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मोहन लाल सुखाड़िया : राजस्थान का वो मुख्यमंत्री जिसकी शादी के विरोध में बाजार बंद हो गए थे

जिसने नेहरू के खास रहे मुख्यमंत्री जयनारायण व्यास का तख्तापलट कर दिया. आज पुण्यतिथि है.

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मोहन लाल सुखाड़िया सियासत के मंझे हुए खिलाड़ी जयनारायण व्यास का तख्तापलट करके मुख्यमंत्री बने थे.

चुनावी मौसम में दी लल्लनटॉप आपके लिए लेकर आया है पॉलिटिकल किस्सों की ख़ास सीरीज़- मुख्यमंत्री. इस कड़ी में बात राजस्थान के उस मुख्यमंत्री की, जो एक चर्चित क्रिकेटर का बेटा था. जिसने शादी की तो पूरा का पूरा शहर बंद हो गया. जिसने अपने दौर के सभी हैवीवेट नेताओं की छुट्टी कर दी और 38 साल की उम्र में मुख्यमंत्री बन गया. जो मुख्यमंत्री बना तो अगले 17 साल तक उसे कुर्सी से कोई हिला भी नहीं पाया क्योंकि वो पैदल सड़कें नापता था और खेतों में जाकर किसानों से मिला करता था. नाम था मोहन लाल सुखाड़िया.

मोहनलाल सुखाड़िया: राजस्थान का सीएम जिसने अपने दौर के सभी हैवीवेट नेताओं की छुट्टी कर दी। Part 1

जयपुर हवा महल के पास एक जगह है सवाई मान सिंह टाउन हॉल. साल 2000 तक यह राजस्थान की विधानसभा की तरह बरता जाता था. 1954 के साल के नवम्बर महीने की छह तारीख. दो दिन बाद दीपावली थी. टाउनहॉल के पास जलेबी चौक पर उमड़ी भीड़ का खरीदारी से कोई लेना-देना नहीं था. दरअसल टाउन हॉल के भीतर वोटिंग चल रही थी. मुख्यमंत्री की कुर्सी का फैसला होना था. बाहर खड़े लोग बेसब्री से नतीजों का इंतजार कर रहे थे.जयनारायण व्यास उस समय राजस्थान के मुख्यमंत्री थे. उन्हें चुनाव के बाद मुख्यमंत्री बने दो ढाई साल हो चुके थे. उनके विरोधी खेमे बगावती मूड में थे. मगर व्यास को चिंता की जरूरत नहीं थी. क्योंकि नेहरू उनके साथ थे.

मगर जब विधायक राज्यसभा चुनाव में क्रॉस वोटिंग पर उतारू हो गए, तब नेहरू को मजबूर होना पड़ा. उन्होंने बलवंत राय मेहता को पर्यवेक्षक बनाकर भेजा. जयपुर. विधायकों का मन जानने के लिए. और तभी यह वोटिंग हुई.अब बारी नतीजों की ऐलान की. एक तरफ मुख्यमंत्री जयनारायण व्यास. दूसरी तरफ 38 साल का एक विधायक. व्यास को मिले 51 वोट और उस युवा विधायक को 59.राजस्थान को इस बिना रक्त की बगावत का सिला मिल चुका था. एक नया मुख्यमंत्री मिल चुका था. महज 38 साल का. जैन परिवार से आने वाला. जो अगले 17 साल शासन संभालने वाला था. 'मोहन लाल सुखाड़िया'.


जय नारायण व्यास को अंदाजा भी नहीं था कि उनका तख्ता पलटने वाला है.
जय नारायण व्यास को अंदाजा भी नहीं था कि उनका तख्ता पलटने वाला है.

अंक:1 व्यास की गद्दी किसने खिसकाई

व्यास चुनाव हार चुके थे. जोधपुर के एक विधायक उनके पास आए. रोते हुए. कविता लिखने वाले व्यास ने उस विधायक से कहा-

"मैंने अपने ही हाथों से, अपनी चिता जलाई,

देख-देख लपटे ज्वाला की, मैं हंसता, तू क्यों रोता भाई? "

व्यास ने सचमुच अपने ही हाथों से चिता जलाई थी. लेकिन इसमें घी डालने का काम किया उनके ही भरोसेमंद साथियों ने. नाम मथुरादास माथुर और माणिक्य लाल वर्मा. 19 51 में जब व्यास ने हीरालाल शास्त्री का तख्तापलट किया, तब यही दोनों व्यास के सबसे भरोसेमंद सिपहसलार थे. माथुर जोधपुर के ही रहने वाले थे और व्यास को अपना गुरु मानते थे.

