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सुंदर लाल पटवा : एमपी का मुख्यमंंत्री, जिसने गुंडों का भरे बाजार जुलूस निकाल दिया था

जो शिवराज को राजनीति में लेकर आया और जो नरेंद्र मोदी को बाहरी कहता था.

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सुंदरलाल पटवा दो बार मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री बने थे. अपने बारे में वो कहते थे कि उन्हें धोखे से सियासत में लाया गया था.

चुनावी मौसम में दी लल्लनटॉप आपके लिए लेकर आया है पॉलिटिकल किस्सों की ख़ास सीरीज़- मुख्यमंत्री. आज बात मध्यप्रदेश के उस मुख्यमंत्री की, जो कहता था कि उसे धोखे से राजनीति में लाया गया. वो दो बार मुख्यमंत्री बना. लेकिन नसीब ऐसा कि दोनों बार बर्खास्त कर दिया गया. नाम था सुंदरलाल पटवा.

मध्यप्रदेश के सीएम सुंदरलाल पटवा की कहानी जिन्हें शिवराज सिंह का गुरु कहा जाता है

एक घर था. उसमें छह लोग थे. एक दिन सबको नदी के पार जाना था. अब नदी में था छह फीट पानी. परिवार की मालकिन डर रही थी. लेकिन मुखिया ने कहा घबराओ मत. क्योंकि मुखिया का गणित था कि परिवार के छह सदस्यों की औसत लंबाई छह फीट से ज्यादा थी. तो दावा ये कि थिअरी के हिसाब से कोई डूब नहीं सकता. मगर व्यक्ति का डूबना औसत गहराई से तय नहीं होता. छह के छह लोग डूब गए. ये कहानी एक नेता ने विधायक दल की एक मीटिंग में सुनाई थी. क्योंकि उसकी पार्टी भी डूब गई थी. कहानी का मर्म ये कि थिअरी कभी असल ज़िंदगी के सबक पर हावी नहीं हो सकती.

अंक 1 - मुझे नहीं लड़ना चुनाव



कुशाभाऊ ठाकरे ने सुंदरलाल पटवा से चुनाव लड़ने को कहा था, लेकिन पटवा ने साफ इन्कार कर दिया था.

कुशाभाऊ ठाकरे ने मध्यप्रदेश में जनसंघ को खड़ा किया. इसी सिलसिले में 1957 के विधानसभा चुनावों की तैयारी में एक बार मंदसौर गए. मंदसौर के ही कुकड़ेश्वर कस्बे में था मन्नालाल पटवा का घर. कुशाभाऊ को मन्नालाल के बेटे से मिलना था - नाम सुंदरलाल पटवा. बोले - तुम्हें मनासा से लड़ना है. सुंदरलाल ने साफ इनकार कर दिया. ठाकरे ने संघ से दबाव डलवाया. क्योंकि 11 नवंबर, 1924 की पैदाइश वाले पटवा 17 साल की उम्र से ही आरएसएस से जुड़े थे. पूरे 6 साल प्रचारक भी रहे थे.

पटवा फिर भी नहीं माने. तो जनसंघ का टिकट दिया गया रामचंद्र बसेर को. अब हुआ ये कि जब पटवा बसेर का पर्चा भरवाने निर्वाचन कार्यालय गए थे तभी कार्यकर्ताओं ने पटवा का पर्चा भी भरवा दिया. डमी कैंडिडेट के तौर पर. नामांकन चेक होने पर बसेर का पर्चा भी दुरुस्त, पटवा का भी. पटवा ने कहा, नाम वापस ले लेता हूं तो बात गोल कर दी गई. फिर ऊपर से इशारा हुआ और बसेर ने धीरे से अपना नाम वापस ले लिया. पटवा को मालूम चला तो वो अड़ गए. बोले अब तो चुनाव नहीं ही लड़ूंगा. तब पटवा को समझाया गया कि आप नहीं लड़े तो कांग्रेस बिना लड़े ही जीत जाएगी. क्या आप यही चाहते हैं? पटवा फिर चुनाव लड़े और जीते भी. इस तरह कुशाभाऊ ने पटवा को चुनावी राजनीति में उतारा. पर धोखे से.

