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हत्या के लिए जेल में कट गए जिंदगी के 46 साल, अब बरी हुआ तो दुनिया भावुक हो गई

Iwao Hakamada पर आरोप था कि उन्होंने 1968 में अपने बॉस, उसकी पत्नी और उनके दो बच्चों की हत्या कर दी थी. इस आरोप में उन्हें मौत की सजा सुनाई गई. वह लगभग आधी सदी से सजा काट रहे थे.

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जेल में हाकामाडा की हालत खराब होने लगी थी. (फोटो/AP)

Japan का एक 88 साल का व्यक्ति दुनियाभर में चर्चा बना हुआ है. उस पर आरोप था कि उसने 1968 में अपने बॉस, उसकी पत्नी और उनके दो बच्चों की हत्या कर दी. इस आरोप में उसे मौत की सजा सुनाई गई. वह लगभग आधी सदी से 'मृत्यु दंड' के रूप में जेल में सजा काट रहा था. दुनिया में सबसे लंबे समय तक मृत्यु दंड की सजा पाने वाला कैदी बना. लेकिन अब एक जापानी अदालत ने उसे बरी कर दिया है. क्योंकि अदालत ने पाया कि उसके खिलाफ़ पाए गए सबूत फर्जी थे. इस व्यक्ति का नाम है Iwao Hakamada. उन्होंने जेल में 46 साल बिताए. रिपोर्ट्स के मुताबिक दुनिया में किसी और शख्स ने सजा के तौर पर इतना लंबा वक्त जेल नहीं काटा.

BBC की रिपोर्ट के मुताबिक इवाओ हाकामाडा का केस जापान के सबसे लंबे और सबसे प्रसिद्ध कानूनी मामलों में से एक है. इस केस में पब्लिक ने भी इंटरेस्ट दिखाया है. 26 सितंबर यानी सुनवाई के दिन Shizuoka के न्यायालय में लगभग 500 लोग सीटों के लिए कतार में खड़े थे. जैसे ही फैसला सुनाया गया, अदालत के बाहर हाकामाडा के समर्थकों ने "बानज़ाई" का नारा लगाया. इसका अर्थ "हुर्रे" होता है.

टैंक में 'खून से सने' कपड़े

पूर्व पेशेवर मुक्केबाज़, हाकामाडा 1966 में एक मिसो प्रोसेसिंग प्लांट में काम करते थे. उस समय उनके बॉस, उनकी पत्नी और दो बच्चों के शव टोक्यो के पश्चिम में शिज़ुओका में बरामद किए गए. चारों की चाकू घोंपकर हत्या कर दी गई थी.उनके घर में आग भी लगी थी.

अधिकारियों ने हाकामाडा पर परिवार की हत्या करने, उनके घर में आग लगाने और 200,000 येन (जापानी करेंसी) चुराने का आरोप लगाया था. हाकामाडा ने शुरू में पीड़ितों को लूटने और उनकी हत्या करने से इनकार किया था, बाद में वह अपने बयान से पलट गए. जुर्म कबूल कर लिया. लेकिन फिर उन्होंने कहा कि जांचकर्ताओं ने उन्हें अपराध स्वीकार करने के लिए मजबूर किया था. बताया कि यह बयान मारपीट और रोज 12 घंटे तक चली पूछताछ के बाद जबरन लिया गया था. हालांकि 1968 में उन्हें हत्या और घर में आग लगाने का दोषी ठहराया गया, मौत की सजा सुनाई गई.

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हाकामाडा के करीबी उनके लिए कानूनी लड़ाई लड़ते रहे जिसके चलते उनकी मौत की सजा टलती रही. दशकों से चली आ रही कानूनी लड़ाई आखिरकार हाकामाडा की गिरफ़्तारी के एक साल बाद मिसो के टैंक में मिले कुछ कपड़ों पर आकर टिक गई. कथित तौर पर खून से सने उन कपड़ों का इस्तेमाल हाकामाडा को दोषी ठहराने के लिए किया गया था. कोर्ट में सालों तक हाकामाडा के वकीलों ने तर्क दिया कि कपड़ों से बरामद DNA हाकामाडा के DNA से मेल नहीं खाता, जिससे यह संभावना बढ़ गई कि ये कपड़े किसी और के हैं. वकीलों ने कहा कि पुलिस ने फर्जी सबूत पेश किए हैं. वकीलों के तर्क पर जस्टिस हिरोआकी मुरायामा को ने टिप्पणी की कि ये कपड़े आरोपी के नहीं थे.

जस्टिस मुरायामा ने उस समय कहा था,

"आरोपी को आगे भी हिरासत में रखना अनुचित है. क्योंकि उनकी बेगुनाही की संभावना काफी हद तक स्पष्ट हो चुकी है."

इसके बाद हाकामाडा को जेल से रिहा कर दिया गया और उन पर पुनः मुकदमा चलाने की अनुमति दे दी गई.

2014 से बहन ने साथ दिया

रिपोर्ट के मुताबिक जेल में हाकामाडा की मानसिक और शारीरिक हालत बिगड़ती देख उन्हें सभी सुनवाइयों से छूट दे दी गई थी. तब से वो अपनी 91 साल की बहन हिदेको हाकामाडा की देखरेख में रहे. हिदेको ने उनके लिए कई कैंपेन चलवाए.

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हाकामाडा की बहन. (फोटो/AP)

लंबी कानूनी कार्यवाही के कारण पुनः सुनवाई शुरू होने में पिछले वर्ष तक का समय लग गया. और कोर्ट ने 26 सितंबर को फैसला सुनाया. हाकामाडा का पूरा केस कपड़ों पर बने लाल रंग के धब्बों पर टिका हुआ था. यही कपड़े उनके मुकदमे में पुनर्विचार और अंतरिम रूप से बरी होने का आधार था. कोर्ट में प्रॉसिक्यूटर ने कहा कि यह कपड़े हाकामाडा के थे. लेकिन हाकामाडा के वकीलों ने सवाल उठाया कि कपड़ों के दाग में कैसे परिवर्तन आया. इन कपड़ों को सोयाबीन के पेस्ट में लंबे समय तक डुबोया गया. लेकिन ये धब्बे पहले जैसे लाल बने रहे. काले नहीं हुए. वकीलों ने कहा कि इसका मतलब है सबूत फर्जी थे.

रिपोर्ट के मुताबिक गुरुवार को कोर्ट ने फैसले में कहा कि जांचकर्ताओं ने कपड़ों पर खून लगाकर उनसे छेड़छाड़ की थी और बाद में कपड़ों को मिसो के टैंक में छिपा दिया था. वहीं हाकामाडा की रिहाई के बाद उनकी बहन ने कहा कि उनको कंधों से एक बोझ उतर गया है. जापान में मृत्यु दंड की सजा पाए कैदियों के लिए पुनर्विचार दुर्लभ है. हाकामाडा का पुनर्विचार जापान के इतिहास में पांचवां मामला है.

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