1951 के पहले विधानसभा चुनाव. व्यास दो जगह से चुनाव लड़ रहे थे. जोधपुर (बी) सीट से. जोधपुर के महाराज हनवंत सिंह के खिलाफ. दूसरा जालोर से. वहां के ठाकुर माधो सिंह के खिलाफ. नतीजों में कांग्रेस को बहुमत तो मिला लेकिन व्यास दोनों जगह से चुनाव हार गए. ऐसे में मुख्यमंत्री बने टीकाराम पालीवाल. मेवाड़ का माणिक्य लाल वर्मा का धड़ा और मारवाड़ का जयनारायण व्यास धड़ा उनके खिलाफ था. व्यास ने सत्ता हासिल करने के लिए उप-चुनाव लड़ा. मारवाड़ की किशनगढ़ सीट से. जीतकर विधानसभा पहुंचे. टीकाराम पालीवाल को मुख्यमंत्री की गद्दी छोड़नी पड़ी. व्यास ने भी सहृदयता दिखाई. टीकाराम को उप-मुख्यमंत्री बनाया.

माणिक्य लाल वर्मा को व्यास का यह कदम रास नहीं आया. मथुरादास माथुर दो दफा व्यास की कैबिनेट में मंत्री रह चुके थे. पहली दफा जोधपुर रियासत की सरकार में. और दूसरी बार 1951 में राजस्थान सरकार में. इस बार व्यास ने उन्हें कैबिनेट में जगह नहीं दी. वजह थी उनके खिलाफ भ्रष्टाचार के एक मामले में चल रही जांच. माथुर भी व्यास से नाराज हो गए. दोनों के विरोध के चलते व्यास ने नए सिरे से विधायक दल के नेता का चुनाव करवाया था. उन्हें उम्मीद थी कि आसानी से जीत जाएंगे. दाव उल्टा पड़ गया. माणिक्य लाल वर्मा ने अपने चेले मोहन लाल सुखाड़िया को व्यास के खिलाफ खड़ा किया. और तरह सुखाड़िया को महज 38 साल की उम्र में मुख्यमंत्री का ताज मिला.

अंक: 2  शादी की तो विरोध में शहर बंद हो गया

चलिए वापस टाउन हॉल के बाहर चलते हैं. जहां शुरुआत में रुके थे. जलेबी चौक पर सुखाड़िया समर्थक खड़े थे. जैसे ही विधायक दल वोटिंग के नतीजे आए, उन्होंने सुखाड़िया को कंधो पर उठा लिया गया. पूरे शहर में जुलूस निकाला गया. किसी भी राजनेता के लिए यह जिंदगी का सबसे खुशनुमा पल होता. सुखाड़िया के लिए नहीं था. 16 साल पहले वो ऐसे ही एक जुलूस के केंद्र में थे. जिसके बारे में सुखाड़िया ने बाद में लिखा भी-

"आज में सोचता हूं कि मुख्यमंत्री के रूप में भी मेरा ऐसा भव्य और अपूर्व उत्साहपूर्ण जुलूस नहीं निकला. इस जुलूस ने मुझे भावी जीवन के संघर्ष में आगे बढने की प्रेरणा दी. मेरे इर्द-गिर्द सशक्त नौजवानों की अपूर्व भीड़ थी, इस घटना के बाद में मैंने फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा."

वो घटना क्या थी. आप जान लीजिए. लेकिन चूंकि इसमें परिवार शामिल है. इसलिए पहले उससे परिचित हो लें.


मोहन लाल सुखाड़िया और इंदु बाला की शादी खुली बगावत से कम नहीं थी.
मोहन लाल सुखाड़िया और इंदु बाला की शादी खुली बगावत से कम नहीं थी.

मोहनलाल सुखाड़िया के पिता पुरुषोत्तम बॉम्बे-सौराष्ट्र क्रिकेट टीम के चर्चित खिलाड़ी थे. मुंबई क्रिकेट एसोसिएशन आज भी उनके नाम से 'पुरुषोत्तम शील्ड' नाम से क्रिकेट प्रतियोगिता करवाती है.उदयपुर से सटा नाथद्वारा वैष्णव समाज का बड़ा गढ़ है. आजादी के समाज यहां के महंत थे दामोदरदास तिलकायत. उन्हें क्रिकेट में बड़ी दिलचस्पी थी. उन्होंने पुरुषोत्तम सुखाड़िया को नाथद्वारा बुला लिया. वैसे नाथद्वारा उनका ससुराल भी था. जब मोहनलाल चार-पांच साल के थे, पुरुषोत्तम का इंतकाल हो गया. महंत जी ने मोहन को अपने बेटे की तरह पाला. इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग में डिप्लोमा करवाया. बॉम्बे के VJIT कॉलेज से.

