इब्राहिम अल्काज़ी- वो दिग्गज, जिन्होंने थिएटर कल्चर में तूफान मचाया और चुपचाप किनारे हो लिए
नसीरुद्दीन शाह और ओम पुरी जैसों को एक्टिंग सीखाने वाले इब्राहिम अल्काज़ी ने पहली बार में नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा का ऑफर ठुकरा दिया था.
अपने करियर के दो अलग-अलग दौर में इब्राहिम अल्काज़ी.
5 अगस्त 2020 (अपडेटेड: 5 अगस्त 2020, 18:43 IST)
मशहूर थिएटर पर्सनैलिटी और मॉडर्न इंडियन आर्ट के प्रवर्तकों में से एक इब्राहिम अल्काज़ी नहीं रहे. बेटे फैज़ल के मुताबिक इब्राहिम को हार्ट अटैक आया, जिसके बाद उन्हें दिल्ली के एस्कॉर्ट्स अस्पताल में भर्ती करवाया गया. 4 अगस्त, 2020 को उन्होंने इसी अस्पताल में अपनी अंतिम सांसें लीं. 18 अक्टूबर, 1925 को पैदा हुए इब्राहिम 95 साल के थे. उन्होंने नसीरुद्दीन शाह, ओम पुरी, मनोहर सिंह, सुरेखा सीकरी, अनुपम खेर, रोहिणी हट्टंगड़ी, सीमा बिश्वास, गोविंद नामदेव और मोहन महर्षि जैसे एक्टर्स को ट्रेनिंग दी थी. लेकिन उनकी पहचान सिर्फ यहीं तक सीमित नहीं है. अगर चिट्ठी को तार वाले फॉरमैट में लिखें, तो इब्राहिम अल्काज़ी को उनकी टीचिंग स्टाइल और इंडियन थिएटर कल्चर में क्रांतिकारी बदलाव लाने के लिए जाना जाता है.
नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा के दिनों में इब्राहिम अल्काज़ी डायरेक्टेड एक प्ले में एक्टिंग करते ओम पुरी और नसीरुद्दीन शाह.
एक अरबी बच्चा, जिसके बेस्ट फ्रेंड ने सुसाइड कर लियाइब्राहिम के पिता अरबी और मां कुवैती थीं. पिता मुंबई में मसालों के इंपोर्ट-एक्सपोर्ट का बिजनेस करते थे. फैमिली पुणे में बेस्ड थी. इब्राहिम की शुरुआती पढ़ाई-लिखाई पुणे के सेंट विंसेंट्स स्कूल में हुई. वो स्कूल में अंग्रेज़ी मीडियम में पढ़ते और घर पर उन्हें अरबी और क़ुरान की शिक्षा दिलाई जा रही थी. हर स्कूल की अपनी ड्रमैटिक सोसाइटी हुआ करती थी. स्कूल में फादर्स (सेंट विंसेंट्स के अध्यापक) भी चाहते थे कि बच्चे किताबी पढ़ाई के अलावा को-करीकुलर एक्टिविटीज़ में भी हिस्सा लें मगर इब्राहिम का रुझान पढ़ाई की ओर था. आगे की पढ़ाई के लिए उनका दाखिला बॉम्बे के सेंट ज़ेवियर्स कॉलेज में करवाया गया. बॉम्बे में इब्राहिम की मुलाकात हुई ऑक्सफोर्ड रिटर्न सुल्तान पद्मसी से. सुल्तान थिएटर को लेकर काफी पैशनेट थे. काफी समय साथ गुज़ारने की वजह से इब्राहिम पर उनका गहरा प्रभाव पड़ा. दोनों ने मिलकर 'थिएटर ग्रुप' नाम का एक थिएटर ग्रुप शुरू किया. सुल्तान इंडिया में अंग्रेज़ी थिएटर मूवमेंट के झंडाबरदार माने जाते थे. लेकिन मात्र 23 साल की उम्र में उन्होंने आत्महत्या कर ली. ये सब अनुभव था, जिसे इब्राहिम सोखते चले जा रहे थे.
