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अयोध्या का राम मंदिर जिस नागर शैली में बना है, उसके बारे में ये बातें नहीं जानते होंगे!

राम मंदिर की आज प्राण-प्रतिष्ठा हो रही है. मंदिर, नागर शैली में बना है. पूरे मंदिर परिसर की डिज़ाइन, 81 साल के वास्तुकार चंद्रकांत सोमपुरा और उनके बेटे आशीष ने मिलकर तैयार की है.

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राम मंदिर में आज प्राण-प्रतिष्ठा हो रही है. (फोटो सोर्स- आजतक)

अयोध्या (ayodhya) में आज 22 जनवरी को राम मंदिर में राम लला (ramlala) की मूर्ति की प्राण-प्रतिष्ठा (ram mandir pran pratishtha) का कार्यक्रम चल रहा है. राम मंदिर नागर शैली (nagar mandir) में बना है. पूरे मंदिर परिसर की डिज़ाइन 81 साल के चंद्रकांत सोमपुरा और उनके बेटे 51 साल के आशीष ने मिलकर तैयार की है. नागर शैली का इतिहास बहुत पुराना है. इस वास्तुकला की अपनी खासियतें हैं. इन्हें समझते हैं.

सबसे पहला सवाल,

शैली या भाषा?

पांचवीं सदी में, उत्तर भारत में गुप्त काल के आख़िरी दौर में मंदिरों की नागर शैली उभरी. इसी दौरान दक्षिण भारत में मंदिरों की द्रविड़ शैली भी विकसित हुई. इंडियन एक्सप्रेस में छपी अर्जुन सेनगुप्ता की  की एक खबर के मुताबिक, एडम हार्डी एक मशहूर वास्तुकार और स्थापत्य इतिहासकार (architectural historian) हैं. उन्होंने साल 2007 में आई अपनी किताब 'द टेम्पल आर्किटेक्चर ऑफ इंडिया' में लिखा है, ‘नागर और द्रविड़ को स्टाइल (शैली) कहा जा सकता है.’ ये दोनों बहुत विस्तृत इलाके और कालखंड में फ़ैली हैं. एडम भारतीय मंदिरों की नागर और द्रविड़ वास्तुकलाओं को 'महान क्लासिकल भाषाएं' मानते हैं.

वो लिखते हैं,

"लैंग्वेजेज़ (भाषाएं) एक ज्यादा उपयुक्त शब्द हैं. इनमें एक व्यवस्था है, जिसमें शब्दकोष है, कई हिस्से हैं और एक व्याकरण देने वाली प्रणाली है. ये प्रणाली, सारे हिस्सों को एक साथ रखने के तरीके तय करती है."

कैसे होते हैं नागर शैली के मंदिर?

नागर मंदिर का मुख्य भवन एक ऊंचे चबूतरे पर बनाया जाता है. इस चबूतरे पर ही एक गर्भगृह (sanctum sanctorum) बना होता है. यानी वो बंद स्थान, जहां मंदिर के प्रमुख देवता की मूर्ति होती है. जैसे आज रामलला की जिस मूर्ति की प्राण-प्रतिष्ठा हो रही है, वो इसी गर्भगृह में हो रही है. इसे मंदिर का सबसे पवित्र हिस्सा माना जाता है. गर्भगृह के ऊपर ही शिखर होता है. ये शिखर ही नागर शैली के मंदिरों का सबसे ख़ास पहलू है.

नागर शैली का मंदिर (फोटो सोर्स- विकिमीडिया कॉमन्स)

स्टेला क्रैमरिश अमेरिका की जानी मानी कला इतिहासकार रही हैं. उन्होंने साल 1946 में अपनी मशहूर किताब द हिंदू टेम्पल, वॉल्यूम-1 में लिखा  है,

"शुरुआती लेखों में वर्णित 20 तरीके के मंदिरों में शुरुआती तीन नाम हैं- मेरु, मंदरा और कैलाश. ये तीनों पहाड़ों के नाम हैं, जो कि पृथ्वी के अक्ष (एक्सिस) हैं. इन नामों में विश्व-भवन का मंदिर, तस्वीर, लक्ष्य और गंतव्य स्थान उभरता है."

