंकड़ों से पता चलता है कि आज भी देश के अलग-अलग इलाकों में बाल विवाह जारी है.
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गौरतलब है कि साल 2006 में 47 फीसदी लड़कियों की शादी 18 साल से कम उम्र में हो रही थी. कोर्ट ने अपनी टिप्पणी में 2019-21 के बीच कराए गए नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे-5 का भी हवाला दिया. इसके मुताबिक, देश में 23.3 फीसदी लड़कियों की शादी 18 साल से कम उम्र में और 17.7 फीसदी लड़कों की शादी 21 साल से कम उम्र में हो जाती है. हालांकि पिछले कुछ सालों में इसमें कमी आई है.
कोर्ट ने ये भी कहा कि बाल विवाह को रोकने की रणनीति अलग-अलग समुदायों के हिसाब से बनाई जानी चाहिए. इसके अलावा, कानून लागू कराने वाले अधिकारियों को ट्रेनिंग देने की भी जरूरत है.
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