अपने थिएटर करियर के दौरान एक नाटक में हिस्सा लेते इब्राहिम अल्काज़ी.
घूमते-फिरते दुनिया के नामचीन संस्थान में एडमिशन पा गएसुल्तान के जाने के बाद थिएटर ग्रुप की ज़िम्मेदारी इब्राहिम के कंधों पर आ गई. लेकिन वो पेंटिंग पढ़ना चाहते थे. पिता से 25 हज़ार रुपए उधार लेकर वो लंदन के द एंग्लो-फ्रेंच आर्ट्स सेंटर पहुंचे. लेकिन दूसरे विश्व युद्ध के बाद उस संस्थान की खराब हालत देखकर इब्राहिम निराश हो गए. वो वहां से निकलते हुए गावर स्ट्रीट पर पहुंचे, जहां उनकी नज़र रॉयल अकैडमी ऑफ ड्रमैटिक आर्ट्स (Royal Academy Of Dramatic Arts) की बिल्डिंग पर पड़ गई. इसके बारे में सुना तो था लेकिन ज़्यादा कुछ पता नहीं था. कैज़ुअली उस बिल्डिंग में घुसे और वहां खड़े सज्जन से पूछ लिया कि क्या उन्हें वहां एडमिशन मिल सकता है. जवाब मिला कि ऑडिशंस और इंटरव्यूज़ बंद हो चुके हैं. फिर भी उन सज्जन ने अकैडमी के प्रिंसिपल सर केनेथ बार्न्स से जाकर पूछ लिया कि इंडिया से एक लड़का आया है और वो यहां एडमिशन पाना चाहता है. सर केनेथ बार्न्स ने उन्हें एक हफ्ते बाद इंटरव्यू के लिए बुला लिया. और इस तरह इब्राहिम अल्काज़ी को रॉयल अकैडमी में एडमिशन मिल गया. अगले ढाई साल में थिएटर की फील्ड में उनके योगदान के लिए उन्हें BBC Broadcasting Award से सम्मानित किया गया. थिएटर एजेंट्स ने उन्हें कई ऑफर्स दिए, ताकि वो लंदन में रुककर उनके साथ काम करें, मगर अल्काज़ी वापस इंडिया लौट आए.
मशहूर ग्रीक नाटककार सोफोक्लीज़ के ट्रैजेडी प्ले ईडीपस रेक्स में ईडीपस के टाइटल कैरेक्टर में इब्राहिम अल्काज़ी.
डायरेक्टर बनने से 8 साल पहले NSD का ऑफर ठुकरा चुके थे1950 में इंडिया लौटने के बाद इब्राहिम अल्काज़ी ने एक बार फिर से 'थिएटर यूनिट' नाम का थिएटर ग्रुप शुरू किया. इसके तहत वो बॉम्बे में अंग्रेज़ी प्ले किया करते थे. वहां उनका काम अच्छा चल रहा था. उनके नाटक हिट हो रहे थे. उनके साथ एक्टर्स और ऑडियंस दोनों जुड़ रहे थे. साथ ही विदेशी नाटकों की मदद से वो लोगों को शिक्षित करने का अपना सपना भी पूरा कर रहे थे. अल्काज़ी जिस तरह का काम बॉम्बे में कर रहे थे, उससे देशभर में उनकी मजबूत पहचान बन रही थी. 1954 में उन्हें पहली बार नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा संक्षेप में NSD के डायरेक्टरशिप का ऑफर आया. लेकिन अल्काज़ी ने शिक्षा मंत्रालय के सेक्रेट्री अशफाक़ हुसैन को ड्रामा स्कूल की बेहतरी के लिए कुछ प्लान और स्कीम सुझाकर बात को रफा-दफा कर दिया. बकौल अल्काज़ी, तब वो बिलकुल नौजवान थे और उनके पास प्रशासनिक कामों को करने का कोई अनुभव नहीं था. हालांकि ये ऑफर उनके दिमाग में रह गया था. वो अच्छा थिएटर करना चाहते थे और NSD उन्हें ये काम बड़े लेवल पर करने का मौका दे रहा था. इसकी तैयारी के तौर पर उन्होंने मुंबई में एक एक्टिंग स्कूल खोला. नाटकों की भाषा अंग्रेज़ी से बदलकर हिंदी कर दी गई. ये सबकुछ दिल्ली के लिए हो रहा था.