एक विशिष्ट रूप से नागर शैली में बने मंदिर के गर्भगृह के चारों तरफ एक प्रदक्षिणा पथ होता है. और गर्भगृह के ही एक्सिस (धुरी) पर कई और मंडप होते हैं. इन्हीं मंडपों की दीवारों पर भित्ति चित्र और नक्काशी देखने को मिलती है.

नागर वास्तुकला के भी 5 प्रकार हैं. माने इस शैली के मंदिरों को 5 तरीकों से बनाया जाता है. एडम हार्डी ने नागर मंदिर शैली के पांच तरीके बताए हैं- वलभी, फमसाना, लैटिना, शेखरी और भूमिजा. वलभी शैली के मंदिरों में लकड़ी की संरचना वाली छत होती है. घुमावदार छत, जैसी कि आपने कुछ झोपड़ियों में देखी होगी.

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जबकि फमसाना शैली के मंदिरों में एक के ऊपर एक कई छतों वाले टावर होते हैं, जिनमें ऊपर वाली छत सबसे चौड़ी होती है. लैटिना शैली में एक ही घुमावदार टावर होता है, जिसमें चार बराबर लंबाई की साइड्स होती हैं. 

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फमसाना नागर शैली का मंदिर (फोटोसोर्स- Pinterest)

हार्डी के मुताबिक,

ये विधा, गुप्त काल में विकसित हुई. सातवीं सदी की शुरुआत तक इन टावरों का कर्वेचर (घुमाव) और बढ़ गया. और पूरे उत्तर भारत में इस तरह के मंदिर बनाए जाने लगे. तीन सदी तक इसी तरह के मंदिर सबसे ज्यादा बने. इन मंदिरों में व्यापक रूप से शिखर, नागर शैली का ही था.”

लैटिना नागर शैली के मंदिर का शिखर (फोटोसोर्स- विकिमीडिया कॉमन्स)

दसवीं सदी के बाद मिश्रित लैटिना विधा के मंदिर बने. इससे शेखरी और भूमिजा शैली का उदय हुआ. शेखरी में मुख्य शिखर की ही तरह कई उप-शिखर बनने लगे. इनका आकार भी अलग-अलग हो सकता था.

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शेखरी नागर शैली का मंदिर  (फोटो सोर्स- X @vajrayudha11)

जबकि भूमिजा में क्षैतिज (होरिजोंटल) और ऊर्ध्वाधर (वर्टीकल) पंक्तियों में कई छोटे शिखर होते हैं. जबकि मुख्य शिखर, पिरामिड के आकार का होता है. अंतर ये है कि इनमें लैटिना विधा की तरह ज्यादा कर्वेचर नहीं होता.

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भूमिजा शैली का मंदिर (फोटोसोर्स- फेसबुक Know Your Bhārat)

ध्यान रखने वाली बात है कि ये विधाएं, आसानी से वर्गीकरण करने के लिए तय की गई हैं. जबकि पुराने वक़्त में मंदिर के आर्कीटेक्ट्स ने किसी एक विधा का पालन सोचसमझकर तय करके नहीं किया. उन्होंने अपने दौर में मौजूद डिज़ाइनों को देखा और उनमें थोड़ा-थोड़ा नया डिज़ाइन इस्तेमाल करते रहे. इस तरह वक़्त के साथ, मंदिरों में बड़ा अंतर आता रहा. लेकिन सभी में सबसे कॉमन बात ये है कि भले ही एक मंदिर के कई शिखर हों, लेकिन सबसे ऊंचा शिखर, हमेशा गर्भगृह के ऊपर होता है.

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