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फौज में मुस्लिम रेजिमेंट खत्म होने की सच्चाई ये है

Indian Army Day 2019 पर जानिए उस वायरल वीडियो की सच्चाई, जिसमें 1965 में मुस्लिम रेजिमेंट खत्म करने की कहानी सुनाई गई है.

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भारतीय थलसेना में कई रेजिमेंट हैं जिनमें मुस्लिम कंपनियां होती हैं (सांकेतिक फोटोःपीटीआई)
अपने यहां सेना को लेकर एक थंब रूल है, 'इस चीज़ के ऊपर कोच्छ नई बोलने का.' बोलना ही है तो तारीफ की जा सकती है, सवाल नहीं उठाए जा सकते. आप पूछेंगे तो सेना के चीयरलीडर आप पर पिल पड़ेंगे. तो एक सवाल दबी ज़बान में पूछा जाता है - फौज में गढ़वाली, मराठा, जाट और सिख रेजिमेंट तो हैं, लेकिन मुस्लिम रेजिमेंट नहीं है. इस सवाल के जवाब में सोशल मीडिया पर कुछ तेजचलू लोगों ने ज्ञान बांटना शुरू किया है. इन दिनों एक वीडियो वायरल हुआ है, जिसमें दावा किया गया है कि फौज में एक समय मुस्लिम रेजिमेंट थी. लेकिन मुस्लिम रेजिमेंट के 20 हज़ार फौजियों ने 1965 की जंग में लड़ने से इनकार कर दिया था. इसलिए मुस्लिम रेजिमेंट को खत्म कर दिया गया.
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हमारे कुछ पाठकों ने ये वीडियो हमें भेजकर पूछा कि सच्चाई क्या है. सस्ते प्रोडक्शन वाले ये वीडियो एक लाइन में फर्ज़ी कहकर खारिज किए जा सकते हैं. लेकिन सेना में मुस्लिम प्रतिनिधित्व एक गंभीर सवाल है. इसलिए तफसील से समझना ज़रूरी है कि सेना का रेजिमेंट सिस्टम है क्या. इससे हम समझ पाएंगे कि फौज में मुस्लिम रेजिमेंट न होने की शिकायत कितनी सही या गलत है. रही बात 65 की जंग में मुसलमानों की गद्दारी की, तो स्टोरी पूरी पढ़ेंगे तो वो मुगालते भी दूर हो जाएंगे.

 
क्या है फौज का रेजिमेंटल सिस्टम?
रेजिमेंट बना है रेजिमेन (regimen) शब्द से. इस लैटिन शब्द का मतलब होता है नियमों की एक व्यवस्था. रेजिमेंटल सिस्टम सबसे पहले इंफेंट्री (पैदल सेना) में आया. इसलिए रेजिमेंट कहने पर सबसे पहला ख्याल बंदूक थामे पैदल सैनिकों का ही आता है. इंफेंट्री में रेजिमेंट का मतलब फौज की एक ऐसी टुकड़ी से होता जिसका अपना अलहदा तौर तरीका और इतिहास हो. हर रेजिमेंट का अपना अलग झंडा, अपना निशान और वर्दी होती है. थलसेना की मानक ट्रेनिंग के अलावा हर रेजिमेंट के जवान एक खास तरह की ट्रेनिंग और परंपराओं का पालन करते हैं. एक रेजिमेंट में कई बटालियन होती हैं. हर बटालियन का एक नंबर होता है; '2 सिख' का मतलब हुआ सिख रेजिमेंट की दूसरी बटालियन.
 