लंदन से बंबई लौटने के बाद 'थिएटर यूनिट' के लिए अल्काज़ी ने 'एंटीगोन' नाम का प्ले डायरेक्ट किया. उस प्ले के एक सीन में कुसुम हैदर और एम. चिटनिस.
उन दिनों दिल्ली में थिएटर या थिएटर कल्चर जैसी कोई चीज़ नहीं थी. अल्काज़ी अपने इंटरव्यूज़ में बताते हैं कि दिल्ली में बमुश्किल इक्का-दुक्का थिएटर्स थे, जिनकी 'क्वॉलिटी ऑफ वर्क' काफी औसत थी. इसी थिएटर कल्चर की कायापलट के लिए उन्हें दिल्ली बुलाया जा रहा था. ऐसा अल्काज़ी का मानना था. क्योंकि तब देश में उपेंद्रनाथ अश्क, जगदीश चंद्र माथुर, बादल सरकार और मोहन राकेश जैसे हिंदी नाटककार बढ़िया काम कर रहे थे. 1954 में ही दिल्ली में हबीब तनवीर के थिएटर ग्रुप 'नया थिएटर' ने 18वीं सदी के मशहूर शायर/कवि नज़ीर अकबराबादी के जीवन से प्रेरित 'आगरा बाज़ार' नाम का नाटक प्रोड्यूस किया था, जो बड़ा हिट रहा. मगर वो बात भी ठीक है कि दिल्ली में नाटकों और थिएटर कल्चर में बड़ा सुधार अल्काज़ी के दौर में देखा गया.
दिल्ली आने के बाद अल्काज़ी ने खुद मोहन राकेश के नाटक 'आषाढ़ का एक दिन' का मंचन किया. उस नाटक के एक दृश्य में जोहरा सहगल.
डायरेक्टर बनने के साथ खुद स्कूल का पखाना साफ करने लगे1962 में इब्राहिम अल्काज़ी ने राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय माने NSD में डायरेक्टर का पद संभाला. जब अल्काज़ी आए, तब उस संस्थान की हालत बेहद खराब थी. अल्काज़ी ने NSD में अपने हिसाब से काम करना शुरू किया. और इसकी शुरुआत उन्होंने स्कूल के गंदे-बदबूदार टॉयलेट्स को खुद साफ करके की. हालांकि इस मसले पर बात करते हुए अल्काज़ी मोडेस्टी बरतते हुए कहते- ''मैं अपने घर में भी टॉयलेट्स साफ करता हूं और NSD मेरे लिए दूसरे घर जैसा था.''
नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा के दिनों में इब्राहिम अल्काज़ी.
