सुप्रीम कोर्ट में इलेक्टोरल बॉन्ड (Electoral Bond Supreme Court) की संवैधानिक वैधता को लेकर सुनवाई चल रही है. इलेक्टोरल बॉन्ड राजनैतिक पार्टियों को गुमनाम तरीके से चंदा देने का एक तरीका है. इसमें चंदा देने वाले व्यक्ति या संस्था की पहचान का पता नहीं चलता. सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इलेक्टोरल बॉन्ड लोगों तक सूचना पहुंचाने में रुकावट पैदा कर सकती है.
इलेक्टोरल बॉन्ड पर सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से पूछे सवाल, क्या जवाब मिला?
सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) में इलेक्टोरल बॉन्ड (Electoral Bond) पर सुनवाई के दौरान CJI डी वाई चंद्रचूड़ (D Y Chandrachud) ने पूछा कि ऐसा क्यों है कि जो पार्टी सत्ता में होती है, उसे सबसे ज्यादा चंदा मिलता है?
भारत के मुख्य न्यायधीश जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ (D Y Chandrachud) के नेतृत्व वाली पांच न्यायधीशों की बेंच इलेक्टोरल बॉन्ड से जुड़े मामले की सुनवाई कर रही है. सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से कुछ गंभीर सवाल पूछे हैं. CJI चंद्रचूड़ ने पूछा, ऐसा क्यों है कि जो पार्टी सत्ता में होती है उसे सबसे ज्यादा चंदा मिलता है?
सरकार की तरफ से सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि चंदा देने वाला हमेशा पार्टी की मौजूदा हैसियत को ध्यान में रख कर चंदा देता है. हालांकि, उन्होंने कहा कि यह उनका व्यक्तिगत जवाब है, सरकार का जवाब नहीं है.
सुप्रीम कोर्ट ने ये भी कहा कि विपक्षी दलों को तो चंदा देने वाले का पता नहीं चलता लेकिन कम से कम जांच एजेंसियों द्वारा 'विपक्षी दलों को चंदा देने वालों' का पता लगाया जा सकता है.
लाइव लॉ के मुताबिक, CJI ने कहा कि दिक्कत ये है कि इलेक्टोरल बॉन्ड कुछ खास लोगों और समूहों को गोपनीयता देता है. जैसे भारतीय स्टेट बैंक (SBI) और कानून प्रवर्तन एजेंसी (Law Enforcement Agency) के लिए यह गोपनीय नहीं है. इधर, सॉलिसिटर जनरल ने तर्क दिया कि किसी राजनैतिक पार्टी को दान देने वाले नागरिक की निजता की रक्षा करना राज्य की जिम्मेवारी है.
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सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यों वाली बेंच में CJI के आलावा जस्टिस संजीव खन्ना, जस्टिस बीआर गवई, जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस मनोज मिश्रा शामिल हैं.
31 अक्टूबर को इस मामले में सुनवाई शुरू हुई. सुनवाई शुरू होने के एक दिन पहले ही केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में एक हलफनामा दायर किया था. इसमें बताया गया कि इलेक्टोरल बॉन्ड की जानकारी हासिल करने का अधिकार ‘तर्कसंगत प्रतिबंधों’ के तहत आता है. मतलब जरूरत पड़ने पर सूचना देने से मना किया जा सकता है.
क्या होता है इलेक्टोरल बॉन्ड?
साल 2017 के बजट सत्र में मोदी सरकार ने इलेक्टोरल बॉन्ड लाने की घोषणा की थी. करीब एक साल बाद, जनवरी 2018 में इसे अधिसूचित कर दिया गया. सरकार हर साल चार बार - जनवरी, अप्रैल, जुलाई और अक्टूबर में 10-10 दिन के लिए बॉन्ड जारी करती है. मूल्य होता है- एक हजार, दस हजार, दस लाख या एक करोड़ रुपये. राजनीतिक पार्टियों को 2 हजार रुपये से अधिक चंदा देने का इच्छुक कोई भी व्यक्ति या कॉरपोरेट हाउस भारतीय स्टेट बैंक की तय शाखाओं से ये बॉन्ड खरीद सकते हैं.
इलेक्टोरल बॉन्ड मिलने के 15 दिनों के भीतर राजनीतिक पार्टी को इन्हें अपने खाते में जमा कराना होता है. बॉन्ड भुना रही पार्टी को ये नहीं बताना होता कि उनके पास ये बॉन्ड आया कहां से. दूसरी तरफ भारतीय स्टेट बैंक को भी ये बताने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता कि उसके यहां से किसने, कितने बॉन्ड खरीदे. इस पर RBI और केंद्रीय चुनाव आयोग दोनों अपनी आपत्ति दर्ज करा चुके हैं.
इलेक्टोरल बॉन्ड को RTI के दायरे से भी बाहर रखा गया है.
इंडियन एक्सप्रेस की दामिनी नाथ की रिपोर्ट के अनुसार, 2017 से 2022 के बीच भारतीय स्टेट बैंक ने 9 हजार 208 करोड़ 23 लाख रुपये का चुनावी बॉन्ड बेचा है. इसमें सबसे अधिक पैसे भारतीय जनता पार्टी को मिले हैं.
दो गैर सरकारी संगठन कॉमन कॉज और असोसिएशन फॉर डेमोक्रैटिक रिफॉर्म्स (ADR) ने 2017 में इलेक्टोरल बॉन्ड को चुनौती दी थी.
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