अंक 2 - पटवा मुर्दाबाद हुआ और पटवा ही सीएम बने



जब वीरेंद्र सखलेचा का इस्तीफा हुआ, तो सुंदरलाल पटवा मुख्यमंत्री बनाए गए.

भ्रष्टाचार के आरोपों के चलते 1980 में वीरेंद्र सखलेचा का इस्तीफा लिया गया तो पटवा सीएम बने. तारीख 20 जनवरी, 1980. लेकिन पटवा के सीएम बनते ही दिल्ली में जनता पार्टी की सरकार बिखर गई. इसी साल चुनाव हुए और इंदिरा गांधी ने वापस आकर तमाम गैर-कांग्रेसी राज्य सरकारों को बर्खास्त कर दिया. शपथ लेने के 29वें दिन, माने 17 फरवरी, 1980 को पटवा को इस्तीफा देना पड़ा. विधानसभा चुनाव हुए तो कांग्रेस ने वापसी की. अर्जुन सिंह मुख्यमंत्री बने.

कुशाभाऊ ने पटवा को अब अगली पारी के लिए तैयार करना शुरू किया. बस्तर से झबुआ तक की यात्रा निकलवाई. पटवा को एमपी के लोग चेहरे से पहचानने लगे. सुंदरलाल पटवा विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष भी बने. इसके बाद भाजपा 10 साल सत्ता से दूर रही. लेकिन 1989 तक अयोध्या में राम मंदिर के मुद्दे पर गर्मी बढ़ने लगी. पालमपुर में भाजपा ने राम मंदिर का मुद्दा अपने कोर एजेंडे में शामिल कर लिया. राम के नाम पर राजनीति पूरी रफ्तार से होने लगी. और इसका फायदा मिला मार्च 1990 में भाजपा को. मध्यप्रदेश विधानसभा में पार्टी 320 सीटों में से 220 पर जीती. सुंदरलाल पटवा सीधे सीएम बनते, लेकिन कुशाभाऊ जानते थे कि कैलाश जोशी पक्का दावेदारी ठोकेंगे. इसलिए उन्होंने भाजपा संसदीय बोर्ड से कहकर कैलाश जोशी को ही पटवा का नाम आगे करने की ज़िम्मेदारी दिलवा दी.


सीएम पद के लिए सुंदरलाल पटवा का नाम आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी कैलाश जोशी को दी गई थी.
सीएम पद के लिए सुंदरलाल पटवा का नाम आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी कैलाश जोशी को दी गई थी.

कैलाश जोशी एक आखिरी कोशिश की शक्ल में बात विधायक दल में चुनाव तक ले गए. भोपाल के रवींद्र भवन में बैठक बुलाई गई. विजयाराजे सिंधिया पर्यवेक्षक बनकर भोपाल आईं. स्टेशन पर भाजपाइयों के एक गुट ने सिंधिया के सामने कैलाश जोशी जिंदाबाद - पटवा मुर्दाबाद के नारे लगा दिए. लेकिन वोटिंग में जोशी को दर्जन भर से भी कम वोट पड़े. इस तरह 10 साल के इंतज़ार के बाद 5 मार्च 1990 को भोपाल के लाल परेड मैदान में सुंदरलाल पटवा ने पद और गोपनीयता की शपथ खाई. बतौर मुख्यमंत्री.

अंक 3- गुंडों को बीच बाजार घुमाया


सुंदरलाल पटवा ने अतिक्रमण हटवाया और इस अभियान के इंचार्ज थे बाबू लाल गौर.
सुंदरलाल पटवा ने अतिक्रमण हटवाया और इस अभियान के इंचार्ज थे बाबू लाल गौर.