दिल्ली के रबिंद्र भवन यानी वो सरकारी बिल्डिंग, जिसमें संगीत नाटक अकादमी और ललित कला अकादमी जैसे संस्थानों के ऑफिस हैं, वहां भी तोड़फोड़ मचानी शुरू कर दी. अल्काज़ी ने रबिंद्र भवन के तीसरे माले पर दो कमरों को तोड़कर अपने हाथों से एक कमरा (स्टूडियो थिएटर) बनाया ताकि एक्टर्स अच्छे से परफॉर्म कर सकें और उन पर पारखी नज़र रखी जा सके. इस पूरे तोड़फोड़ के दौरान आर्किटेक्ट हबीब रहमान उनके साथ थे. और पूरा रबिंद्र भवन उस कमरे की खिड़कियों पर जमा होकर NSD के डायरेक्टर को माथे पर तसले में ईंट-सीमेंट ढोता हुआ देख रहा था. अल्काज़ी ये चीज़ें इसलिए कर रहे थे, ताकि वो उन संस्थानों को अपना बना सकें. वो मानते थे कि अगर आप कोई चीज अपनी ज़रूरत के हिसाब से तोड़ते-बनाते हो, तो उससे आपका एक कनेक्शन बन जाता है. अपनेपन वाला भाव आने लगता है. इसी आइडिया के तहत उन्होंने NSD (जब वो स्कूल कैलाश कालोनी में हुआ करता था) के बैकयार्ड में स्टूडेंट्स से पेड़ों के नीचे छोटे-छोटे प्लैटफॉर्म्स बनवाए, ताकि वो उसे अपना समझकर उस ओपन थिएटर में अभ्यास कर सकें. हालांकि इतना सबकुछ करने के बाद भी दिल्ली उन्हें कुछ खास रास नहीं आ रही थी. उन्होंने अपने परिवार को एक खत लिखा, जिसमें दिल्ली का ज़िक्र करते हुए वो लिखते हैं-
“This city is a cultural desert.”
जब पंडित नेहरु नाटक देखने आए और कहा- 'सांपों से सावधान'मगर इब्राहिम अल्काज़ी का ये भ्रम जल्द ही टूटने वाला था. दिल्ली की ऑडियंस अल्काज़ी को उनके शुरुआती नाटकों से ही स्वीकार करने लगी. भारी मात्रा में हर उम्र के लोगबाग नाटक देखने आने लगे. अल्काज़ी और दिल्ली की जनता के बीच इस कनेक्शन की दो वजहें थीं. पहली, अल्काज़ी से पहले दिल्ली के थिएटर ग्रुप्स जनता को कम आंककर अपने नाटक तैयार करते थे. हल्के-फुल्के प्ले, जो लोगों को एंटरटेन कर सकें. वो अपना स्टैंडर्ड बढ़ाने की बजाय, अपने बुरे काम का ठीकरा पब्लिक के सिर फोड़ते थे. इसलिए पब्लिक का इंट्रेस्ट थिएटर में खत्म होने लगा. इस बारे में बात करते हुए अल्काज़ी कहते-
''There’s no justification for producing bad quality work.''
दूसरी वजह हैं वो क्रांतिकारी बदलाव, जिसका ज़िक्र हमने ऊपर तार वाले फॉरमैट में किया था. इब्राहिम अल्काज़ी महत्वाकांक्षी स्क्रिप्ट्स चुनते. साथ ही वो इन नाटकों के प्रोडक्शन वैल्यू को लेकर बहुत सीरियस रहते थे. वो उन स्क्रिप्ट्स के साथ सेट डिज़ाइन से लेकर लाइटिंग और कॉस्ट्यूम डिपार्टमेंट तक में न्याय करना चाहते थे. अल्काज़ी बेसिकली अपने काम में नित नए प्रयोग कर लोगों को चौंकाना चाहते थे. इसी कड़ी में उनका अगला बड़ा कदम था, अपने नाटकों के बैकड्रॉप में ऐतिहासिक इमारतों को लेकर आना. अब तक खाली पड़े जगहों पर नाटक होता था, अल्काज़ी ने नाटक के लिए जगहें खाली करवाईं. इस स्टाइल में अल्काज़ी का पहला नाटक था 1963 में 'अंधा युग'. धर्मवीर भारती के इस नाटक को रेडियो स्क्रिप्ट के तौर पर देखा जाता था. लेकिन अल्काज़ी ने स्कूल के सभी 75 स्टूडेंट्स के साथ इसे मंच पर सजीव किया.