पढाई के दौरान मोहन कांग्रेस के सदस्य बन गए. वापस आए और उदयपुर में इलेक्ट्रिक सामानों की दुकान खोल ली. लेकिन नेतागिरी में पड़े आदमी से कोई दूसरा धंधा कहां होता है. दुकान राजनीतिक अड्डेबाजी की जगह बन गई. इसी दौरान उनका संपर्क हुआ इंदुबाला नाम की एक लड़की से. आर्यसमाजी परिवार से आने वाली इंदु और मोहनलाल में प्यार हो गया. दोनों ने शादी करने का मन बना लिया.

मोहनलाल की मां धर्म से जैन और मान्यता से कट्टर वैष्णव. छुआ-छूत में भरोसा इतना कि खुद मोहन की थाली में रोटियां ऊपर से गिराई जाती थीं. इंदु और मोहन ने तय किया कि दोनों पास के कस्बे ब्यावर जाएंगे. यहां आर्यसमाजियों का प्रभाव था. 1 जून 1938 के रोज दोनों ब्यावर में थे. आर्यसमाज के मंदिर में शादी कर ली. खबर पहुंची नाथद्वारा. महंत जी और पूरे नाथद्वारा का गुस्सा सातवें आसमान पर. शादी के विरोध में अगले दिन बाजार बंद. मां का रो-रोकर बुरा हाल.

इस सब में एक अच्छी बात हुई. 22 साल के मोहनलाल इंटरकास्ट मैरिज करने की वजह से युवाओं के हीरो बन गए. आगे क्या हुआ? मोहनलाल सुखाड़िया की जबानी ही सुनिए-


"नाथद्वारा में मां के पास जाकर उनका आशीर्वाद पाना भी मेरा कर्तव्य था. मित्रों की सहायता व आग्रह से मैंने नाथद्वारा के समाज में प्रवेश करने का निश्चय किया.मुझे पता लगा कि नाथद्वारा का वैष्णव समाज पूरे सक्रिय रूप से मेरा विरोध करने वाला था. मित्रों ने इस बात की तनिक भी परवाह नहीं की. मुझे एक बग्घी में वर के वेश में और इंदु को वधु के वेश में बैठा दिया. मेरे चारों तरफ एक घेरा बनाकर एक जुलूस के रूप में पूरे बाजार में लेकर निकले. 'मोहन भैया जिंदाबाद' के तुमुल नाद के साथ शहर की परिक्रमा करवाई. किसी भी विरोध से उनके पैर नहीं उखड़े."

इंदु और मोहन के बीच रिश्ता कभी शौहर-बीवी तक सीमित नहीं रहा. इंदु उनके बराबर की राजनीतिक कार्यकर्ता थीं. 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान मोहनलाल सुखाड़िया के घर पर छापा पड़ा. रात के एक बजे. बेटी महज तीन महीने की हुआ करती थी. पुलिस गिरफ्तार करने लगी. इंदु ने रोका. रसोई से रोली लेकर आई. तिलक किया. हाथ में नारियल पकड़ाया. हंसते-हंसते विदा किया. पुलिस वाले सन्न.

वैसे सन्न तो जयनारायण व्यास भी थे. विधायक दल के नेता का चुनाव हारने के बाद. सुखाड़िया ने 38 साल की उम्र में मुख्यमंत्री की कुर्सी संभाली. व्यास नेहरु के चहेते थे. नेहरु को सुखाड़िया का सत्ता पर काबिज होना रास नहीं आ रहा था. फिर भी सुखाड़िया इस कुर्सी पर टिके रहे. पूरे 17 साल तक. उत्तर भारत में सबसे लंबे समय तक मुख्यमंत्री रहने का रेकॉर्ड. आखिर उन्होंने यह करिश्मा किया कैसे?


इन्दुबाला सुखाड़िया के पीछे नहीं कंधे से कंधा मिलकर चलने वाली महिला थीं
इन्दुबाला सुखाड़िया के पीछे नहीं कंधे से कंधा मिलकर चलने वाली महिला थीं

अंक: 3  मुख्यमंत्री जी, आपका टिफिन पैक हो गया.

