चुनावी मौसम में दी लल्लनटॉप आपके लिए लेकर आया है पॉलिटिकल किस्सों की ख़ास सीरीज़- मुख्यमंत्री. इस कड़ी में बात राजस्थान के उस नेता की, जिसने अपनी बेटी की मौत के बाद देश की सबसे बड़ी गर्ल्स यूनिवर्सिटी बना दी. जो पटेल और नेहरू के बीच पिसते हुए राजस्थान का पहला मुख्यमंत्री बना. नाम था हीरा लाल शास्त्री.
हीरालाल शास्त्री : राजस्थान के पहले सीएम, जिनकी बेटी का देहांत हुआ तो बनवा दी सबसे बड़ी गर्ल्स यूनिवर्सिटी
और एक दूसरी मौत के साथ ही इनके राजनीतिक करियर पर ग्रहण लगा दिया.

वनस्थली विद्यापीठ के संस्थापक और राजस्थान के पहले सीएम हीरा लाल शास्त्री की कहानी
साल 1951. टोंक का वनथली गांव. एक बुजुर्ग टहल रहा है. कुछ रोज पहले मुख्यमंत्री का पद छोड़कर आया है. कमजोर हो गया था. राजनीतिक रूप से. क्योंकि उनके राजनीतिक संरक्षक सरदार पटेल अब नहीं रहे थे. राज्य की कमान विरोधी गुट के हाथ चली गई.

जयपुर का त्रिपोलिया बाजार.
लेकिन वो भी हार मानने को तैयार नहीं था. वापस जयपुर पहुंचा. एक मीटिंग की. जयपुर के त्रिपोलिया बाजार में. अपने समर्थकों से नई पार्टी बनाने पर चर्चा की. समर्थकों ने हामी भरी तो जनता पार्टी नाम से एक पार्टी बनाने का ऐलान कर दिया. अपनी सरकार में मंत्री रहे वेदपाल त्यागी को इस पार्टी का महामंत्री बना दिया. अब तक जिस पार्टी को संभाल रहे थे, पहले ही चुनाव में उसके खिलाफ ताल ठोकने का मन बना लिया था. इस नेता का नाम था हीरालाल शास्त्री. इस मीटिंग को याद रखिएगा. क्योंकि हम इस पर लौटेंगे. फिलहाल तो जोबनेर चलते हैं. जहां से सब शुरू हुआ.
अंक-1: हीरालाल जोशी बन गए हीरालाल शास्त्री
जयपुर से करीब 60 किलोमीटर दूर एक कस्बा है जोबनेर. अपनी एग्रिकल्चर यूनिवर्सिटी के लिए फेमस है. यहीं के एक किसान परिवार में 24 नवंबर 1899 को पैदा हुए हीरालाल जोशी. मां बचपन में गुजर गई. पढ़ने लिखने में हीरा हीरा जैसे ही निकले. जयपुर स्टेट टॉप किया. 21 साल की उम्र में संस्कृत में शास्त्री की उपाधि भी हासिल कर ली. अध्यापकी भी चल रही थी. अब नया नाम हो गया. हीरालाल शास्त्री.

जोबनेर की एग्रिकल्चर यूनिवर्सिटी.
इसी साल हीरालाल की शादी हो गई. अब वह गांव में आश्रम बनाकर गृहस्थी चलाने का विचार करने लगे. लेकिन जयपुर राजघराने की इच्छा कुछ और थी. वे अपने इस पालित को मेया कॉलेज में बतौर अध्यापक देखना चाहते थे. लेकिन ये इतना आसान नहीं था. क्योंकि कॉलेज में सिर्फ अंग्रेज ही अध्यापक होते थे. मगर रियासत का मान रखा गया. शास्त्री यहां पढ़ाने लगे.

अजमेर का मेयो कॉलेज, जहां से शास्त्री ने अपने करियर की शुरुआत की.
छह महीने बाद ही वो पीसीएस हो गए. यहां भी छह साल ही टिके. फिर जहां गए वहां आखिरी सांस तक टिके. वनथली.
अंक-2: बेटी की मौत तो क्रांति शुरू हुई
जयपुर से 75 किलोमीटर दूर निवाई के पास वनथली गांव है. शास्त्री अपनी बेटी शांता और पत्नी रतन के साथ यहीं जीवन कुटीर आश्रम बनाकर रहने लगे. समाजसेवा शुरू हो गई. गांव में कोई स्कूल नहीं था. बेटी शांता को शास्त्री खुद पढ़ाते. बेटी जब पढ़ नहीं रही होती, तब खेलती. ईंट रोड़े से एक ढांचा बनाती और कहती- बापू, मेरा स्कूल.
बापू कहता-
हां बिटिया, तेरा स्कूल. और मन में संकल्प लेते. गांव के लिए स्कूल खोलूंगा.
मगर ये सब हो पाता उससे पहले ही एक रोज 12 साल की शांता बहुत बीमार हुई और गुजर गई. शास्त्री ने बिटिया की मौत पर संकल्प लिया. स्कूल का. जहां लड़कियां सिर्फ पढ़ें नहीं. रहें भी. फिरअक्टूबर 1935 में स्कूल खुला तो नाम रखा गया शांताबाई शिक्षा कुटीर. पहले साल छह लड़कियों ने पढ़ाई की. फिर ये संख्या बढ़ती गई. कितनी. इतनी कि आज ये देश की सबसे बड़ी गर्ल्स यूनिवर्सिटी है. इसे आप वनस्थली विद्यापीठ के नाम से जानते हैं.

