The Lallantop

न्यूयॉर्क टाइम्स में कश्मीर को लेकर जो छपा भारत सरकार ने उस पर आपत्ति क्यों जताई?

कश्मीर पर न्यूयॉर्क टाइम्स में जो छपा उस पर भारत को ऐतराज़ क्यों है?

post-main-image
सांकेतिक फोटो (साभार: आजतक)

कश्मीर एक ऐसा शब्द, जिसका जिक्र आते ही हिंदुस्तान नहीं बल्कि बाहरी दुनिया के लोगों के भी कान खड़े हो जाते हैं. चुंकि ये बीती सदी से ही विवाद के केंद्र में रहा है. हिंदुस्तान में जम्मू कश्मीर का विलय हुआ, पाकिस्तान ने कुछ हिस्से पर जबरन कब्जा किया. मसला दो देशों के बीच का है, मगर कश्मीर में वेस्टर्न इंस्ट्रेस्ट हमेशा से रहा है. कश्मीर की भौगोलिक स्थिति ही कुछ ऐसी है. नक्शे पर गौर करें तो एक हिस्सा अफगानिस्तान को छूता है, जो एक वक्त सोवियत संघ का कब्जे में था, दूसरा हिस्सा चीन को लगता है. और एक बड़ा हिस्सा पाकिस्तान को. ब्रिटेन ने हम पर राज किया तो उसकी कश्मीर में दिलचस्पी जगजाहिर है. शीतयुद्ध के दौर पर जहन में रखेंगे तो अमेरिका की दिलचस्पी भी उसी वक्त से समझ आने लगती है. ऐसे में कश्मीर से जुड़ी कोई भी खबर विदेशी अखबार या बड़े पोर्टल प्रमुखता से तरजीह देते रहे हैं. मगर एक सवाल बार-बार पूछा जाता है, क्या उनकी खबरों में भारत विरोधी एजेंडा होता है? 

8 मार्च को भी कश्मीर को केंद्र में रखकर अमेरिकी अखबार न्यूयॉर्क टाइम्स और उसकी वेबसाइट पर दो आर्टिकल छपे. पहले की हेडलाइन है, Modi’s Final Assault on India’s Press Freedom Has Begun. मतलब ये कि भारत की प्रेस स्वतंत्रता पर मोदी का आखिरी हमला शुरू हो गया है. दूसरे आर्टिकल की डेहलाइन है - India Is Arming Villagers in One of Earth’s Most Militarized Places, मतलब पृथ्वी पर सबसे ज्यादा सैनिक जमावड़े वाली जगह पर भारत ग्रामीणों को हथियार दे रहा है. दोनों आर्टिकल भारत में रहने वाले पत्रकारों ने लिखे हैं. जो न्यूयॉर्क टाइम्स के लिए या तो काम करते हैं या वहां उनके नियमित लेख छपा करते हैं. चुंकि प्रेस की स्वतंत्रता और कश्मीर के मुद्दे का सवाल था, तो जवाब भी आया. सूचना प्रसारण मंत्री अनुराग ठाकुर ने ट्वीट कर लिखा.

न्यू यॉर्क टाइम्स भारत के बारे में कुछ भी प्रकाशित करने से पहले तटस्थता के सभी मानकों को बहुत पहले छोड़ चुका है. न्यू यॉर्क टाइम्स का कश्मीर में प्रेस की आजादी पर छपा कथित लेख काल्पनिक है. जिसका मकसद भारत और उसके लोकतांत्रिक संस्थानों और मूल्यों बारे में दुष्प्रचार फैलाना है. न्यूयॉर्क टाइम्स और इसी तरह के कुछ अन्य विदेशी मीडिया संस्थान भारत और लोकतांत्रिक रूप से चुने गए हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बारे में झूठ फैलाने रहे हैं. ऐसा झूठ लंबे समय तक नहीं चल सकता. न्यूयॉर्क टाइम्स और इसी तरह के कुछ अन्य विदेशी मीडिया संस्थान भारत और लोकतांत्रिक रूप से चुने गए हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बारे में झूठ फैलाने रहे हैं. ऐसा झूठ लंबे समय तक नहीं चल सकता.

