कहानी
एक लड़की है अंजली. मुंबई की एक लोअर मिडल क्लास फैमिली से आती है. फिल्मों में बतौर कॉस्ट्यूम असिस्टेंट काम करती है. एक फिल्म की शूटिंग से पहले वो मशहूर फिल्म डायरेक्टर रोहन खुराना को स्टार्स के लिए बने कॉस्ट्यूम दिखाने जाती है. उसी शाम रोहन को पुलिस अंजली का रेप करने मामले में गिरफ्तार कर लेती है. सबूतों के आधार पर रोहन को सेशंस कोर्ट से 10 साल की सज़ा हो जाती है. इसके बाद देश का मशहूर लॉयर तरुण सलुजा रोहन का केस लेता है और निचली कोर्ट के डिसीज़न को बॉम्बे हाई कोर्ट में चैलेंज करता है. दूसरी ओर है हीरल गांधी, जो अंजली की ओर से ये केस लड़ रही है. हाई कोर्ट में केस की सुनवाई शुरू होने के बाद ये फिल्म इंवेस्टिगेटिव कोर्ट रूम ड्रामा बन जाती है. फिल्म की कहानी सिर्फ इतनी है कि उस दिन अंजली और रोहन के बीच आखिर हुआ क्या? इसे अंजली और रोहन दोनों के नज़रिए से दिखाया गया है.

फिल्म डायरेक्टर रोहन खुराना केे किरदार में राहुल भट्ट और कॉस्ट्यूम असिस्टेंट अंजली के रोल में मीरा चोपड़ा.
एक्टर्स के नाम और काम
अक्षय खन्ना यानी फिल्म की धुरी हैं, जिनकी इर्द-गिर्द ये पूरी फिल्म घूमती है. उस आदमी की खास बात ये है कि वो हर सीन में हर बात को इतने जुनून के साथ कहता है कि आपको यकीन हो जाता है, ये आदमी गलत नहीं कह रहा. इसके पीछे दो वजहें हैं, पहली उनके किरदार का एस्टैब्लिशमेंट, जो टॉप लॉयर की तरह कहानी में फिट कर दिया गया है. और दूसरी वजह है उनके अक्षय खन्ना होने को लेकर हमारे मन में बैठा बायस. फिर आती हैं ऋचा चड्ढा. जिस कहानी को अक्षय आधे हिस्से तक लेकर जाते हैं, ऋचा उस घेरे को पूरा करती हैं. फिल्म अपने आखिरी सीन से शुरू होती. और यहां दिखती हैं हैरान-परेशान ऋचा चड्ढा. जैसे उनके जीवन के सबसे बड़े रहस्य का खुलासा हो गया हो. इस सीन की सबसे अच्छी बात ये है कि हमें ये दो बार देखने को मिलता है. साथ ही वो रेप जैसे मसले को लेकर या उससे जुड़े लोगों से जिस संवेदनशीलता के साथ पेश आती हैं, वो भी उनके कैरेक्टर का हाई-पॉइंट है.