हीरालाल की पत्नी रतन और बेटी शांता.
स्कूल शुरू हुआ तो शास्त्री ने एक बेहद मार्मिक कविता लिखी. आपको पढ़नी चाहिए.
एक म्हां को फूल प्यारो
अध खिल्यो कुम्हला गयो,
सोग बीत्यो, हरख छायो,
फूल बाग लगा गयो.
मतलब, मेरा एक फूल आधा खिलकर मुरझा गया. लेकिन अब शोक बीत गया है, हर्ष छा गया है. और वो फूल, फूल बाग लगा गया.
अंक-4: मास्टर जी अब सूबा चलाएंगे
स्कूल-कॉलेज के साथ शास्त्री सियासत में भी सक्रिय थे. जयपुर प्रजामंडल को उन दिनों संभालते थे गांधी के करीबी जमनालाल बजाज. जमनालाल ने शास्त्री को मंडल का सचिव बना दिया. 1942 में जमनालाल गुजरे तो शास्त्री ही सर्वेसर्वा हो गए. और इसी दौरान वह नेहरू और पटेल के करीब आ गए.
देश को आजादी मिली तो संविधान सभा बनी. शास्त्री इसमें जयपुर की नुमाइंदगी कर रहे थे. सभा में हीरालाल का सबसे बड़ा योगदान. सभी नागरिकों के लिए समान अधिकार की वकालत. कोई राजा नहीं, कोई जमींदार नहीं. इन तेवरों को देख, पटेल उन्हें और पसंद करने लगे. और इसी के चलते सरदार ने उनकी दिल्ली छुड़वा दी.
25 मार्च, 1948 को राजपूताना की कई रियासतों को मिलाकर राजस्थान यूनियन बना. इसका मुखिया होना था एक प्रधानमंत्री को.
मेवाड़, मारवाड़ समेत कई प्रजामंडलों में चल रही लोकप्रिय सरकारें खत्म होने को थीं. इन सब रियासतों को देर सवेर राजस्थान में मिलना था. इसलिए इन सरकारों के मुखिया अब राजस्थान का मुखिया बनने को आतुर थे. जयनारायण व्यास और माणिक्यलाल वर्मा दिल्ली तक लॉबीइंग कर रहे थे. मगर पटेल ने सबसे दावे किनारे धर दिए और शास्त्री को राजस्थान का पहला प्रधान बना जयपुर भेज दिया.

हीरालाल शास्त्री का मंत्रिमंडल.
शास्त्री ने काम शुरू किया. अड़चनें भी शुरू हुईं. क्योंकि दूसरे नेता कांग्रेस की पॉलिटिक्स में शास्त्री को खुद से बहुत जूनियर मानते थे. दूसरा, शास्त्री मास्टरी करते करते अक्खड़ भी हो चुके थे. उनके हिस्से की मधुरता का कोटा पूरा करते थे राज्य के कांग्रेस अध्यक्ष गोकुल भाई भट्ट. कुछ महीने विरोधियों ने इंतजार किया. इस आस से कि जब पूर्ण राज्य बन जाएगा. सब रियासतें मिल जाएंगी. तब शास्त्री चले जाएंगे. 30 मार्च, 1949 को संपूर्ण राजस्थान का गठन हुआ (इसमें अजमेर-मेरवाड़ा 1956 में शामिल हुए थे. ) और एक बार फिर पटेल ने शास्त्री का नाम आगे कर दिया.
अंक-5 सरदार पटेल को जयपुर से टेलिग्राम
ऐसा नहीं था कि शास्त्री को अपने विरोधियों का अंदाजा नहीं था. या फिर वह उनके प्रति करुणा से भरे थे. जब राजस्थान राज्य बना तो जयपुर में एक उदघाटन समारोह हुआ. इसमें मंच पर सबसे आगे की कतार में बैठे राजघराने के लोग और शास्त्री. फिर अगली कतार में अधिकारी. तीसरी यानी आखिरी पंक्ति में कांग्रेस के कद्दावर नेताओं को जगह मिलना तय हुआ.
जयनारायण व्यास, माणिक्यलाल वर्मा और टीकाराम पालीवाल सरीखे वरिष्ठ नेताओं ने इसे अपमान माना और कार्यक्रम का बहिष्कार किया. इसके बाद हीरालाल शास्त्री ने अपना मंत्रिमंडल बनाया. इसमें भी विरोधियों को समायोजित करने की जहमत नहीं उठाई. व्यास-वर्मा कैंप का राजस्थान की नेतागिरी के साथ-साथ नौकरशाही में भी अच्छा-खासा प्रभाव था. इसको कम करने के लिए शास्त्री ने बड़े पदों पर दूसरे राज्यों से लाकर अधिकारी तैनात किए.
दूसरे कैंप के छुटभैये नेताओं को अपने पाले में लाने के लिए नए-नए बोर्ड बनाकर उनकी अध्यक्षी दे दी. हरिजन मंडल, आदिवासी मंडल और ग्रामउद्योग मंडल इसके उदाहरण थे. लेकिन इन सबसे भी बगावत नहीं थमी. शास्त्री के मुख्यमंत्री बनने के तीन महीने के अंदर ही व्यास-वर्मा कैंप ने किशनगढ़ में राजस्थान प्रदेश कांग्रेस कमिटी की बैठक की. जून, 1948 में हुई इस बैठक में कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष गोकुल भाई भट्ट और मुख्यमंत्री हीरालाल शास्त्री के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पास हुआ. कमिटी ने जयनारायण व्यास को नया अध्यक्ष चुन लिया गया. और सीएम पर फैसला लेने के लिए सरदार पटेल को टेलिग्राम किया गया.