इसके बाद एक और ट्वीट में अनुराग ठाकुर ने कहा,

‘भारत और पीएम मोदी से ईष्या रखने वाले कुछ विदेशी मीडिया संस्थान व्यवस्थित तरीके से हमारे लोकतंत्र और बहुलतावादी समाज के खिलाफ झूठ फैलाने की कोशिश कर रहे हैं. लोकतंत्र के तौर पर भारत काफी परिपक्व है. और हमें ऐसे एजेंडे के तौर पर चलने वाले मीडिया से लोकतंत्र का ज्ञान सीखने की ज़रूरत नहीं है. न्यू यॉर्क टाइम्स ने कश्मीर में प्रेस की आजादी को लेकर जो झूठ फैलाया है वो निंदनीय है. भारत के लोग ऐसी मानसिकता वालों को भारत की धरती पर अपना एजेंडा नहीं चलाने देंगे.’

साफ है कि पीएम मोदी के मातहत काम करने वाले मंत्री अनुराग ठाकुर ने तीखे लहजे में जवाब दिया है. तो ऐसे में सबसे पहले ये जानना जरूरी हो जाता है कि आर्टिकल में ऐसा क्या लिखा है, जिसको लेकर ऐसी प्रतिक्रिया आई.  न्यूयॉर्क टाइम्स में कश्मीर टाइम्स की एग्जक्यूटिव एडिटर अनुराधा भसीन ने लिखा,

‘मुझपर छापा भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की नीतियों पर सवाल उठाने की हिम्मत करने की सजा थी. मेरा अखबार, जिसकी मैं कार्यकारी संपादक हूं, 1954 में मेरे पिता द्वारा स्थापित किए जाने के बाद से जम्मू और कश्मीर राज्य में एक स्वतंत्र आवाज रहा है, जिसने युद्ध और सैन्य कब्जे के कई दशकों का सामना किया है. लेकिन मिस्टर मोदी इसे नहीं छोड़ रहे हैं. उनकी दमनकारी नीतियां कश्मीरी पत्रकारिता को नष्ट कर रही हैं, मीडिया आउटलेट्स को सरकारी मुखपत्र के रूप में काम करने के लिए डरा रही हैं और लगभग एक करोड़ 30 लाख लोगों के हमारे क्षेत्र में सूचना का अभाव पैदा कर रही हैं.’

न्यू यॉर्क टाइम्स के आर्टिकल के एक पैरा में लिखा है,

‘पत्रकारों को पुलिस नियमित तौर पर बुलाकर पूछताछ करती है. उन्हें आयकर उल्लंघन या आतंकवाद या अलगाववाद जैसे आरोपों से धमकाया जाता है. कई प्रमुख पत्रकारों को हिरासत में लिया गया है या जेल की सजा सुनाई गई है. हम भय के साये में काम करते हैं.’

इसी आर्टिकल के अगले पैरा में लिखा है

'कई पत्रकारों ने खुद को सेंसर कर लिया है या पत्रकारिता छोड़ दी है. कुछ तो गिरफ्तारी के डर से विदेश चले गए हैं. भारत सरकार ने कम से कम 20 अन्य लोगों को देश छोड़ने से रोकने के लिए नो-फ्लाई सूची में डाल दिया है.'

ये आर्टिकल ऐसे वक्त में लिखा गया, जब कश्मीर को लेकर कोई आम विमर्श नहीं चल रहा है. हां G-20 के कार्यक्रम जरूर देश में चल रहे हैं, जिसमें दूसरे मुल्कों के नुमाइंदों की बड़ी हिस्सेदारी है. तो टाइमिंग पर भी सवाल है. लेकिन क्या आर्टिकल में छापी गई बातें सत्य के करीब है? सरकार की तरफ से लगाए आरोपों में हम नहीं फंसेंगे. हमने सच्चाई को जानने के लिए कश्मीर टाइम्स के पूर्व पत्रकार और मौजूदा वक्त में द स्ट्रेटलाइन के मैनेजिंग एडिटर करने वाले जुनैद हाशमी से पूछा.