सुखाड़िया परिस्थितियों की पैदाइश थे. सियासी हैसियत के लिहाज से वो व्यास के आस-पास भी नहीं थे. और यह परिस्थितियां हमेशा उनके पक्ष में रहें यह जरुरी नहीं था. लिहाजा उन्होंने मुख्यमंत्री बनते ही प्रशासनिक तौर पर खुद को मजबूत करना शुरू किया. सबसे पहले दूसरे राज्यों से डेपुटेशन पर आए अफसरों को वापस भेजा गया. इसके बाद सुखाड़िया ने अपने भरोसेमंद मेवाड़ी नौकरशाहों को ऊपर के खांचे में भरना शुरू किया. इसमें सबसे महत्वपूर्ण नियुक्ति थी भगवंत सिंह मेहता की. मेहता के जरिए उन्होंने नौकरशाही पर अपनी पकड़ मजबूत की.

दूसरा बड़ा काम था जागीरदारों के विरोध को शांत करना. 1952 में आए जागीरदारी उन्मूलन एक्ट के चलते जागीरदार नाराज चल रहे थे. पहले चुनाव में ये लोग ही कांग्रेस के सामने सबसे बड़ी चुनौती थे. जयपुर में आए दिन प्रदर्शन होते. सुखाड़िया ने जागीरदारों को 'खुद काश्त' जमीनों का पट्टा दे दिया. इससे उनका विरोध शांत सा पड़ गया.

तीसरा सुखाड़िया ने सचिवालय में टिकने की बजाए सड़के नापना शुरू की. रोज घर से बड़ा टिफिन लेकर चलते. खेतों की मेड पर बैठकर खाना खाते. किसानों से मिलते. इसने उनकी लोकप्रियता को बढ़ा दिया. 1957 का विधानसभा चुनाव उनके नेतृव का पहला इम्तिहान था. सुखाड़िया टॉपर बनकर उभरे. 22 में से 18 लोकसभा सीटें कांग्रेस के खाते में. विधानसभा चुनाव में आई 176 में से 119 सीटें. इतनी बड़ी जीत के बाद नेहरु के पास भी उन्हें हटाने का कोई स्पष्टीकरण जुटा पाना संभव नहीं था. सुखाड़िया ने दूसरी दफा मुख्यमंत्री पद की शपथ ली.

दूसरी जीत के बाद सुखाड़िया ने बुजुर्ग मुक्ति अभियान चलाया. इंदिरा गांधी ने ऐसा किया था 1969 में, सरकार और फिर पार्टी को ओल्ड गार्ड से मुक्त कर. सुखाड़िया एक दशक पहले ही इसे आजमा चुके थे.सुखाड़िया ने अपने नए मंत्रिमंडल में में पिछले मंत्रिमंडल के महज एक मंत्री को रखा. भोगी लाल पंड्या. बाकी सबको किनारे लगाया जाने लगा. हीरालाल शास्त्री, रघुवर दयाल गोयल, भूरे लाल बाया, जुगल किशोर चतुर्वेदी,टिकाराम पालीवाल देखते ही देखते सियासी फलक से गायब हो गए.


 मोहन लाल सुखाड़िया और भैरो सिंह शेखावत
मोहन लाल सुखाड़िया और भैरो सिंह शेखावत

अंक: 4 शेखावत जी, आपकी टांड पर मेरी फाइल भी है क्या

सुखाड़िया के बारे में पुराने पत्रकार एक बात का जिक्र करना नहीं भूलते. सुखाड़िया और जनसंघ नेता भैरो सिंह शेखावत की दोस्ती का. सुखाड़िया सत्ता पक्ष के, शेखावत विपक्ष के नेता, मगर दोनों पान के जबर शौकीन. और उनकी जुगलबंदी इस शौक के साझा होने तक सीमित नहीं थी. सुखाड़िया शेखावत के सहारे पार्टी में अपने विरोधियों को ठिकाने लगाकर रखते थे.

जो भी मंत्री सुखाड़िया के डैनों से बाहर जाने की कोशिश करता, विधानसभा में विपक्ष के द्वारा घेर लिया जाता. नाटकीय तौर पर भैरो सिंह शेखावत के पास मंत्री के खिलाफ किसी संवेदनशील जानकारी वाली फ़ाइल होती.ऐसे एक वाकये का जिक्र वरिष्ठ पत्रकार श्याम आचार्य अपनी किताब 'तेरा तुझको अर्पण' में करते हैं.