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हिंदुस्तान में किसी खास पहचान (जैसे मराठा या गढ़वाली) के आधार पर रेजिमेंट बनाने की शुरुआत अंग्रेज़ों ने की. एक थ्योरी दी गई जिसके मुताबिक चुनिंदा समुदायों से आने वाले लोग बेहतर लड़ाके माने गए. जैसे पठान, कुरैशी, अहीर और राजपूत. इन्हें मार्शल रेस कहा गया. बचे हुए समुदाय नॉन मार्शल कहलाए. इस तरह जाति या क्षेत्र वाली पहचान के आधार पर रेजिमेंट बनीं. 1857 की बगावत के बाद अंग्रेज़ों ने उन इलाकों से फौज में भर्ती कम कर दी जहां के सिपाहियों ने राज के खिलाफ हथियार उठाए थे. अब मार्शल रेस ज़्यादातर उन समुदायों को माना गया जिन्होंने बगावत में अंग्रेज़ों का साथ दिया था. भर्ती इन्हीं समुदायों से होने लगी.
कई रेजिमेंट फौज में तब शामिल हुईं जब हिंदुस्तान के राजा अंग्रेज़ों से हार गए. उदाहरण के लिए सिख रेजिमेंट की जड़ें महाराजा रणजीत सिंह की खड़ी की फौज में हैं. सिख साम्राज्य जब 1849 में अंग्रेज़ों से हारा, तब उसकी फौज अंग्रेज़ फौज में शामिल हो गई और सिख रेजिमेंट कहलाई.
1880 के आसपास चीन में तैनात लुधियाना सिख रेजिमेंट के जवान (फोटोः विकिमीडिया कॉमन्स)
1880 के आसपास चीन में तैनात लुधियाना सिख रेजिमेंट के जवान (फोटोः विकिमीडिया कॉमन्स)

मुसलमान कितने थे फौज में?
1857 का विद्रोह बंगाल आर्मी के सिपाहियों ने किया था. इसलिए बंगाल आर्मी में जिन इलाकों से भर्ती होती थी, वहां से बाद में भर्ती कम हो गई. ये इलाके थे अवध से लेकर बंगाल तक. यहां से न मुसलमान फौज में लिए जाते थे, न ब्राह्मण, क्योंकि इन्होंने बगावत में हिस्सा लिया था. इतना ज़रूर था कि मुसलमानों से अंग्रेज़ कुछ ज़्यादा नाराज़ थे क्योंकि अवध और बंगाल के नवाब उनके खिलाफ लड़े थे. लेकिन 1857 के बाद भी अंग्रेज़ दूसरे इलाकों के मुसलमानों को फौज में भर्ती करते रहे. लेकिन ये मुसलमान भारत (तब के) उत्तर पश्चिम से होते थे. माने पठान, कुरैशी, मुस्लिम जाट, बलोच वगैरह. सटीक आंकड़े नहीं हैं, लेकिन आज़ादी से पहले लगभग 30 फीसदी फौजी मुसलमान थे.
आज़ादी के बाद
आज़ादी के बाद ब्रिटिश इंडियन आर्मी का बंटवारा हुआ. एक हिस्सा इंडियन आर्मी बना और दूसरा पाकिस्तान आर्मी. मुसलमान फौजी ज़्यादातर उत्तर पश्चिम से थे, तो वो पाकिस्तान की फौज में शामिल हुए क्योंकि उनके घर उन्हीं इलाकों में थे. इसलिए भारत की फौज में मुसलमानों की संख्या कम रही. लेकिन मुसलमान किनारे कर दिए गए, ये कहना सही नहीं है. पाकिस्तान के खिलाफ 1965 में हुई जंग में खेमकरण की लड़ाई में 4 ग्रेनेडियर के हवलदार अब्दुल हामिद को मरणोपरांत परमवीर चक्र दिया गया.
परमवीर चक्र विजेता हवलदार अब्दुल हामिद
परमवीर चक्र विजेता हवलदार अब्दुल हामिद 