पहला सवाल यही कि
1.न्यूयॉर्क टाइम्स के आर्टिकल में अनुराधा भसीन ने लिखा है कि 370 हटने के बाद वो इंटरनेट बैन के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट गईं, इसलिए उनके श्रीनगर के दफ्तर को सील कर दिया गया. आप कश्मीर टाइम्स में पहले काम कर चुके हैं. उन्होनें कहा,

‘इस बारे में मैं कुछ नहीं कहना चाहूंगा. उनको ज्यादा पता होगा क्योंकि वो मालकिन हैं न्यूयॉर्क टाइम्स की. जम्मू कश्मीर की सरकार कहती है कि, कश्मीर टाइम्स के पास सरकारी विभाग की 2 कोठियां थी. उस में से एक कोठी में कश्मीर टाइम्स का पुराना ऑफिस था. बाद में उसी कोठी के सामने कश्मीर टाइम्स ने एक दूसरी बिल्डिंग ली और निर्माण की एक तीन मंजिला बिल्डिंग बनाई. उस समय स्टेट्स विभाग ने कैसे उस बिल्डिंग को बनने दिया वो नहीं पता. यानी स्टेट्स के इनके पास 2 कोठी थी. उन में से एक सरकार ने वापस ले ली. और इसी तरह से जम्मू में भी कश्मीर टाइम्स के पास स्टेट्स का एक क्वार्टर था. और वो क्वार्टर वजारत रोड पर था जहां मुख्यमंत्री का  क्वार्टर था. स्टेट्स विभाग कहता है कि जो क्वार्टर कश्मीर टाइम्स के पास था वो वेध वसीम के नाम था. चूंकि वेध वसीम का निधन हो गया है. उनके निधन के बाद ये सरकारी आवास हमें उनसे वापस लेना पड़ा. उसके बाद सरकार ने आधिकारिक तौर पर ये बात भी कही कि कश्मीर टाइम्स के क्वार्टर का किराया बकाया था. इसके बाद सरकार ने ये सभी अकोमेडेशन कश्मीर टाइम्स से वापस ले ली है.’
 

भारत में हो रही पत्रकारिता और पत्रकारिता संस्थान के प्रति सरकार के रवैये पर गाहे-बगाहे सवाल उठते रहते हैं. मगर हमें ये जांच करना होता है कि कहीं व्यक्तिगत लड़ाई पत्रकारिता के ढाल तले तो नहीं लड़ी जा रही. न्यूयॉर्क टाइम्स के आर्टिकल में एक आरोप लगाते हुए लिखा गया है कि

"कश्मीरी समाचार पत्र सरकारी विज्ञापन और मीडिया सब्सिडी पर बहुत अधिक निर्भर है, सरकार उस लाभ का उपयोग यह सुनिश्चित करने के लिए करती है कि  समाचार पत्र में वही सच छपे जो आधाकारिक वर्जन है. आज, कुछ कश्मीर समाचार आउटलेट आधिकारिक नीति पर सवाल उठाने की हिम्मत करते हैं, और कई सिर्फ व्यापार में बने रहने के लिए सरकारी मुखपत्र बन गए हैं. मेरा अपना अखबार मुश्किल से बच रहा है. 2019 में, मैंने इंटरनेट शटडाउन को चुनौती देते हुए मुकदमा दायर किया. स्पष्ट प्रतिशोध में, सरकार ने हमारे श्रीनगर कार्यालय को सील कर दिया."

आरोप है कि मोदी सरकार ने कश्मीर टाइम्स को मिलने वाला सरकारी विज्ञापन बंद कर दिया. इसका सत्य क्या है,  उन्होनें कहा,

‘आप 2017-2022 तक का कश्मीर टाइम्स देखिए. फ्रंट पेज पर उन्होंने कभी भी नीतियों का कोई विरोध नहीं किया है. उन्होंने नीतियों का विरोध अपने अखबार में नहीं लेकिन कहीं अलग अलग वेबसाइट पर आर्टिकल लिख कर किया होगा. लेकिन सरकार की नीतियों का विरोध अपने अखबार के जरिए उन्होंने कभी नहीं किया. नरेंद्र मोदी की नहीं जम्मू कश्मीर की सरकार का उन्होंने विरोध किया होगा.’

हमने पहले आर्टिकल पर काफी बात कर ली. अब दूसरे आर्टिकल पर आते हैं. जिसमें जम्मू कश्मीर में आम सिविलियंस को बंदूक देने पर सवाल उठाया गया.
आम नागरिकों को बंदूक क्यों दी जा रही है. पहले उस कॉन्सेप्ट को समझिए. उसके पीछे की वजह को समझिए. इसके लिए आपको कुछ घटनाओं के बारे जानना होगा.  2023 का साल और साल का पहला दिन. जम्मू कश्मीर के राजौरी जिले के अपर डांगरी इलाके में आतंकियों ने चार कश्मीरी पंडितों को मौत के घाट उतार दिया. जानलेवा हमले में 6 लोग घायल भी हुए. इलाज के दौरान 3 और लोगों की जान चली गई. कुल 7 लोगों की हत्या हुई. घटना को अंजाम देने वाले दोनों हथियारबंद आतंकियों ने अपर डांगरी इलाके में मंदिर के पास 3 अल्पसंख्यक हिंदुओं के घरों को निशाना बनाया था.