मध्यप्रदेश के सारे बड़े शहरों में सड़कों पर भयंकर अतिक्रमण था. पटवा ने इन सबको तुड़वाया. इस अभियान के इंचार्ज थे बाबूलाल गौर. वो बुलडोज़र लाल कहलाने लगे. इसी अभियान में एक कांड हो गया. इंदौर में एक इलाका है बॉम्बे बाज़ार. यहां उन दिनों ढेर सारे अवैध काम होते थे. इलाका संकरी गलियों वाला था और वहां चलती थी गुंडे बाला बेग की. बेग का आतंक था. पुलिस 40-50 की संख्या से नीचे छापा मारने जाती ही नहीं थी. बॉम्बे बाज़ार में अतिक्रमण तोड़ने के लिए नगर निगम के साथ पुलिस भी गई. लेकिन बाला बेग के इशारे पर उपद्रव हो गया.


शंकर गुहा नियोगी की हत्या सुंदरलाल पटवा के कार्यकाल में ही हुई थी.
श्रमिक नेता और छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा के अध्यक्ष शंकर गुहा नियोगी की हत्या सुंदरलाल पटवा के कार्यकाल में ही हुई थी.

इसके बाद एसपी अनिल धस्माना पूरी फोर्स लेकर पहुंचे. एक गली में धस्माना को निशाना बनाकर एक छत से सिल फेंकी गई. सिल धस्माना के ठीक बदल में खड़े गनमैन छेदीलाल पर गिरी और मौके पर ही उनकी जान चली गई. इसके बाद न सिर्फ बाला बेग को गिरफ्तार किया गया, बल्कि पूरे इलाके में हथकड़ी डालकर उसका जुलूस भी निकाला गया. यही भोपाल में मुख्तार मलिक के साथ हुआ. पटवा इस पर कहते थे - मैंने अभियान नहीं चलाया, केवल 10 प्रमुख गुंडों पर कार्रवाई की. बाकी खुद सुधर गए. मध्यप्रदेश में आज भी पुलिस नियमित तौर पर गुंडों का जुलूस निकालती है ताकि लोगों में उनका खौफ कम हो. लेकिन ये भी तथ्य है कि श्रमिक नेता और छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चे के अध्यक्ष शंकर गुहा नियोगी की हत्या पटवा के कार्यकाल में ही हुई थी.

अंक 4 - अटल के अखबार से पंगा


अटल बिहारी वाजपेयी स्वदेश अखबार के संपादक थे. सुंदरलाल पटवा ने एक विवाद के बाद अखबार के सारे विज्ञापन बंद कर दिए थे.
अटल बिहारी वाजपेयी स्वदेश अखबार के संपादक थे. सुंदरलाल पटवा ने एक विवाद के बाद अखबार के सारे विज्ञापन बंद कर दिए थे.

पटवा ने सीएम रहते अपने गांव कुकड़ेश्वर में एक बड़ा समारोह आयोजित किया. इसमें उनके पिता मन्नालाल पटवा की मूर्ति का अनावरण होना था. दावत थी प्रधानमंत्री विश्वनाथप्रताप सिंह को. आकाशवाणी ने कार्यक्रम की रिपोर्टिंग करते हुए मन्नालाल के आगे स्वतंत्रता सेनानी जोड़ दिया. असल में मन्नालाल एक सामान्य कारोबारी रहे थे. कांग्रेस ने इसे मुद्दा बना लिया. कहा कि सीएम अपने पिता को जबरन स्वतंत्रता सेनानी बताना चाहते हैं. और यहां बात खत्म नहीं हुई. इस कार्यक्रम में लगे लाव लश्कर पर स्वदेश अखबार के संपादक ने हस्ताक्षर सहित एक लंबी संपादकीय आलोचना छाप दी थी. स्वदेश का संपादन कभी अटल बिहारी वाजपेयी करते थे और उसे भाजपा की विचारधारा के करीब माना जाता था. इसने फिज़ूलखर्ची के इल्ज़ाम को राष्ट्रीय मुद्दा बना दिया. पटवा ने तिलमिलाहट में अखबार के सारे विज्ञापन बंद करवा दिए. बाद में मामला ठंडा हुआ, लेकिन इस बात का ज़िक्र लोगों के ज़ेहन से गया नहीं.



पटवा ने वन भूमि का पट्टा आदिवासियों को दे दिया था और इसके लिए उनकी तारीफ भी हुई थी.