हुआ यूं कि कद्दावर किसान नेता कुम्भाराम आर्य एक दिन शेखावत से मिलने पहुंचे. उस समय तक वो कांग्रेस से अलग हो चुके थे. एक दुर्घटना के चलते शेखावत का पैर टूटा हुआ था. वो बिस्तर पर थे. मिजाजपुर्सी करने के बाद कुम्भाराम आर्य ने शेखावत से गुड़ कांड वाली फ़ाइल मांगी. बड़ी मिन्नत के बाद शेखावत ने जवाब दिया कि ऊपर की टांड पर फाइलों को जो अम्बार लगा हुआ है, उसमें ढूंढ लो. आर्य ढूंढते रहे लेकिन फ़ाइल मिली नहीं.वो मायूस होकर चले गए. असल में कुम्भाराम को आते देख शेखावत ने फ़ाइल अपने बिस्तर के नीचे छिपा ली थी.

कुम्भाराम सुखाड़िया के मंत्रिमंडल में किसी दौर में खाद्य मंत्री हुआ करते थे. दोनों की बहुत बनती नहीं थी. ऐसे में एक दिन गुड़ खरीद को लेकर एक संवेदनशील फ़ाइल भैरो सिंह के हाथ में लग गई. कुम्भाराम को विधानसभा में विपक्ष ने घेर लिया. कहते हैं कि यह फ़ाइल सुखाड़िया के द्वारा ही लीक की गई थी.


महाराजा मान सिंह और महारानी गायत्री देवी
महाराजा मान सिंह और महारानी गायत्री देवी

अंक: 5 गायत्री देवी किसके साथ हैं

राजस्थान के पहले चुनाव में कांग्रेस को 160 में से 82 सीटें मिली थीं. बहुमत के आंकडे से ना एक कम, ना एक ज्यादा. उस समय जागीरदार बड़े पैमाने पर निर्दलीय चुनाव लड़े थे. और जीतकर भी आए थे. 1959 में सीवी राजगोपालाचारी ने नई पार्टी बनाई. नाम रखा 'स्वतंत्र पार्टी'. कई पुराने जागीरदार भी इस पार्टी से जुड़ने लगे. लेकिन चुनाव के लिहाज से स्वतंत्र पार्टी अभी कोरी ही थी.सुखाड़िया हवा का रुख जानते थे. उन्हें पता था कि स्वतंत्र पार्टी के बढ़ते प्रभाव को रोकना है तो किसी बड़े रजवाड़े का कांग्रेस के पक्ष में खड़ा होना जरुरी थी. अपने इसी गुंताड़े को फिट बैठाने के लिए उन्होंने सियासी चौसर पर अपने पासे फेंके. जोकि एकदम उलटे पड़ गए.

दरअसल सुखाड़िया ने 1962 के लोकसभा चुनाव के ठीक पहले जयपुर की महरानी गायत्री देवी को अपने पाले में करने की कोशिश की. गायत्री देवी ने उन्हें सोचकर जवाब देने की बात कही. लेकिन गायत्री देवी ने सुखाड़िया को सीधे कोई जवाब नहीं दिया. सुखाड़िया आखरी कोशिश के तहत गायत्री के पति जयपुर रियासत के राजा मान सिंह के पास पहुंचे. राजा उस वक्त पोलो खेल रहे थे. मुख्यमंत्री के आने की खबर सुन गेम छोड़कर आए.सुखाड़िया उन्हें सियासत समझाने लगे. अच्छा बुरा बताने लगे. फिर बोले, राज्य के विकास में पॉलिटिक्स आड़े नहीं आनी चाहिए. राजा ने जवाब दिया. मैं पॉलिटिक्स नहीं, बस ये पोलो स्टिक समझता हूं.

ये राजा का विनम्र इनकार था. सुखाड़िया समझ गए. अपनी मशहूर इक इंच की मुस्कान दिखा चले आए. फिर आई जीत. गायत्री देवी के हिस्से. जो स्वतंत्र पार्टी के टिकट पर जयपुर लोकसभा लड़ीं. और डेढ़ लाख के मार्जिन से जीतीं. देश में सबसे बड़ी जीत.

महारानी जयपुर के स्वतंत्र पार्टी में जाने से राजपूत वोट स्वतंत्र पार्टी के पक्ष में लामबंद होना शुरू हो गए. 1962 के विधानसभा चुनाव में स्वतंत्र पार्टी ने राज्य में 32 सीटों पर जीत हासिल की. सुखाड़िया को इसी चीज का डर था. 1967 के विधानसभा चुनाव में सुखाड़िया का डर सच साबित हुआ. 1967 के विधानसभा चुनाव के नतीजों में वो मुख्यमंत्री की कुर्सी लगभग गँवा चुके थे. विधायकों की परेड हुई, गोलियां चलीं. और आखिर में सुखाड़िया फिर सीएम बन गए. 




टीकाराम पालीवाल: जो मुख्यमंत्री बनने के बाद उपमुख्यमंत्री बने