आज क्या स्थिति है?
आज़ाद भारत में सेना आधिकारिक रूप से मार्शल रेस थ्योरी त्याग चुकी है. इंफेंट्री में पुराना रेजिमेंटल सिस्टम अब भी चल रहा है. लेकिन ऐसा नहीं है कि रेजिमेंट में किसी और समाज से लोग लिए ही नहीं जाते. लड़ने वाले सिपाही (फाइटिंग ट्रूप्स) भले एक खास पहचान के हों, उनके अफसर किसी भी धर्म या जाति या क्षेत्र के हो सकते हैं. परमवीर चक्र विजेता कैप्टन मनोज पांडे गोरखा नहीं थे. लेकिन कारगिल में जब वो लड़ते हुए शहीद हुए, तो वो 11 गोरखा राइफल्स के अफसर थे. फौज में कहा जाता है, 'An officer has got the religion of his troops.' माने अफसर का अपना कोई धर्म नहीं होता. उसके जवानों का धर्म ही उसका धर्म होता है. इस जुमले को लेफ्टिनेंट कर्नल विरेंदर सिंह (रिटायर्ड) ऐसे समझाते हैं,
मैं जाट हूं. लेकिन मैंने ज़िंदगी भर सिख रेजिमेंट की जवानों का नेतृत्व किया. मेरे जवान मेरी ज़िम्मेदारी होते थे, मेरे आदेश पर जान देते और लेते थे. इसलिए मैंने ताउम्र सीना चौड़ा करके कहा, I am a proud Sikh of the Sikh Regiment. (मैं सेना की सिख रेजिमेंट का एक 'सिख' हूं और मुझे इस पर गर्व है .)
इसी तरह बटालियन में ट्रेड्समैन और क्लर्क (वो फौजी, जो मोची और नाई का काम करते हैं) भी किसी भी धर्म या जाति के हो सकते हैं. यहां ये समझा जाए कि इंफेंट्री की रेजिमेंट्स में अलग-अलग परंपराएं होती हैं. ऐसा ही भर्ती के मामले में भी है. सिख रेजिमेंट के फाइटिंग ट्रूप्स जट सिख होते हैं. लेकिन महार रेजिमेंट में महार जाति के साथ बाकी जातियों के जवान भी होते हैं. कुछ रेजिमेंट (जैसे ब्रिगेड ऑफ गार्ड्स) ऐसी भी होती हैं जिनमें पूरे भारत से फौजी लिए जाते हैं.
सिख रेजिमेंट के फाइटिंग ट्रूप्स जट सिख होते हैं (फोटोःरॉयटर्स)
सिख रेजिमेंट के फाइटिंग ट्रूप्स जट सिख होते हैं (फोटोःरॉयटर्स)

फौज में मुस्लिम प्रतिनिधित्व
न तो ब्रिटिश इंडियन आर्मी में, न ही भारतीय थलसेना में कभी मुस्लिम रेजिमेंट थी. लेकिन इंफेंट्री बटालियनों में मुसलमानों को प्रतिनिधित्व हमेशा से मिलता रहा है. दूसरे विश्व युद्ध में जब राजपूत रेजिमेंट लड़ने गई, तब उसमें आधे फौजी राजपूत और आधे मुसलमान होते थे. इंडियन आर्मी की ग्रेनेडियर रेजिमेंट की बटालियनों में आधे जवान मुसलमान होते हैं. ग्रेनेडियर रेजिमेंट में भर्ती होने वाले मुसलमान ज़्यादातर राजस्थान में रहने वाले कायमखानी मुसलमान होते हैं. दूसरे मुसलमान समाजों से भी लोग इस रेजिमेंट में भर्ती होते हैं. इसी तरह जम्मू कश्मीर लाइट इंफेंट्री में भी आधे जवान मुसलमान होते हैं. इनके अलावा फौज के दूसरे अंगों (आर्टिलरी और आर्मड कोर) में भी मुसलमान होते हैं. ये वैसा ही है, जैसे कभी नॉन मार्शल रेस समझे जाने वाले दूसरे समाजों के लोग आज फौज में भर्ती होते हैं. मेरे पिता नायक धनराज वाठ (रिटायर्ड) साढ़े 17 साल आर्टिलरी में तोपची रहे. वो भी कथित मार्शल रेस से नहीं आते थे.
ग्रेनेडियर रेजिमेंट की कुछ बटालियनों में आधे जवान मुसलमान होते हैं
ग्रेनेडियर रेजिमेंट की कुछ बटालियनों में आधे जवान मुसलमान होते हैं