उदीयमान लॉयर हीरल गांधी के रोल में ऋचा चड्ढा. ये वही सीन है, जिसके बारे में ऊपर बात हो रही थी.
रेप के आरोपी बने हैं राहुल भट्ट. राहुल भट्ट और मीरा चोपड़ा के पास करने को ज़्यादा नहीं है. बावजूद इसके राहुल ज़्यादा प्रभावित करते हैं. जिन सीन्स का फोकस उन पर नहीं रहता, उसमें भी वो पूरे एक्टिव रहते हैं. वहीं मीरा चोपड़ा अपने सीन्स में तो ठीक लगती हैं लेकिन जब वो कुछ नहीं करती, तब वो ब्लैंक एक्स्प्रेशन के साथ दिखती हैं. परफॉरमेंस की बात हो रही है, तो खास ज़िक्र होना चाहिए हाई कोर्ट के जज बने किशोर कदम का. फिल्म में कॉमेडी के लिए तो स्पेस नहीं है लेकिन वो अपने कहे किसी भी वाक्य से माहौल को हल्का कर देते हैं. जबकि वो गंभीर बात कह रहे होते हैं.
फिल्म की अच्छी बातें
इसकी रफ्तार, जो बिलकुल क्रिस्प है. फिल्म कट-टू-कट बात करती है. बाकी जो कुछ भी चल रहा होता है, उसमें कोई भी ऐसा हिस्सा आप नहीं ढ़ूंढ़ पाएंगे, जो फिल्म की कहानी को इंफ्लूएंस नहीं करता हो. मतलब एडिटिंग भी अच्छी है. लेकिन इंट्रेस्टिंग बात है वो, जो ये फिल्म कहना चाहती है. विल (Will) और कॉन्सेंट(Consent) यानी इच्छा और सहमति जैसी बातों का ज़िक्र कर ये जहां पहुंचती है, वहां आपका दिमाग भन्ना जाता है. या यूं कहें ठिकाने आ जाता है. थोड़ा-थोड़ा 'पिंक' वाला फील भी देती है लेकिन ये फिल्म अपने लिए एक अलग सेक्शन गढ़ती है.

टॉप लॉयर तरुण सलुजा के रोल में सुपर धांसू अक्षय खन्ना.
'सेक्शन 375' एक कोर्ट रूम ड्रामा है. ऐसे में यहां कही गई एक-एक लाइन का महत्व कई गुणा बढ़ जाता है. इस कंडिशन में फिल्म के डायलॉग्स कोर्ट रूम और बोलचाल की भाषा की मिलावट हैं. और इस दौरान जो बातें कही जाती हैं, वो आपकी रेप और लड़कियों के साथ होने वाली चीज़ों के मामलों की समझ बढ़ाती हैं. जब कोर्ट में सवाल-जवाब का दौर चल रहा होता है, तब आपको पुलिसिया प्रोसेस की लापरवाही और लचरता का अंदाज़ा भी लगता है. लेकिन आपको ऐसा भी लगने लगता है कि फिल्म फैल रही है. और तभी वो इस मामले को केस के साथ फेवीक्विक लगाकर जोड़ देती है.
फिल्म में बैकग्राउंड म्यूज़िक सिर्फ इसलिए नहीं है क्योंकि फिल्मों में होता है. जब फिल्म का सबसे क्रूशियल मोमेंट चल रहा होता है, तो नेप्थय में बिलकुल सन्नाटा होता. ताकि जो दलीलें कोर्ट में दी जा रही हैं, वो आप साफ तरीके से सुन और समझ पाएं.

कोर्ट रूम में चल रही सुनवाई के दौरान अक्षय खन्ना, ऋचा चड्डा और मीरा चोपड़ा.
बुरी बातें
इस फिल्म का ये वाला सेक्शन खाली छोड़ा जा सकता है. लेकिन ये शिकायत रहती है कि फिल्म शुरुआत में बहुत अंग्रेजीदां हो जाती है. टेक्निकल और कानूनी शब्दों का इस्तेमाल करने लगती है, जो भारी लगता है. और आम आदमी की समझ से बाहर भी है. अगर ओवरऑल देखें, तो ये फिल्म सोचने पर मजबूर करती है. एक फिल्म के तौर पर भी अपने गरिमा के साथ न्याय करती है. अपने आखिरी सीन तक कुर्सियों से चिपकाए रखती है. एक केस की मदद से ये आज के समय की सबसे प्रासंगिक और कम कही गई बात कहती है. वुमन एंपॉवरमेंट का फर्जी ढ़ोंग नहीं करती है. बल्कि इस मामले में क्लैरिटी देती है. जहां तक सवाल है फिल्म को देखने या नहीं देखने का, तो यहां कही बातें अगर आपके दिमाग में जगह बना पा रही हैं, तो आप क्लीयर होंगे. अगर आपको लगता है कि ऊपर बताई गई बातों में फिल्म से जुड़ी ज़्यादा जानकारी रिवील हो गई है, तब तो आपको ये फिल्म ज़रूर देखनी चाहिए.
वीडियो देखें: फिल्म रिव्यू: सेक्शन 375