वो इसलिए कि पटवा किसानों का कर्ज़ माफ कर नहीं पा रहे थे. जबकि ये पार्टी का प्रमुख वादा था. पटवा पैसे के लिए केंद्र सरकार, रिजर्व बैंक, नाबार्ड आदि से खूब लड़े. लेकिन पैसा तो उनके पास भी नहीं था. बड़ी मुश्किल से पटवा 640 करोड़ रुपये ला पाए. पर ये कर्जमाफी केवल 10 हजार रुपये तक के लोन पर हो पाई. एक काम जिसके लिए पटवा की तारीफ हुई, वो ये कि वन भूमि पर आदिवासियों को पट्टा मिल गया. लेकिन आदिवासी पटवा को दुआ देते उससे पहले ही पटवा ने वो नियम खत्म कर दिया जिसके तहत आदिवासी निजी इस्तेमाल के लिए शराब बना सकते थे. पटवा ने शराब का काम ठेकेदारों को दिलवा दिया.

अंक 5 - और फिर हुआ दंगा



6 दिसंबर 1992 को जब बाबरी मस्जिद गिराई गई तो उसके बाद दंगे हो गए. नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री थे. उन्होंने पटवा सरकार को बर्खास्त कर दिया.

पटवा मिले-जुले नतीजे दे रहे थे. लेकिन गाड़ी किसी तरह आगे बढ़ ही रही थी. तभी 6 दिसंबर, 1992 में बाबरी मस्जिद गिरा दी गई और दंगे भड़क गए. अगले ही दिन बंबई और सूरत के बाद सबसे भयानक कत्लेआम भोपाल में हुआ. करीब 140 लोग मार दिए गए. दंगा बढ़ा तो भोपाल के कलेक्टर और एसपी सीएम आवास पहुंचे. पत्रकार राजेश सिरोठिया कहते हैं कि ये अधिकारी पटवा से कर्फ्यू लगाने का आदेश लेने गए थे. लेकिन पटवा का उन दिनों पेट बहुत खराब रहता था और वे काफी समय बाथरूम में बिताते थे. इसीलिए बातें चल पड़ीं कि भोपाल में कर्फ्यू लगाने में देरी इसलिए हुई कि पटवा बाथरूम में थे. लेकिन नरसिम्हा राव ने देर नहीं की. 15 दिसंबर को फौरी कार्रवाई के तौर पर चार राज्यों में चल रही भाजपा सरकारों बर्खास्त कर दिया. पटवा भी नप गए.


इतिहास अगर और मगर की कहानी है. ये सच है कि पटवा केंद्र से बर्खास्त हुए. लेकिन क्या एक निर्बाध शासन को वो भुना पाते? 1993 के विधानसभा चुनाव में राम लहर के बावजूद भाजपा को मिली करारी हार को कैसे समझा जाए? जवाब - पटवा का राज समझकर.

- पटवा ने ट्रांसफर काम सचिवालय के अधिकारियों को सौंप दिया था. इससे भाजपा नेताओं के पास आने वाली खाद-पानी पर लगाम लग गई. दबाव बना तो पटवा को फिर ये अधिकार मंत्रियों को लौटाने पड़े, लेकिन नाराज़गी नहीं गई.

- पटवा ने चेतावनियां भी नज़रअंदाज़ कीं. 1991 के लोकसभा चुनाव में भाजपा 12 सीटें ही जीत पाई. कांग्रेस का स्कोर 27. संघ ने कहा, पटवा की कार्यप्रणाली में गंभीर दोष है. इसके बाद पटवा के ही कैबिनेट में मंत्री शीतला सहाय के घर नेतृत्व परिवर्तन के लिए ज्ञापन तैयार हुआ. 71 विधायकों ने इस पर दस्तखत कर भी दिए. कुशाभाऊ ने पटवा को बचा तो लिया. लेकिन पटवा ने संयम खो दिया. बदला लेने के लिए 71 में से 56 के टिकट कटवा दिए. इससे बगावत तो नहीं दबी, 500 से ज्यादा छोटे-बड़े कार्यकर्ताओं ने पार्टी ज़रूर छोड़ दी.