फिरोज़ शाह कोटला में हुए 'अंधा युग' के मंचन के दौरान गांधारी के किरदार में एक्ट्रेस मीना पेठे.
1962 में भारत चीन से युद्ध हार चुका था. ठीक इसी समय दिल्ली के मशहूर फिरोज़ शाह कोटला के खंडहरों में 'अंधा युग' का सेट लगाया गया. 'अंधा युग' महाभारत के आखिरी दिन की कहानी है, जब संजय कौरवों के अंधे माता-पिता धृतराष्ट्र और गांधारी को ये बताने जा रहे हैं कि उनके सभी बच्चे युद्ध में मारे जा चुके हैं. महाभारत इस बारे में नहीं है कि कौन सही या कौन गलत है. महाभारत इस बारे में है कि कौन कम गलत है. क्योंकि हिंसा तो दोनों ही ओर से हुई है, और उसका कोई जस्टिफिकेशन नहीं है. धर्मवीर भारती ने ये नाटक भारत की आज़ादी के दौरान हुए खून-खराबे से प्रेरित होकर लिखा था और अल्काज़ी ने इसका मंचन इंडो-चाइना युद्ध के साल किया. बहरहाल, कोटला में सेट लग चुका है. सारी तैयारी पूरी हो चुकी है. ठीक इसी समय पता लगता है कि देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरु भी ये शो देखने आ रहे हैं. पंडित जी के साथ देश के कई बड़े नेता और डिप्लोमैट्स भी वहां पहुंचे. शो बहुत बड़ा हिट रहा. निकलते वक्त नेहरु, अल्काज़ी से मिले और कहा- ''ये किला सांपों के लिए जाना जाता है, थिएटर के लिए नहीं.'' अल्काज़ी ने तुरंत जवाब देते हुए कहा- ''हमें तो नहीं मिले.''
बाद में 'अंधा युग' को दिल्ली के पुराना क़िला में परफॉर्म किया गया और वो शो भी बहुत बड़ा हिट रहा.
इसके बाद इब्राहिम अल्काज़ी ने गिरीश कर्नाड के नाटक 'तुगलक़' का भी मंचन ओपन थिएटर में किया. इस बार लोकेशन था दिल्ली का पुराना क़िला. ये बड़ी नई चीज़ें थीं, जो लोगों ने शायद ही कभी देखी हों. ओपन थिएटर्स में 1000 सीटें यूं भरने लगीं. इब्राहिम अल्काज़ी इंडियन थिएटर कल्चर के पोस्टर बॉय बन गए. लेकिन उनकी लोगों से कभी नहीं बनी. अल्काज़ी अपने हिसाब से अच्छा काम करने में विश्वास रखते थे. वो किसी की नहीं सुनते. इसलिए उन्हें अक्खड़, बदमिजाज़, घमंडी और पता नहीं क्या-क्या कहा गया. मगर उनके काम की लोग इतनी इज़्जत करते थे कि ये चीज़ें कभी उनके करियर के आड़े नहीं आईं.
इब्राहिम अल्काज़ी ने 1974 में गिरीश कर्नाड के नाटक 'तुग़लक' का मंचन भी दिल्ली के पुराना क़िला में किया था. उस प्ले के एक सीन में एक्टर मनोहर सिंह. 'अंधा युग' में मनोहर ने ही संजय का किरदार निभाया था.