हीरालाल शास्त्री वल्लभ भाई पटेल के करीबी थी ऐसे में उनको पूरा समर्थन देते थे.
अब सबको पटेल के जवाब का इंतजार था. देश के गृह मंत्री ने लिखा-
शास्त्री राज्य के मुखिया हैं. वो प्रदेश कांग्रेस कमिटी के लिए जवाबदेह नहीं हैं. वो एक चुने हुए मुख्यमंत्री नहीं बल्कि मेरी इच्छा से बनाए मुख्यमंत्री हैं. और ये प्रदेश कांग्रेस कमिटी के अधिकार क्षेत्र से भी बाहर है. ऐसे में उनके खिलाफ ऐसी चालबाजी करना आप लोगों के लिए ठीक नहीं है.
अंक-6: शास्त्री ने अपनी पार्टी के नेताओं के खिलाफ ही जांच बिठाई
अब व्यास-वर्मा कैंप पर पलटवार की बारी शास्त्री की थी. उन्होंने एक विशेष अदालत का गठन किया. इसका काम, जोधपुर सरकार चलाते वक्त हुए कथित आर्थिक गबन की जांच. यानी जयनारायण व्यास और उनके साथी द्वारका प्रसाद पुरोहित, मथुरादास माथुर की जांच . अदालत के लपेटे में उदयपुर के प्रधानमंत्री रहे माणिक्यलाल वर्मा भी आए. सब नेता अपने कागज पत्तर समेत पटेल के दरबार में हाजिर हुए. वहां से क्लीन चिट मिली तो फिर अदालती जांच में भी कुछ न साबित हुआ.

जयनारायण व्यास, मथुरादास माथुर और माणिक्यलाल वर्मा.
फिर आए 1950 में कांग्रेस के संगठन चुनाव. राष्ट्रीय अध्यक्ष के लिए दो नाम थे, जेबी कृपलानी और पुरुषोत्तम दास टंडन. कृपलानी पंडित नेहरू के करीब माने जाते थे और टंडन सरदार पटेल के.
शास्त्री खेमे ने जाहिराना तौर पर टंडन का साथ दिया. व्यास-वर्मा कैंप ने कृपलानी को वोट किया. टंडन चुनाव जीत गए, मगर चुनाव के तुरंत बाद सरदार पटेल का देहांत हो गया. अब कांग्रेस के सर्वेसर्वा सिर्फ पंडित नेहरू थे. और शास्त्री का पक्ष रखने वाला दिल्ली में कोई नहीं.
सब तरफ से घिरे हीरालाल शास्त्री ने 3 जनवरी, 1951 को अचानक इस्तीफा दे दिया. उस समय देश के पहले चुनावों की तैयारी चल रही थी. राज्य में संवैधानिक संकट की स्थिति बन गई. इसलिए एक सिविल सर्वेंट सी एस वेंकटचारी को सीएम बनाया गया.
अंक 7: और अंत में फिर शुरुआती मीटिंग पर चलते हैं
शुरू में हमने वनथली में लिए फैसले के बाद जयपुर में हुई एक मीटिंग और जनता पार्टी के बनने का जिक्र किया. जैसे ही इसकी खबर व्यास-वर्मा कैंप में पहुंची उन्होंने तुरंत पंडित नेहरू को हरकारे दौड़ाए. पंडित नेहरू ने शास्त्री को अपने पास दिल्ली बुलाया. पार्टीबाजी के फेर में पड़ने के बजाय केंद्र की राजनीति में आने का ऑफर दिया. शास्त्री ने नेहरू की बात मान ली.

वनस्थली विद्यापीठ का शांताबाई छात्रावास.
एक बार लोकसभा सांसद भी बने. सवाई माधोपुर से. लेकिन फिर सियासत से रुख मोड़ शिक्षा पर कर दिया. वनस्थली पर कर दिया. वनथली में ही 28 दिसंबर, 1974 को हीरालाल शास्त्री का देहांत हो गया.
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