संघ ने पटवा को हटाने की ज़मीन तैयार कर ली थी. लेकिन कुशाभाऊ ठाकरे बीच में आ गए और उन्होने पटवा को बचा लिया.

- जो अनुशासन संघ का गोंद है, उसपर पटवा का ध्यान कम रहा. गुटबाज़ी ऐसी हुई कि कैलाश जोशी को किसान मोर्चे का अध्यक्ष बना दिया गया और कुशाभाऊ ठाकरे को भी देश भर की जिम्मेदारियां मिलने लगी तो दिल्ली बेस हो गया.

पटवा की आदत थी कि वो जेब में काजू रखते. बैठकों में चुपके से गप्पा मार लेते और किसी को मालूम नहीं चलता. उन्हें लगा कि वो अपने विरोधियों को भी ऐसे ही चुपके से निपटा रहे हैं. लेकिन उन्होंने लगभग हर कद्दावर नेता से अदावत मोल ले ली थी. नाम - उमा भारती, विक्रम वर्मा, कैलाश जोशी और वीरेंद्र सखलेचा. उमा पर नज़र रखने के लिए पटवा ने मुख्यमंत्री रहते हुए उनके संसदीय क्षेत्र टीकमगढ़ में सुरेंद्र प्रताप सिंह बेबीराजा को संसदीय सचिव बनाकर भेज दिया था. वो नाराज होकर सीधा पटवा के बंगले पर पहुंची. अपने कार्यकर्ताओं के कुछ काम बताए और फिर बिफरकर बोलीं - मैं साध्वी हूं, आपको हमारे सारे काम करने चाहिए. पटवा को वाकपटुता सूझ रही थी.



पटवा ने उमा भारती से भी अदावत मोल ले ली, जिसका खामियाजा उन्हें उठाना पड़ा था.

बोले - तुम साधु नहीं हो, साधु तो वह होता है जो तालाब में डूबते बिच्छू को हथेली पर रखकर बचाता है, बिच्छू काटता है और फिर पानी में गिर जाता है, साधू फिर-फिर बचाता है.

उमा ने भी जवाब रसीद कर दिया था - अरे पटवा जी, वही तो कह रही हूं, ये काटना कब बंद करोगे.

यही कुछ वजहें रहीं कि 1993 में पटवा ने अर्जुन सिंह के बेटे अजय सिंह को भोजपुर तो हरा दिया, मगर सरकार नहीं बना सके. बीजेपी 116 सीटों पर सिमट गई. इसी हार के बाद सुंदरलाल पटवा ने भाजपा विधायकों को वो कहानी सुनाई जो आपने इस एपिसोड की शुरूआत में सुनी. पटवा ये कहानी सुनाकर जिस अतिआत्मविश्वास और भितरघात की ओर इशारा कर रहे थे, वो खुद भी उनका कारण थे. और शिकार भी.

अंक 6 - कमलनाथ की एक हारः सूत्रधार पटवा


पटवा की वजह से कमलनाथ चुनाव हार गए थे.
पटवा की वजह से कमलनाथ चुनाव हार गए थे.

1996 के लोकसभा चुनाव में जैन हवाला कांड में नाम आने के कारण छिंदवाड़ा में अंगद के पांव की तरह जमे कमलनाथ का टिकट कटा. लेकिन पत्नी अलकानाथ चुनाव में उतरीं और जीत गईं. कमलनाथ वापसी के लिए बेताब थे. और उसका असली मज़ा इसी बात में था कि सत्ता के गलियारों में सांसद बनकर घूमा जाए. सीताराम केसरी से आश्वासन पाकर कमलनाथ ने पत्नी का इस्तीफा करवाया और उपचुनाव के लिए पर्चा भर दिया. छिंदवाड़ा की जनता को ये बात ज़्यादा जमी नहीं. पटवा इस बात को भांप गए. जिस दिन कमलनाथ ने नामांकन किया, बल्कि जिस समय किया, उसी समय पटवा अपने कागज पत्तर लेकर रिटर्निंग अफसर के यहां पहुंच गए. पूरे सूबे की भाजपा जुटी तो इतिहास में पहली बार छिंदवाड़ा सीट छिंका ली. कमलनाथ हार गए.