अब 20 साल पहले चलिए.
23 मार्च 2003 को नदीमर्ग में आतंकियों ने 24 कश्मीरी पंडितों को लाइन से खड़ा कर गोली मार दी थी. इस नरसंहार में 11 पुरुष, 11 महिलाएं और 2 बच्चों को मौत के घाट उतार दिया गया था. घटना के बारे में कहा जाता है कि लश्कर-ए-तैयबा के आतंकियों ने कश्मीरी पंडितों का नाम लेकर उन्हें घर से निकाला और फिर एक साथ सबको गोली मार दी. उस दौरान नदीमर्ग में करीब 50 कश्मीरी पंडित रह रहे थे, लेकिन आतंकियों के आने की खबर मिलते ही कई लोग वहां से जान बचाकर भागने में कामयाब हो गए. पुलवामा जिले के नदीमर्ग गांव में लश्कर-ए-तैयबा के आतंकी सेना की वर्दी पहनकर आए थे. नदीमर्ग नरसंहार को लेकर कहा जाता है कि आतंकियों का इरादा कश्मीरी पंडितों की हत्या का आरोप भारतीय सेना पर लगाने का था. जिससे माहौल बने कि भारतीय सेना ही कश्मीरी पंडितों का नरसंहार करती है और इल्जाम आतंकियों पर लगा देती है. नदीमर्ग नरसंहार कांड में जिंदा बचे मोहन लाल भट ने इंडिया टुडे को दिए एक इंटरव्यू में कहा था कि रात को अचानक एक शोर सुनाई दिया और तोड़-फोड़ की आवाजें आने लगीं. सेना की वर्दी में आए कुछ लोगों से मेरी मां हमें जिंदा छोड़ देने को कह रही थी. जिस पर आतंकियों ने कहा था, हम तुम्हें चुप कराने ही आए हैं. इसके बाद आतंकियों ने गोलियां बरसा दीं.

20 साल के कालखंड में टारगेटेड किलिंग का ये पैटर्न नहीं बदला. हमले दूर-दराज के गांवों में होते थे और जब तक सुरक्षाबल के जवाब पहुंचते, आतंकी फरार हो जाते. इस तरह के हमलों से बचने के लिए सरकार ने VDC यानी विलेज डिफेंस कमेटी बनाई. जिसमें ग्रामीणों को चिन्हिंत कर ट्रेनिंग दी गई और उन्हें आतंकियों से लड़ने के लिए राइफल दी गई. मगर क्या ये नरेंद्र मोदी सरकार में शुरू हुआ? हमने जम्मू कश्मीर के पूर्व डीजीपी एसपी वैद्य से पूछा. उन्होनें कहा,

‘VDC का जो लोग आरोप लगा रहे हैं वो एजेंडा सेट करना चाहते हैं. हिंदू नेशनलिस्ट का. ऐसा बात सत्य से बहुत दूर है. मोदी जी के टाइम पर विलेज डिफेंस कम्युनिटी नहीं बनी. VDC पहली बार 1995 में बनी थी. उस वक्त सेंट्रल में कांग्रेस की सरकार थी. तो लगभग ये 27 साल पुराना कांसेप्ट है. इस में ये कहना की सिर्फ हिंदुओं को हथियार दिए ये गलत है. VDC में हर कम्युनिटी के लोग होंगे, जिनका क्रिमिनल रिकॉर्ड नहीं होगा.’

न्यूयॉर्क टाइम्स के दोनों आर्टिकल में जो छपा, हमने आपको बताया. सरकार का पक्ष भी दिखाया. और स्थानीय पत्रकारों और जानकारों से बातचीत भी.

वीडियो: दी लल्लनटॉप शो: खालिस्तान और भिंडरांवाले का समर्थक अमृतपाल सिंह क्या कुछ बड़ा प्लान कर रहा है?