रेजिमेंटल सिस्टम की आलोचना
ये तर्क कई बार किया जा चुका है कि जाति या क्षेत्र के आधार पर चल रहे रेजिमेंटल सिस्टम को खत्म कर देना चाहिए क्योंकि आज़ाद भारत में कोई भी डोगरा या मराठा से पहले भारतीय है. इसलिए भारतीयों की रक्षा में लगे जवानों को भी भारतीय से कम और ज़्यादा कुछ होने की ज़रूरत नहीं होनी चाहिए. मांग होती रही है कि जनसंख्या में हिस्सेदारी के अनुपात में लोग फौज में भी नज़र आएं. लेकिन रेजिमेंटल सिस्टम के अपने पैरोकार हैं. 'दी लल्लनटॉप' से बातचीत में लेफ्टिनेंट कर्नल विरेंदर सिंह (रिटा.) ने रेजिमेंटल सिस्टम का पक्ष लेते हुए कहा,
इंफेंट्री के जवान दुश्मन जवानों से सीधे जाकर भिड़ते हैं. ऐसी स्थितियां भी बन जाती हैं जब दुश्मन की आंख में आंख डालकर अपने हाथों से उसकी जान लेनी पड़ती है. लड़ाई में आपके साथी फौजी की जान पर बन आए तो आपको उसे बचाने जाना होगा, चाहे आपकी जान को खतरा पैदा हो जाए. जान लेने और देने के लिए जिस स्तर के मोटिवेशन की ज़रूरत पड़ती है, वो मिलना कुछ आसान हो जाता है जब आपके साथी फौजी उसी बैकग्राउंड से हों जिससे आप आते हों. जाति, क्षेत्र या इतिहास पर गर्व जवानों को मोटिवेट करता है. ऐसा खालिस पेशेवर कारणों से किया जाता है. फौज किसी भी तरह के अलगाववाद के खिलाफ है, चाहे वो जाति का हो या क्षेत्र का.
फौज में अफसर जवानों के सभी धार्मिक कार्यक्रमों में शामिल होते हैं, चाहें वो किसी भी धर्म से हों (फोटोःकोरा)
फौज में अफसर जवानों के सभी धार्मिक कार्यक्रमों में शामिल होते हैं, चाहें वो किसी भी धर्म से हों (फोटोःकोरा)

मॉरल ऑफ द स्टोरी
रेजिमेंटल सिस्टम के नफे-नुकसान पर बहस होती रहनी चाहिए. इसी तरह फौज में मुसलमानों के प्रतिनिधित्व को भी एक टैबू विषय मानकर हमें संवाद से भागना नहीं चाहिए. लेकिन उस से पहले बहुत ज़रूरी है कि हम जिस व्यवस्था की आलोचना कर रहे हैं, उसे ठीक तरीके से समझें. मोटी अक्ल वालों के लिए मैं कुछ पॉइंटर और लिख रहा हूं-

- मुस्लिम रेजिमेंट ने 65 की जंग में कोई गद्दारी नहीं की थी

- क्योंकि फौज में कोई मुस्लिम रेजिमेंट थी ही नहीं

- लेकिन फौज में मुसलमान होते हैं

- कई रेजिमेंट हैं, जिनकी बटालियनों में मुसलमानों की कंपनियां होती हैं

** भारत का रक्षा मंत्रालय और सेना दोनों फौज में मुसलमानों की गिनती के खिलाफ रहे हैं. उनका मानना है कि धार्मिक आधार पर सैनिकों की गिनती सेना के मनोबल को ठेस पहुंचाएगी. इसलिए आज सेना में मुसलमानों के सटीक आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं.

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