संस्थान की बेहतरी के लिए NSD से अलग हो गएअल्काज़ी और नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा एक-दूसरे के पर्याय बन गए थे. लोगों ने कहा कि अल्काज़ी अब इस संस्थान से अलग नहीं हो सकते. लेकिन अल्काज़ी के दिमाग में कुछ और चल रहा था. वो अपने आसपास के लोगों को देख रहे थे. जैसे ही किसी की उम्र 58 पहुंचती, वो अपनी नौकरी बढ़वाने के लिए अल्काज़ी के दरवाजे पर दस्तक देना शुरू कर देता. लोग एक्सटेंशन मांगते थे. लेकिन संस्थान को हर कुछ समय के बाद एक नएपन की ज़रूरत होती है. अगर वही पुराने लोग काम करेंगे, तो वही पुरानी प्रथाएं-प्रक्रियाएं चलती रहेंगी. नयापन नए लोग लेकर आते हैं. इसलिए अल्काज़ी ने तय किया वो इस संस्थान से अलग हो जाएंगे. एक तरह से वो बाकियों के लिए नज़ीर पेश करना चाहते थे. लीडिंग बाय इग्ज़ांपल. दूसरी वजह ये थी कि वो लाइफ में कुछ नया करना चाहते थे. 1962 में नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा ज्वाइन करने के 15 साल बाद यानी 1977 में इब्राहिम अल्काज़ी ने इस संस्थान से अलग होने का फैसला कर लिया. NSD के इतिहास में इतने लंबे समय तक डायरेक्टर के पद पर रहने वाले इब्राहिम अल्काज़ी पहले शख्स थे.
31 मार्च, 2010 को राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल के हाथों देश का दूसरा सबसे बड़ा नागरिक सम्मान पद्म विभूषण ग्रहण करते इब्राहिम अल्काज़ी.
आखिरी सलामइब्राहिम अल्काज़ी ने अपने करियर में 50 से ज़्यादा नाटक डायरेक्ट किए. नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा से अलग होने के बाद वो दूसरे ऑर्ट फॉर्म्स की ओर मुड़ गए. खासकर विज़ुअल आर्ट. उन्होंने अपनी पत्नी रोशन के साथ मिलकर दिल्ली में आर्ट हेरिटेज गैलरी खोली. न्यू यॉर्क सिटी के सेपिया इंटरनेशनल गैलरी में 'द अल्काज़ी कलेक्शन ऑफ फोटोग्राफी' ऐतिहासिक तस्वीरों की दुनिया की सबसे बड़ी प्राइवेट गैलरी है. कला के क्षेत्र मे उनके योगदान के लिए भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री (1966), पद्मभूषण (1991) और पद्म विभूषण (2010) से नवाज़ा. उन्हें डायरेक्शन के लिए दो बार संगीत नाटक अकादमी अवॉर्ड दिया गया. इतने सारे किस्से, कहानी, नाटक और बदलाव दुनिया को सौंप इब्राहिम अल्काज़ी 4 अगस्त, 2020 को गुज़र गए.
कुछ साल पहले इब्राहिम अल्काज़ी के स्टूडेंट नसीरुद्दीन शाह नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा पहुंचे थे. यहां उन्होंने अल्काज़ी का ज़िक्र करते हुए कहा-
''अल्काज़ी साब हमारे लिए सरोगेट पिता की तरह थे. हम उन्हें चच्चा कहकर बुलाते थे. उनके बारे में हमारी फीलिंग क्या थी, ये कोई राज़ नहीं है. हमें सख्त चिढ़ होती थी उनसे. चिढ़ इसलिए होती थी क्योंकि वो सुबह-सुबह हमारे हॉस्टल में आकर हमें खदेड़ते थे बिस्तर से क्लास में जाने के लिए. चिढ़ इसलिए होती थी क्योंकि उनके स्टैंडर्ड इमपॉसिबल जैसे थे. चिढ़ इसलिए होती थी कि वो खुद एक मिसाल थे, वहां तक पहुंचना हमें नामुमकिन लगता था.''
अपनी आर्ट गैलरी में इब्राहिम अल्काज़ी, जो उन्होंने अपनी पत्नी रोशन के साथ मिलकर बनाई थी. रोशन, इब्राहिम के खास दोस्त रहे सुल्तान पद्मसी की बहन थीं.