1998 में जब छिंदवाड़ा में चुनाव हुए तो कमलनाथ दोगुने मार्जिन से चुनाव जीत गए थे.

हार के बाद इसे भाजपा की जीत से ज़्यादा कमलनाथ की भूल बताया गया. और इन बातों को बल मिला एक दूसरी थिअरी से. कि कमलनाथ को सांसदी जितना ही प्यारा था लुटियंस ज़ोन के केनिंग लेन में बना उनका सरकारी बंगला. ये बंगला वरिष्ठ सांसदों को ही आवंटित होता था. कमलनाथ लाख चाहकर भी पहली बार की सांसद अपनी पत्नी को ये बंगला आवंटित नहीं करवा पाए. बंगला खाली करने का नोटिस आ गया. तब कमलनाथ ने पत्नी का इस्तीफा करवाया ताकि खुद सांसदी जीतकर बंगला सुरक्षित कर सकें. कमलनाथ ने 1998 में हुए चुनावों में अपने अपमान का बदला ले लिया. पटवा को दोगुनी मार्जिन से हराकर. लेकिन पटवा आज भी जायंट किलर कहलाते हैं.

अंक 7 - नरेंद्र मोदी क्या करेगा?


नरेंद्र मोदी को एमपी का प्रभारी बनाकर भेजा गया था. पटवा इससे नाराज हो गए.
नरेंद्र मोदी को एमपी का प्रभारी बनाकर भेजा गया था. पटवा इससे नाराज हो गए.

1996 और 98 के लोकसभा चुनावों के नतीजों से कुछ हिम्मत बंधी तो भाजपा ने एमपी में वापसी के लिए नरेंद्र मोदी को प्रभारी बनाकर भेजा. मोदी के प्रति नापसंदगी ज़ाहिर करने में पटवा आगे रहे. कुशाभाऊ ठाकरे से बोल गए कि जब हम एमपी का चुनाव जीतने ही जा रहे हैं तो मोदी के सिर जीत का सेहरा क्यों बंधना? बाहर का आदमी मध्यप्रदेश में आकर क्या कर सकता है? अंतर्कलह से ग्रसित भाजपा ये चुनाव पिछली बार की तरह ही हार गई. इसके बाद 1999 में पटवा होशंगाबाद से सांसदी जीतकर केंद्र में मंत्री बने. पर धीरे-धीरे मध्यप्रदेश में उनका दखल कम होता गया.


पटवा ने ही शिवराज को भाजयुमो
पटवा ने ही शिवराज को भाजयुमो का प्रदेश अध्यक्ष बनाया था.

28 दिसंबर 2016 को पटवा ने अंतिम सांस ली तो वही नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बन चुके थे जिन्हें उन्होंने एक वक्त बाहरी बताया था. मोदी खुद उनको श्रद्धांजलि देने पहुंचे. कहा जाता है कि ये मोदी ही थे जिनके आने की खबर पर शिवराज ने राजकीय शोक की घोषणा की. उन शिवराज ने, जिन्हें पटवा ने ही युवा मोर्चा का प्रदेश अध्यक्ष बनाया था. पर यही राजनीति है, यहां कब कोई घरवाला बाहरी हो जाए और कब कोई बाहरी अपना हो जाए. कहा नहीं जा सकता.

और अंत में...



बाला बेग को गिरफ्तार करने वाले इंदौर के एसपी अनिल धस्माना आगे चलकर रॉ चीफ बनाए गए थे.

इंदौर के एसपी अनिल धस्माना, जिन्होंने बाला बेग को गिरफ्तार किया था, वो आगे चलकर रॉ चीफ बने. मुख्यमंत्री के अलगे एपिसोड में आपको बताएंगे उस मुख्यमंत्री के किस्से, जिसकी कुर्सी एक लॉटरी के चक्कर में चली गई.




वीडियो- वीरेंद्र कुमार सखलेचा:क्या हुआ जब एमपी के सीएम का प्लेन काठमांडू एयरपोर्ट पर उतरा?